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आज से क़रीब पांच हज़ार साल से पहले भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। फिर भी आज भी लोग उनकी पूजा बहुत ही भक्ति और समर्पण भाव से करते हैं। क्यों? उनकी सोलह हज़ार रानियाँ थीं और वे राजसी और ऐश्वर्यवाला(वैभवशाली) जीवन जिए थे। फिर भी उन्हें भगवान की तरह पूजा गया।

भगवान कृष्ण पूजा के योग्य थे और इसीलिए वह आदरणीय थे। कोई भी किसी को आदर नहीं देता जब तक कि वह पूजा के योग्य नहीं होता। भगवान कृष्ण की पूजा उनकी सच्ची समझ की वजह से की जाती है न कि सिर्फ़ पूजा करने के लिए की जाती है।

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पूरी दुनिया के लोग भगवान कृष्ण की पूजा इतनी भक्ति भाव से क्यों करते हैं?

श्री कृष्ण वासुदेव थे। वासुदेव यानी वे इस दुनिया की सभी चीज़ों का मज़ा लेते हैं, फिर भी वे मोक्ष के अधिकारी है। वासुदेव असाधारण महामानवीय शक्तियों और उपलब्धियों के मालिक थे। वे इतने शक्तिशाली थे कि हजारों लोग उनकी एक दृष्टि से ही डर जाते थे।

भगवान कृष्ण की सोलह हजार रानियाँ थीं फिर भी वे नेष्टिक ब्रह्मचारी थे। इसका मतलब यह था कि उनका हर पल भाव और समर्पण ब्रह्मचर्य के लिए ही था।

जब कि उनके प्रारब्ध कर्म अब्रह्मचर्य के थे, लेकिन उनके अंदर के भाव शुद्ध और हमेशा ब्रह्मचर्य के समर्थक थे। यह उसी तरह है जैसे कोई व्यक्ति चोरी करता है, लेकिन उसके अंदर के भाव हमेशा ऐसे होते हैं कि 'मैं चोरी नहीं करना चाहता,’ तब उसे नेष्टिक अचोर्य(अंदर के भाव चोरी नहीं करने के हैं)। अंदर के भाव से ही आने वाले जीवन के नए कर्म बँधते हैं।

दूसरी ओर जब व्यक्ति लोगों को दान देता है तब उसके अंदर ऐसे भाव होते हैं कि 'मुझे उन लोगों से इसका लाभ मिलेगा' उसके दान का फल अगले जीवन में नहीं मिलेता।

सभी चीज़ें जो हम अपनी पाँच इंद्रियों से देखते हैं और अनुभव करते हैं उनका हमारे अगले जीवन के कर्म के खाते के लिए कोई महत्व नहीं है। हमारे अंदर के भावों की वजह से ही नए कर्म बँधते हैं। बाहर के कर्मों के साथ ही अंदर के के भाव होते रहते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा(God) जागृत हो गई थी इसीलिए वे नर से नारायण(God) बन गए!!!

Lord Krishna

"Lord Krishna is not an ordinary King. He was not the doer of anything. His vision showed that the war will not stop and He told Arjun that you will fight in the war. Lord Krishna was a Narayan Vasudev."

सुदर्शनचक्र का महत्व

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आपने श्री कृष्ण भगवान के सीधे हाथ की छोटी ऊँगली पर एक घूमता हुआ पहिया देखा होगा। और अधिकांश हम सभी को पता है कि इसे सुदर्शन चक्र कहते हैं। लेकिन इस चक्र का क्या अर्थ है? परम पूज्य दादा भगवान ने समझाया है कि, “यह सम्यक् दर्शन(आत्म साक्षात्कार) है जो उन्हें भगवान नेमिनाथ से प्राप्त हुआ था। सुदर्शन का अर्थ है सम्यक् दर्शन(मैं शुद्धात्मा हूँ की दृष्टि)।

अतः सुदर्शन चक्र अर्थात सम्यक् दर्शन या आत्म साक्षात्कार। दर्शन अर्थात दृष्टि; और सुदर्शन यानी सही दृष्टि। 'मैं आत्मा हूँ' यह सही दृष्टि है। अज्ञानता की वजह से इस दुनिया में सभी लोग भ्रांत और गलत दृष्टि से ही अपना जीवन जी रहे हैं कि 'मैं शरीर हूँ या मैं नामधारी हूँ, जिस नाम से शरीर को पहचानते हैं। जब आत्म साक्षात्कार होता है तब सुदर्शन, अज्ञानता का नाश करके सही दृष्टि स्थापित होती है।

