अर्जुन को विराट दर्शन
प्रश्नकर्ता: कृष्ण भगवान ने अर्जुन को विश्वदर्शन करवाया था, वह क्या है?
दादाश्री: वह विश्वदर्शन, वह आत्मज्ञान नहीं है। ये कितने सारे जन्म लेते हैं और मर जाते हैं, फिर जन्मते हैं, ऐसे कालचक्र में सभी खपते रहते हैं, इसलिए कोई मारनेवाला नहीं है, कोई जिलानेवाला नहीं है, इसलिए हे अर्जुन, तुझे जो मोह है, मार देने का-वह गलत है, उसे छोड़ दे। कृष्ण ने अर्जुन को भयानक रौद्र रूप दिखाया था, सभी को मृत दिखाया था। वह विराट स्वरूप अर्जुन को बताया। एक बार तो अर्जुन घबरा गया। फिर उसे समझ में आ गया, इसलिए वह लड़ने के लिए तैयार हो गया। फिर उन्होंने उसे सौम्य रूप बताया। इस तरह कृष्ण को जो दिखाई दिया था, वही उन्होंने अर्जुन को बताया। उस विराट स्वरूप को हम ‘व्यवस्थित’ कहते हैं।
जेब कटी तो भी ‘व्यवस्थित,’ इसलिए फिर उससे कुछ नहीं होता, आगे की वासनाएँ खड़ी नहीं होती, मोह खड़े नहीं होते। भीतर प्रेरणा हुई तो चलने लगना। यह तो सारी मशीनरी कहलाती हैं, ‘व्यवस्थित’ के चलाने से चलती हैं।
Reference: Book Name: आप्तवाणी 2 (Page #382 - Paragraph #3 & #4, Page #383 - Paragraph #1 & #2)
अहंकार ले लें, वे विराट पुरुष !
प्रश्नकर्ता: विराट स्वरुप वह क्या कहना चाहते हैं?
दादाश्री: दूसरों का अहंकार ले जाये, वे विराट पुरुष कहलाते है।
प्रश्नकर्ता: विराट के दर्शन होने से क्या अहंकार चला जाता है?
दादाश्री: अहंकार जाए तो ही विराट के दर्शन हुए कहलाते हैं।
प्रश्नकर्ता: विराट के दर्शन हुए मतलब ज्ञान हुआ?
दादाश्री: विराट के दर्शन होना अर्थात ज्ञानी पुरुष को पहचानना। वास्तव में विराट तो उन्हें कहा जाएगा, जो हमारे अहंकार को भी निगल जाये। हमारे अहंकार को नष्ट कर दें, उन्हें विराट कहेंगे। और उसका क्या फल आयेगा? वे हमें विराट बना देंगे। विराट स्वरुप बिना तो कोई नमन ही नहीं करेगा ना! इसी तरह कृष्ण भगवान ने भी अपना विराट स्वरुप अर्जुन को बताया था तभी वे नमे थे। नहीं तो नमे ही नहीं ना।
इसलिए लिखा है ना कि, सिका हुआ पापड़ भी तोड़ने कि शक्ति नहीं है, फिर भी हमारा अहंकार ले लेते हैं। तभी एक व्यक्ति मुझसे कहते हैं कि ये तो सच्ची बात है, आपने मेरा अहंकार तो ले लिया है! परन्तु तब यह ही विराट पुरुष! तब भी पुस्तकों में विराट पुरुष को ढूँढने जाते हो?! जो हमारे अहंकार को ले जाए वे विराट पुरुष! अन्य विराट पुरुष इस दुनिया में कैसे होंगे? सीधी और सरल बात। लोग मुझे कहते हैं, ‘आपको विराट पुरुष बनने का शौक है?’ मैं कहता हूँ कि इस भूत को घुसने क्यों दूँगा मैं अपने अंदर? ऐ.बी.सी.डी., ऐम.बी.बी.ऐस... वगेरह और वगेरह सब। ऐसा लफड़ा वाला हूँ क्या मैं?
लाखों अवतार में भी जाए, ये अहंकार ऐसी वस्तु नहीं है। यह एक अकेली वस्तु नहीं है। परन्तु जहाँ विराट स्वरुप हो, तब वे हमारा अहंकार ले लेते हैं। विराट स्वरुप कौन कहलायेगा, कि जिसमें सहज भी बुद्धि ना हो, एक अंश भी बुद्धि ना हो। ऐसे गोदा मार-मार कर अहंकार ही निकाल देते हैं, टायर में से हवा ही निकाल देते हैं। अर्थात जिनका अहंकार सम्पूर्ण नष्ट हो गया हो वे ही (हमारा अहंकार) ले सकते हैं। वे विराट पुरुष कहलाते हैं। स्वयं का अहंकार नष्ट कर दें वह ज्ञानी, दूसरों का अहंकार ले जाए वे विराट पुरुष!
Reference: दादावाणी - दिसंबर 2002 (Page #25 - Paragraph #10, Page #26 - Paragraph #1 & #2)
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