प्रकृति पर ईश्वर की भी सत्ता नहीं !
प्रश्नकर्ता: गीता का पहला वाक्य कहता है कि, ‘प्रकृति प्रसवे सृष्टि’।अर्थात भगवान ने गीता में यह कहा है कि मुझ से ही इस सृष्टि का सर्जन हुआ है।
दादाश्री: वह सही है। गीता में तो अनेक विषयों को स्पष्ट किया है| और कितनी ही बातें ऐसी हैं जो अस्पष्ट हैं। यह ‘मैं’ जहाँ कह रहे हैं स्वयं को, वहाँ वह ‘शुद्धात्मा’ की ही बात है। वे कृष्ण भगवान नहीं हैं। अब लोग जो हैं वे अपनी-अपनी भाषा में ही समझते हैं।और ये जो प्रकृति है, उसमे हमारी या किसी भी मनुष्य की, बल्कि भगवान की भी चले ऐसा नहीं है। यह सब तो व्यवस्थित शक्ति का काम है| मनुष्य सुंदर हो या बदसूरत, कदवाला हो या बिना कदवाला, वह सब इस व्यवस्थित शक्ति के ही हाथ में है, तथा तुलना करने से उसमें कोई अंतर आए ऐसा नहीं है।
प्रश्नकर्ता: परन्तु मनुष्य कदवाला हो या फिर सुंदर, जो कि व्यवस्थित शक्ति पर निर्भर है, उसका आधार क्या है?
दादाश्री: उसका आधार हम ही हैं। हमारा जो भी भाव पूर्व जन्म में था, और उस भाव में हम जितना तन्मयाकार हुए थे, वह ही इस जन्म में ‘व्यवस्थित’ के रूप में आता है।
जगत चले स्वभाव से ही।
दादाश्री: कृष्ण भगवान ने कहा है कि, ‘यह जगत भगवान ने नहीं बनाया, यह तो स्वाभाविक रूप से बना है!’ कृष्ण भगवान ने कहा है कि यह जगत स्वभाव से ही खड़ा हुआ है। स्वभाव से ही चल रहा है। ऐसे गीता में ‘स्वभाव से ही हुआ’ कहा गया है। इसलिए स्वभाव से ही हो रहा है।
‘न कर्तुत्व्म, न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभु
न कर्मफल संयोगो, स्वभावस्तु प्रवर्तते !’
जगत चलता है, वह स्वभाव से ही चलता है और उसे चलाती है ‘व्यवस्थित’ नाम की शक्ति। बरगद का बीज राई के दाने से भी छोटा होता है, फिर भी उसमें पूरे बरगद की शक्ति समायी हुई है, शक्ति के रूप में पूरा बरगद उसमें समाया है। ‘व्यवस्थित’ सारे संयोग इकट्ठे कर देती है, और बरगद स्वाभाविक रूप से परिणामित हो जाता है।
‘व्यवस्थित’ जगत को चलाता है। वह जगत का निर्माता नहीं है। जगत तो स्वभाव से ही बना हुआ है। और ‘व्यवस्थित’ है वह स्वभाव से है और अनंत काल तक का है। किसी को बनाना पड़े ऐसा है नहीं वह।इस जगत के जो ‘मूल तत्व’ हैं वे स्वाभाविक हैं। जब वे ‘रिलेटिव’ में आते हैं, तब ही विभाविक होते हैं।
जगत यदि बंद हो जाए तो? बंद हो जाए ऐसा है ही नहीं, क्योंकि जगत स्वाभाविक है।उसका स्वभाव ही ऐसा है कि निरंतर चलता रहे।बरगद में से बीज और बीज में से बरगद। लोग कहते हैं कि भगवान चलाते हैं। यदि कोई चलाने वाला होता तो देर-सवेर बंद ही हो जाता। मोक्ष जो जाते हैं वह भी स्वभाव से ही जाते हैं। इसलिए कुछ अटक जाए, बिगड़ जाए ऐसा है ही नहीं। रामचंद्र जी गए, कृष्ण भगवान गए, तो भी जगत चलता रहा। यह जगत किसी ने नहीं बनाया है। यह तो स्वभाव से ही चल रहा है। इसलिए यह जगत का स्वभाव ही कैसा है? परिवर्तनशील, निरंतर परिवर्तन होता रहता है हर एक वस्तु का।
दादावाणी दिसंबर 2002 (Page #27 - Paragraph #2 to #11)
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