यध्यपि श्री कृष्ण की इतनी रानियाँ थीं और वैभवशाली जीवन था फिर भी इस दृष्टि की वजह से वे इन सभी सांसारिक वैभव से हमेशा अलिप्त रहे। बाहर से संसारिक कार्यों में लिप्त होते हुए भी, अंदर वे हमेशा जागृति में रहते कि "शरीर अलग है और मैं शुद्धात्मा हूँ। मैं किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं हूँ।" उनका भौतिक शरीर कर्मों के नियम से अलिप्त नहीं था और इसीलिए वे कर्मों के प्रभाव से अलिप्त नहीं थे; लेकिन जब उनके प्रारब्ध से वैभवशाली जीवन और अनेकों पत्नियाँ आईं तब भी वे हमेशा इसी जागृति में रहते कि "मैं शुद्धात्मा हूँ।"

योगेश्वर कृष्ण अपने अगले जन्म में तीर्थंकर बनकर वापस आएँगे और करोड़ों लोगों को सही दृष्टि देक़र मोक्ष की ओर ले जाएँगे।

भगवान श्री कृष्ण की पूजा करने का सही तरीक़ा

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भगवान कृष्ण की पूजा अलग अलग लोगों के द्वारा अलग अलग ढंग से की जाती है। कुछ लोग श्री कृष्ण के नाम का जप करके पूजा करते हैं, कुछ लोग खास दिन व्रत करके और भगवान को दंडवत प्रणाम करके और अनेकों प्रकार से। लेकिन श्री कृष्ण भगवान की पूजा का सही तरीक़ा उनके सच्चे स्वरूप को पहचानकर उनकी पूजा करना है।

भगवान के प्रति भक्ति ही भगवान के नज़दीक ले जाती है, लेकिन उनके सच्चे स्वरूप को पहचानकर और जो उन्होंने अर्जुन को ज्ञान दिया था वह श्री कृष्ण की पूजा करने के लिए बहुत ही मददरूप होगा।

भगवान श्री कृष्ण के जीवन के तथ्य

कालियदमन :

पाँच हजार साल पुरानी कोबरा की कहानी जिसका नाम कालिया था वह वास्तव में एक रूपक है। यह कहा जाता है कि बाल कृष्ण ने आकर एक भयंकर कोबरा पर विजय प्राप्त की जिसने सभी को आतंकित किया हुआ था। ऐसा कोई भी काम बाल कृष्ण ने नहीं किया था। जब आप ग़ुस्से से वेक़ाबू हो जाते हैं उसे ही कोबरा कहते हैं। बाल कृष्ण को कोबरा के ज़हर को निकालने की क्यों जरूरत पड़ी? उन्हें यह सब करने की क्या जरूरत थी? क्या उन्हें कोई सपेरा नहीं मिला था। लोगों को इसका वास्तविक मतलब पता नहीं है, यह कोबरा तो एक रूपक है। यह भ्रांति अभी तक चल रही है। श्री कृष्ण ने अंदर के कालिया का दमन किया था। कालियादमन में कोबरा क्रोध का प्रतीक है और जब कोई इस क्रोध पर विजय प्राप्त करता है, वही श्री कृष्ण होता है। जो अपने कर्मों को कृश करता है उसे ही कृष्ण कहते हैं।

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गोवर्धन पर्वत को उठाना :

यह प्र्श्न उठता है कि कोई मनुष्य अपनी एक छोटी ऊँगली की नोंक पर एक पहाड़ को कैसे उठा सकता है! और यदि भगवान कृष्ण अपनी ऊँगली पर उसे उठा सकते हैं, तो फिर हिमालय को क्यों नहीं उठा पाए? और यदि वे इतने महान काम कर सकते हैं तो फिर एक छोटे से तीर से घायल होकर मृत्यु को कैसे प्राप्त हो गए? लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। ये सभी बस अलग अलग घटनाएँ है। इन सभी घटनाओं से हम तभी लाभ उठा सकेंगे जब इन्हें सही ढंग से समझेंगे। भगवान कृष्ण ने "गोवर्धन" को महत्व दिया था- अर्थात गौवंश की वृद्धि ज़बरदस्त ढंग से करना, क्योंकि उस समय बहुत ज़्यादा हिंसा चल रही थी।

