Related Questions

आत्मा की यात्रा क्या है?

जीवन का उद्देश्य कुछ और नहीं बल्कि आत्मा की यात्रा के माध्यम से विकसित होना है!

आत्मा पर कर्मों के आवरण होते है, उसे जीव कहा जाता है। इसी सफ़र के दौरान जीव विकास की कई अवस्थाओं से निकलता है और जैसे जैसे कर्मों की निर्जरा होती है, वह आध्यात्मिक प्रगति करता है। यदि कोई अन्य दखल नहीं है, तो आत्मा स्वभाव से ही उर्ध्वगामी है, मोक्ष की ओर आगे बढ़ रहा है।

हालाँकि दखल होना स्वाभाविक है। इस तरह, आत्मा की मुक्ति की यात्रा इतनी आसान नहीं है। इस प्रकार, यह स्वाभाविक रूप से अलग-अलग योनिओं से निकलना पड़ता है। इस संसार से मुक्ति के लिए आत्मा की प्रगति के तीन विभाग, है जो इस प्रकार है।

१. ऐसा जीवन कि जिसकी कोई पहचान नहीं, वो संसार में प्रवेश करने की प्रतीक्षा कर रहा है।

जीव का सांसारिक चक्र में प्रवेश करने से पहले, एक ऐसी अवस्था होती है, जिसमे आत्मा पर पूर्ण रूप से आवरण हैं। इस अवस्था में, आत्मा न तो बिगड़ा है और न ही उसका नाश हो सकता हैं। आत्मा तो है लेकिन पूर्ण रूप से आवरण से ढका हुआ है। इसीलिए, आत्मप्रकाश की एक भी किरण बाहर नहीं आ पाती। इसे निगोद कहते है। इस अवस्था में अनंत आत्माएं है जो पूर्णरूप से आवरणवाला है। इन जीवों में एक भी इन्द्रिय का विकास नहीं हुआ है इसलिए यह अव्यक्त अवस्था में है।

२. ऐसा जीवन कि जिसकी एक पहचान है। वह सांसारिक जीवन में प्रवेश कर गया है।

जब इस दुनिया में से एक आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है, तब निगोद में से एक आत्मा सांसारिक चक्र में प्रवेश करता है। निगोद के आत्मा के ऊपर से सिर्फ, थोडा सा आवरण हटता है, जहा से, आत्मा का थोड़ा सा प्रकाश निकलता हैं। इस प्रकार से एक इन्द्रिय विकसित होती है। इसके साथ, एक विशेष जीव इस दुनिया में अपनी यात्रा शुरू करता है, और धीरे-धीरे एक इन्द्रिय से दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पांच इन्द्रिय तक विकसित होता है और फिर मनुष्यगति में आता है जहां उसका मन, बुद्धि, अहंकार विकसित होता है। ये जीव बंधन में हैं। प्रत्येक अवस्था में , जीव को आवरणों के कारण दुखो से निकलना पड़ता है। जैसे-जैसे जीव स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं, आत्मा पर का आवरण कम हो जाता है। मनुष्यगति में होने पर व्यक्ति मन, बुद्धि और अहंकार से नए कारण उत्पन्न करता है। इन्हीं कारणों के आधार पर जीवों का पुनर्जन्म देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति या नर्कगति में होता है। प्रत्येक जन्म में जीव को पूर्व में किये गये कारणों का परिणाम भुगतना पड़ता है। अंत में, जब आत्म-साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है, तब सांसारिक प्रगति रुक जाती है; नए कर्म चार्ज होना बंद हो देते हैं। जब सभी पुराने कर्म बिना किसी दखल से डिस्चार्ज हो जाते हैं, तब व्यक्ति सम्पूर्ण मोक्ष को प्राप्त करता है!

३. तीसरा है ,आत्मा की अंतिम मुक्ति (मोक्ष)। वह इस संसार से मुक्त हो गया है।

यह मोक्षे गए हुए आत्माएं है , जो अंतिम मुक्ति (मोक्ष) की अवस्था में है। और इसलिए, वे इस संसार में वापस नहीं आते हैं। वे सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त हैं।

आत्मा की यात्रा, इसका संचालन कौन करता है?

