लोग आत्मा को खोज कर रहे है परन्तु उन्हें अभी तक प्राप्ति नहीं हुई। क्योंकि वे खुद से ही ढूंढने का प्रयत्न कर रहे है, उनकी खोज व्यर्थ जा रही हैं। तो हमें आत्मा की खोज के लिए क्या करना चाहिए? जब आत्मा प्राप्ति की बात आती है, तब हमे प्रत्यक्ष ज्ञानी की आवश्यकता होती है, जिसने देह में आत्मा का अनुभव किया है। आईये जानते है, एक ऐसे ज्ञानी पुरुष से, कि मनुष्य देह में आत्मा कहाँ रहता है।
आत्मा पूरे देह से ढँका हुआ है। सिवाय नाख़ून और बाल जिन्हे हम आमतौर पर काटते है, उसमे आत्मा नहीं है। आत्मा पूरे देह में हैं।
यदि हम देह पर कहीं भी सुई को चुभोते है और हमे दर्द का अनुभव होता है, इसका मतलब है कि वहा आत्मा हाज़िर हैं। जहा भी पीड़ा महसूस होती है, वहा आत्मा हाज़िर है। मृत्यु के समय, जब आत्मा देह को छोड़ दे, तब चाहे, कोई कितनी भी बार सुई चुभोये, तब देह ना ही कुछ बोलेगा या हिलेगा, होगा क्या ऐसा? ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा की अनुपस्थिति में, देह को कोई पीड़ा का अनुभव नहीं होता है।
आइए इसे नीचे परम पूज्य दादाश्री की संवाद से समझते हैं:-
प्रश्नकर्ता : लेकिन इस शरीर में आत्मा का स्थान कौन-सा है?
दादाश्री : ऐसा है, आत्मा इस शरीर में कौन-सी जगह पर नहीं है? इस बाल में आत्मा नहीं है और ये नाखून हैं न, जितने नाखून काट देते हैं न, उतने भाग में आत्मा नहीं है। इस शरीर में बाकी सभी जगह पर आत्मा है। अत: कौन-से स्थान में आत्मा है ऐसा पूछने की ज़रूरत नहीं है, कौन-से स्थान में आत्मा नहीं है, ऐसा पूछना चाहिए।
इन बालों में, जो बाल हम काट लेते हैं न, उनमें आत्मा नहीं है। नींद में किसीने बाल काट लिए तो हमें कुछ पता नहीं चलता, इसलिए उसमें आत्मा नहीं है और जहाँ पर आत्मा है न, वहाँ तो यह पिन चुभोएँ तो तुरन्त ही पता चल जाता है।
प्रश्नकर्ता : सामान्य रूप से, आत्मा तो दिमाग़ में होता है न? और इन ज्ञानतंतुओं के कारण ही पिन चुभोने पर वह पता चलता है न?
दादाश्री : नहीं, पूरे शरीर में आत्मा है। दिमाग़ में तो दिमाग़ होता है, वह तो मशीनरी है और वह सब तो अंदर की ख़बर देनेवाले साधन हैं। आत्मा तो पूरे शरीर में उपस्थित है। यहाँ पैर में ज़रा-सा काँटा लगा कि तुरन्त पता चल जाता है न?
आत्मा कि उपस्तिथि कि वजह से, शरीर में सुख और दुःख कि अनुभूति या संवेदना हाज़िर रहती है। हालाकि, दिलचिस्प बात यह है कि, आत्मा को यह, सुख और दुःख का अनुभव नहीं होता है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान-स्वरूप है। इसीलिए, आत्मा सुख और दुःख को जानता है; वह और किसी भी चीज़ में तन्मयाकार नहीं होता है। यही बात, परम पूज्य दादा भगवान, यहाँ समझाते है:
प्रश्नकर्ता : आत्मा को दु:ख होता है, ऐसा हम कह सकते हैं?
दादाश्री : आत्मा को दु:ख नहीं होता। इस बर्फ़ पर अंगारे डालेंगे तो क्या बर्फ़ जल जाएगा?
प्रश्नकर्ता : बाल काटने से हमें दर्द नहीं होता, यानी वहाँ पर आत्मा नहीं है?
दादाश्री : नहीं।
प्रश्नकर्ता : और जहाँ पर दर्द होता है, वहाँ पर आत्मा है?
दादाश्री : हाँ, वहाँ पर आत्मा है।
आत्मा प्रत्येक जीवमात्र में है; वह हाथी में भी है और चींटी में भी है। यदि आत्मा सम्पूर्ण देह में है, तो उसका आकार क्या है?
इस प्रश्न का उत्तर आत्मा के एक और गुण को प्रकट करता है: आत्मा शरीर के आकार के अनुसार विकास और संकोच होता है। आइए देखें कैसे...