भारत के लोगों का जीवन अपने पालतू जानवरों पर ही निर्भर था। भगवान कृष्ण का ध्येय जानवरों की रक्षा करना और उनकी संख्या में बढ़ोत्तरी करना था और इसीलिए उन्होंने गायों का रक्षण किया, इसके परिणाम स्वरूप दूध के उत्पादों में बढ़ोत्तरी हुई। यह काम उन्होंने अकेले ही किया था, इसलिए यह प्रतीकात्मक है। अतः श्री कृष्ण ने गायों को सुरक्षित स्थान दिया।

स्वधर्म-परधर्म :

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लोग मानते हैं कि स्वधर्म अर्थात वैष्णव धर्म और परधर्म वे सभी धर्म है जैसे शैव्य धर्म, जैन धर्म आदि। भगवान कृष्ण ने कहा, “परधर्म भयावहः,” लोगों ने इसका अर्थ समझा कि, ‘वैष्णव धर्म के अलावा किसी और धर्म का पालन करना बहुत ख़तरनाक है।' और दूसरे सभी धर्म भी कहते हैं कि परधर्म का मतलब किसी और धर्म का पालन करना ख़तरनाक है, लेकिन कोई भी स्व धर्म और परधर्म का सही मतलब नहीं समझा। परधर्म अर्थात जो हम ख़ुद नहीं है, शरीर, प्रकृति और स्वधर्म अर्थात ख़ुद का धर्म। शरीर को नहलाना-धुलना, व्रत करवाना आदि सभी शरीर के धर्म हैं; यह परधर्म है। इसमें कोई भी स्वधर्म नहीं है। ख़ुद वह आपकी स्वभाविक स्थिति है(स्वरूप)।

भगवान कृष्ण ने कहा, “ख़ुद का धर्म ही स्वधर्म है और दूसरी सभी क्रियाएँ जैसे व्रत या तप आदि क्रियाएँ पराई हैं। इन सभी में ख़ुद का कुछ नहीं है। "स्वधर्म तभी पालन किया जा सकता है जब वह अपने अंदर के कृष्ण को पहचान और समझ लेता है। वही सच्चा वैष्णव है जो अपने अंदर के श्री कृष्ण को पहचान लेता है।

गीता सार

महाभारत के महायुद्ध से पहले श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा , “हे अर्जुन, तुम और मैं बहुत ही लम्बे समय से साथ में ही हैं, लेकिन फिर भी तुम मेरे असली स्वरूप को नहीं पहचानते। जैसा तुम मुझे अपने सामने देखते हो वह मेरा असली रूप नहीं है; तुम जो देख रहे हो वह भौतिक शरीर है। मैं इस शरीर से अलग हूँ। मैं शुद्धात्मा हूँ। तुम भी शुद्धात्मा हो। तुम्हारे भाई, चाचा, गूरू, और दोस्त जिनके साथ तुम युद्ध करने वाले हो, वे भी शुद्धात्मा हैं। यह युद्ध तुम्हारा प्रारब्ध(कर्म) है, इसलिए तुम्हें इसे आत्मा की जागृति के साथ पूरा करना होगा। यदि तुम आत्मा की जागृति में रहकर युद्ध करोगे तो तुम नए कर्म नहीं बांधोगे और बचे हुए कर्म खत्म हो जाएँगे। यह तुम्हें मोक्ष तक ले जाएगा।"

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महान विराट स्वरूप के दर्शन का अर्थ है, ज्ञानी को पाहचानना। वास्तव में, विराट किसे कह सकते हैं? वह जो हमारे अहंकार को खत्म कर सकते हैं। वह हमारे अहंकार के टुकड़े टुकड़े करके खत्म कर देते हैं, उन्हें विराट कहते हैं! लोगों में विराट पुरुष के लिए पूज्य भाव उत्पन्न होता है। जब कृष्ण भगवान ने अपना विराट स्वरूप अर्जुन को दिखाया तब अर्जुन कृष्ण भगवान के सामने समर्पित हो गया!