इस दुनिया में छह अविनाशी तत्व हैं; जो शाश्वत हैं। जब ये तत्व एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं तब यह अपनी अवस्था में स्वतः ही आ जाते है।

इन छह तत्वों में से एक तत्त्व आत्मा है। आत्मा केवल ज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है! अन्य तत्व भी शक्तिशाली हैं (उनके संबंधित गुणोंधर्म के संदर्भ में), लेकिन उन्हें कोई ज्ञान या समझ (गुण) नहीं है। जब जड़तत्व और आत्म-तत्व एक साथ आते हैं, तब आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ अपने आप ही हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक आत्मा अपने आप मनुष्य रूप (उसकी अवस्था) में आ जाता है।

जैसे जब सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी एक दूसरे के चारों ओर परिक्रमा लगाते हैं, तब हम चंद्रमा के जो अवस्थाएं देख सकते हैं - जैसे चंद्रमा का पहला दिन, चंद्रमा का दूसरा दिन, चंद्रमा का तीसरा दिन इत्यादि। हालांकि, वे सभी क्षणिक(अस्थायी) हैं लेकिन चंद्रमा क्षणिक नहीं है; इसी प्रकार मनुष्य, देवताओं, जानवरों, कीट सभी आत्मा की अवस्थाएं हैं, जो क्षणभंगुर हैं। हालांकि, आत्मा क्षणिक नहीं है।

हम एक शुद्ध आत्मा हैं। हालाकि, आत्मा को देखा नहीं जा सकता। जो हम देखते हैं वह एक अवस्था है। आत्मा की अज्ञानता के कारण हम सोचते हैं की, "मैं यह अवस्था (मनुष्य) हूं, मैं जॉन हूं, मैं एक भाई हूं, मैं एक डॉक्टर हूं, इत्यादि ।" असंख्य ऐसी गलत मान्यताओं के आधार पर सांसारिक व्यवहार शुरू होता है । "मैं जॉन हूं" की मान्यता के साथ "मैंने यह किया" की एक और गलत मान्यता के वजह से कर्म चार्ज होते है। यह सब आत्मा की यात्रा के दौरान अपने आप होता है।

आइए निम्नलिखित बातचीत के माध्यम से समझते हैं:

दादाश्री : यह तो आत्मा को ऐसे संयोग मिले हैं। जैसे अभी हम यहाँ पर बैठे हैं, और बाहर निकले तो एकदम कोहरा हो तो आप और मैं आमने-सामने होंगे, फिर भी नहीं दिखेंगे। ऐसा होता है या नहीं होता?

प्रश्नकर्ता : हाँ, होता है।

दादाश्री : हाँ, वह जो कोहरा छा जाता है, उससे दिखना बंद हो जाता है। ऐसे ही इस आत्मा पर संयोगरूपी कोहरा छाया हुआ है, यानी कि इतने सारे संयोग खड़े हो जाते हैं। और ये अनंत प्रकार की परतें तो उस कोहरे से भी ज़्यादा हैं। ये इतने अधिक भयंकर आवरण हैं कि उसे भान ही नहीं होने देते। बाकी, आत्मा आया भी नहीं है और गया भी नहीं है। आत्मा खुद ही परमात्मा है! लेकिन भान ही नहीं होने देता, यह भी आश्चर्य है न! और यह ‘ज्ञानी’ ने देखा है, जो मुक्त हो चुके हैं उन्होंने देख लिया है।

प्रश्नकर्ता : आत्मा को किसने बनाया?

दादाश्री : उसे किसीने नहीं बनाया। बनाया होता न तो उसका नाश हो जाता। आत्मा निरंतर रहनेवाली वस्तु है, वह सनातन तत्व है। उसकी बिगिनिंग हुई ही नहीं। उसे कोई बनानेवाला है ही नहीं। बनानेवाला होता तब तो बनानेवाले का भी नाश हो जाता और बननेवाले का भी नाश हो जाता।

प्रश्नकर्ता : आत्मा जैसी वस्तु किसलिए उत्पन्न हुई है?

