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हमारे वर्तमान और पूर्वकर्म किस तरह ध्यान पर आधारित होते हैं?

कर्म का आयोजन-क्रिया या ध्यान?

प्रश्नकर्ता: अभी जो भोगते हैं उसमें आपका कहना है कि आयोजन है। उनमें क्रियमाण भी होते हैं और संचित भी होते हैं, तो उस कर्म और कारण का आयोजन किस तरह समझें?

दादाश्री: वह आयोजन अपनी क्रिया पर आधारित नहीं होता। अपने ध्यान पर आधारित है। आप नगीनभाई के दबाव से पाँच हज़ार रुपये धर्मदान में दो तो आप देते ज़रूर हो, परन्तु आपका ध्यान वास्तविक नहीं था।

प्रश्नकर्ता: बहुत इच्छा नहीं थी।

दादाश्री: नहीं, इच्छा नहीं थी, ऐसा नहीं है। इच्छा की ज़रूरत ही नहीं है। इच्छा से कर्म नहीं बँधते, ध्यान पर आधारित है। इच्छा तो हो या नहीं भी हो। पैसे देते समय मन में ऐसा होता है कि ‘ये नगीनभाई नहीं होते तो मैं देता ही नहीं।’ यानी उल्टा आप दान देकर जानवर में जाओगे - यह रौद्रध्यान बाँधा इसलिए।

प्रश्नकर्ता: ध्यान किस पर आधारित है?

दादाश्री: ध्यान तो आपके डेवलपमेन्ट पर आधारित है। आपको जिस ज्ञान का डेवलपमेन्ट हुआ है, उस पर आधारित है।

आप खराब करोगे परन्तु अंदर ध्यान ऊँचा होगा तो आपको पुण्य बँधेगा। शिकारी हिरण को मारे, परन्तु अंदर खूब पछतावा करे कि ‘यह मेरे हिस्से में कहाँ आया? इन बीवी-बच्चों के लिए मुझे यह मजबूरन करना पड़ रहा है!’ तो वह ध्यान ऊँचा गया, ऐसा कहा जाएगा। नेचर (कुदरत) क्रिया नहीं देखती। उस समय का आपका ध्यान देखती है। इच्छा भी नहीं देखती।

किसी व्यक्ति ने आपको लूट लिया, तो उस समय आपके मन के सभी भाव रौद्र हो जाते हैं। अंधेरे में ऐसे भाव हो जाते हैं और शुद्ध प्रकाश हो वहाँ कैसे भाव होंगे? ‘व्यवस्थित’ कहकर भावाभाव हुए बगैर आगे चलने लगेंगे!

*चंदूलाल = जब भी दादाश्री ' चंदूलाल ' या फिर किसी व्यक्ति के नाम का प्रयोग करते हैं, तब वाचक, यथार्थ समझ के लिए, अपने नाम को वहाँ पर डाल दें। 

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