इसप्रकार अर्जुन उस जागृति में रहा जो कृष्ण भगवान ने उसे दी थी। उसने बहुत से महान व्यक्तियों का वध किया फिर भी उसने एक भी कर्म नहीं बांधा और अंत में उसी जीवन में उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई।

अक्रम विज्ञानी ज्ञानी पुरुष

भगवान कृष्ण ने कहा, “मोक्ष का मार्ग मिलना अत्यंत-२ ही मुश्किल है, लेकिन यदि किसी को ज्ञानी पुरुष मिल जाएँ तो यह खिचड़ी बनाने से भी आसान है।

जो ज्ञान भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया, वही ज्ञान अक्रम विज्ञानी ने हमें यहाँ दिया है। ज्ञानी पुरुष हमारे जन्मों जन्म के पापों को भष्मीभूत करके हमें सच्ची दृष्टि देते हैं जो हमेशा के लिए स्थापित हो जाती है, जिससे हम आत्मरूप होकर सभी को आत्मरूप से देखते हैं।

वह हमें स्वरूप की जागृति दे देते हैं! जिससे हम जैसा कि योगेश्वर भगवान कृष्ण ने भागवत गीता में कहा है, कि हम अपनी भौतिक दुनिया की ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए स्वधर्म(आत्मधर्म) में आ जाते हैं। तो चलिए हम उनकी प्रत्यक्ष हाज़िरी में अपना काम निकाल लें।

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चलिए नीचे की बातचीत से और अधिक समझते हैं कि कैसे अर्जुन ने भगवान कृष्ण से दिव्य दृष्टि प्राप्त की…

प्रश्नकर्ता : भगवान कृष्ण अर्जुन से महाभारत युद्ध लड़ने के लिए क्यों कहा?

दादाश्री : उस समय भगवान कृष्ण इन शब्दों के निमित्त थे। अर्जुन सांसारिक मोह से घिर गया था। वह अपने क्षत्रिय धर्म को निभाने के वजाय वह अपने भाई, गूरू जो उसके शत्रु पक्ष में थे उनके मोह में फँस गया था। इस भ्रांति को दूर करने के लिए भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सावधान करते हुए कहा, “अपनी भ्रांति से बाहर निकलो। अपने स्वरूप में रहकर ड्रामा पूरा करो। कर्म के कर्ता या अकर्ता मत हो जाओ।

“प्रिय अर्जुन जिस मोह में तुम फँसे हो कि तुम मार रहे हो यह गलत है। इसलिए यह होने दो।" इसकेलिए भगवान कृष्ण ने उसे बहुत ही हिंसक और डरावना सीन(विश्वदर्शन) दिखाया; उन्होंने अर्जुन को एक बड़ा द्रश्य दिखाया जिसमें सभी मरे हुए दिखे। उसे देखते ही अर्जुन एकदम हिल गया, लेकिन जैसे ही उसे सब कुछ समझ में आया, वह युद्ध करने के लिए तैयार हो गया।

फिर भगवान ने अर्जुन को आत्म स्थिरता के बारे में बताया। "हे अर्जुन, तुम और मैं बहुत ही लम्बे समय से साथ में ही हैं, लेकिन फिर भी तुम मेरे असली स्वरूप को नहीं पहचानते। जैसा तुम मुझे अपने सामने देख रहे हो वह मेरा असली रूप नहीं है; तुम जो देख रहे हो वह भौतिक शरीर है। मैं इस शरीर से अलग हूँ। मैं शुद्धात्मा हूँ। तुम भी शुद्धात्मा हो। तुम्हारे भाई, चाचा, गूरू, और दोस्त जिनके साथ तुम युद्ध करने वाले हो, वे भी शुद्धात्मा हैं। यह युद्ध तुम्हारा प्रारब्ध(कर्म) है, इसलिए तुम्हें इसे आत्मा की जागृति के साथ पूरा करना होगा। यदि तुम आत्मा की जागृति में रहकर युद्ध करोगे तो तुम नए कर्म नहीं बांधोगे और बचे हुए कर्म खत्म हो जाएँगे। यह तुम्हें मोक्ष तक ले जाएगा।"

इसतरह अर्जुन ने किसतरह भगवान कृष्ण से दिव्य दृष्टि प्राप्त की और उसमें रहकर ही पूरा महाभारत का युद्ध लड़ा, कई महान लोगों को मार दिया; फिर भी एक भी कर्म(निष्काम कर्म) नहीं बांधा, इसतरह अर्जुन ने अपनी रिलेटिव ज़िम्मेदारियाँ पूरी कीं। वह हमेशा अपने शांत और अमूर्त रियल स्वरूप की जागृति में रहा। अर्थात आत्मा ही स्वधर्म है।

इसतरह उसे आत्यंतिक मोक्ष उसी जन्म में प्राप्त हुआ।

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