दादाश्री : वह उत्पन्न जैसा कुछ हुआ ही नहीं। इस जगत् में छह तत्व हैं, वे तत्व निरंतर परिवर्तित होते ही रहते हैं और परिवर्तन के कारण ये सभी अवस्थाएँ दिखती हैं। अवस्थाओं को लोग ऐसा समझते हैं कि, ‘यह मेरा स्वरूप है।’ ये अवस्थाएँ विनाशी हैं और तत्व अविनाशी है। यानी आत्मा को उत्पन्न होने का रहता ही नहीं।

प्रश्नकर्ता : यानी अकेले आत्मा को ही मोक्ष में जाना है, अन्य किसी पर यह लागू नहीं होता?

दादाश्री : आत्मा मोक्ष स्वरूप ही है, लेकिन इस पर ये दूसरे तत्वों का दबाव आ गया है। इन तत्वों में से छूटेगा तो मोक्ष हो जाएगा, और खुद मोक्ष स्वरूप ही है। लेकिन अज्ञान के कारण मानता रहता है कि ‘मैं यह हूँ, मैं यह हूँ’, और इससे ‘रोंग बिलीफ़’ में फँसता रहता है, जब कि ज्ञान से छूट सकता है।

उत्क्रांति के पथ पर विकास की अवस्थाएं

आत्मा सभी काल (भूतकाल, वर्तमान और भविष्य) में अपनी शुद्ध अवस्था में है। परंतु आवरण के कारण, उसकी वास्तिविकता हमारी दृष्टि की पहुंच से बाहर है। एक बार आपकी दृष्टि में आ जाने पर वह दृष्टि शुद्ध हो जाती है और फिर कभी अशुद्ध नहीं होती। तथापि, हर जन्म और हर काल में उत्पन्न होने वाली अवस्थाओं में आत्मा ने हमेशा अपनी वीतरागता और पवित्रता बनाए रखी है। अभी भी आपका आत्मा शुद्ध है। हर एक का आत्मा शुद्ध ही है, परन्तु यह बाह्यरूप (अवस्था) खड़ा हो गया है, जिसके कारण रोंग बिलीफ़ उत्पन्न हुई है। इस प्रकार, आत्मा की यात्रा में कई तरह की अवस्थाओं का समावेश होता है, लेकिन एक तत्व के रूप में आत्मा शुद्ध ही है।

आत्मा के पास अनंत ज्ञान है, लेकिन वह हमेशा कर्मों से ढका हुआ है। जब कोई अज्ञानता की कोई परत (विभिन्न मिथ्या मान्यताओं ) टूटती है, तब उतना ही आत्मा का ज्ञान (सांसारिक जीवन में) प्रकट होता है !

उदाहरण के लिए, यदि आप एक बर्तन में 1000 वाट का बल्ब डालते हैं और उसे पूरी तरह से सील कर देते हैं, तो बर्तन से प्रकाश की एक भी किरण नहीं निकलेगी। अब आप मटके में एक छेद करेंगे तो प्रकाश की एक किरण बाहर निकलेगी। उसी प्रकार से आत्मा का प्रकाश एक इन्द्रिय के द्वारा बाहर आता है और वह इन्द्रिय जीव की अवस्था को प्राप्त करता है। जब दूसरा छिद्र बनता है तो वह दो इन्द्रिय जीव की अवस्था को प्राप्त करता है। अंदर, आत्मा परिपूर्ण है; उसका प्रकाश (ज्ञान) सम्पूर्ण है। हालांकि, इस पर काफी आवरण है ताकि प्रकाश बाहर न आए।

संक्षेप में, इस प्रकार आत्मा की यात्रा होती है।

  • एक जीव की पूरी तरह से निष्क्रिय अवस्था, जहाँ कोई ज्ञान या दृष्टि नहीं है, तब,
  • जीव एक-इन्द्रिय से पांच इंद्रियों तक विकसित होता है और अंततः मनुष्यगति में आता है, और फिर
  • आत्मा-साक्षात्कारके द्वारा जीव अंतत: केवल मोक्ष को प्राप्त करता है

हम उन्हें पूर्ण श्रद्धा से नमन करते हैं,
जिसने हम में शुद्ध प्रकाश प्रज्वलित किया;
हर आत्मा अब एक मंदिर है, जहाँ घंट नाद होता है,
जय सच्चिदानंद

×
Share on