प्रश्नकर्ता: जैसे मनुष्य के पूरे शरीर में आत्मा है, उसी प्रकार चींटी और हाथी के भी पूरे शरीर में आत्मा है?
दादाश्री: हाँ, पूरे शरीर में आत्मा है। क्योंकि आत्मा संकोच-विकास का भाजन है। जितने अनुपात में भाजन हो, उतने अनुपात में उसका विकास हो जाता है। यदि भाजन छोटा हो तो उतने अनुपात में संकुचित हो जाता है।
प्रश्नकर्ता: आत्मा कट सकता है क्या?
दादाश्री: आत्मा कटता नहीं है, छेदा नहीं जा सकता, उसे कुछ भी नहीं हो सकता!
प्रश्नकर्ता: यहाँ से हाथ कट जाए तो फिर?
दादाश्री: आत्मा उतना संकुचित हो जाता है। आत्मा का स्वभाव संकोच और विकासवाला है, वह भी इस संसार अवस्था में। सिद्ध अवस्था में ऐसा नहीं है। संसार अवस्था में संकोच और विकास दोनों हो सकते हैं। यह चींटी होती है न तो उसमें भी आत्मा पूरा ही है। और हाथी में भी एक ही पूरा आत्मा है, परन्तु उसका विकास हो गया है। हाथ-पैर काटने पर आत्मा संकुचित हो जाता है और वह भी कुछ भाग कट जाए न, तब तक संकुचित होता है, उसके बाद संकुचित नहीं होता।
आत्मा की खोज, आमतौर पर विभिन्न धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होती है, जैसे कि आत्मा शरीर के एक विशिष्ट क्षेत्र में रहता है और उसका एक निश्चित आकार होता है। इनमे से जो, ज्यादातर सांसारिक मान्यताएँ हैं, वो लोगो के आध्यात्मिक विकास के स्तर पे आधारित है, जितना उन्होंने हासिल किया है। यह मान्यताएँ आध्यात्मिक विकास के पथ पर प्रगति के इच्छुक व्यक्ति के मन को स्थिर और हृदय खिलने की दृष्टि से सचेत रूप से स्थापित की जाती हैं। इसलिए, इस तरह कि मान्यता का पालन करते समय, यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि वास्तविक सच, अभी भी जानना बाकी है। इस तरह की सांसारिक मान्यताओं के बारे में प्रश्नकर्ता को मार्गदर्शन देते हुए परम पूज्य दादाश्री का एक उदाहरण यहां दिया गया है।
प्रश्नकर्ता : परन्तु योगशास्त्र में तो ऐसा कहते हैं कि यहाँ पर ब्रह्मरंध्र में आत्मा है।
दादाश्री : वह सारा योगशास्त्र उनके लिए काम का है। आपको सच जानना है? लौकिक जानना है या अलौकिक जानना है? दो तरह का ज्ञान है, एक लौकिक में चलता है और दूसरा वास्तविक ज्ञान। आपको वास्तविक ज्ञान जानना है या लौकिक?
प्रश्नकर्ता : दोनों जानने हैं।
दादाश्री : यदि लौकिक जानना हो तो आत्मा का स्थान हृदय में है और अलौकिक जानना हो तो आत्मा पूरे शरीर में है। लौकिक जानना हो तो यह दुनिया भगवान ने बनाई है और अलौकिक जानना हो तो दुनिया भगवान ने नहीं बनाई है।
प्रश्नकर्ता : ऐसा भी कहते हैं कि हृदय में अँगूठे जितना आत्मा है।
दादाश्री : नहीं, उन सब बातों में कोई तथ्य नहीं है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन उपनिषद में यह वाक्य आता है, ‘अंगुष्ठ मात्र प्रमाण’- तेरे हृदय में आत्मा का प्रतिबिंब देखना हो तो ऐसा ध्यान कर कि तुझे ‘अंगुष्ठ मात्र प्रमाण में’ दिखे।
दादाश्री : यह साइन्टिफिक बात नहीं है। अगर साइन्टिफिक होती तो मैं आगे बढ़ता। यह तो एक खास स्तरवाले को स्थिर करने का साधन है। बिल्कुल गलत भी नहीं है, गलत तो कैसे कह सकते हैं? जो वस्तु किसी व्यक्ति को स्थिर कर सकती है, उसे गलत तो कह ही नहीं सकते न! यानी यह जो हृदय है न, उसके अंदर स्थूल मन है, यानी वहाँ की धारणा है। इस हृदय में यदि धारण करो न, तो फिर आगे बढ़ा जा सकता है। और आगे कौन बढऩे नहीं देता? बुद्धि आगे नहीं बढऩे देती और हृदय की धारणा आगे बढऩे दे, ऐसी है। मोक्ष में जाना हो तो हृदय की हेल्प चलेगी। यानी दिल के काम की ज़रूरत है। बुद्धि से नहीं चलेगा।
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