"मेरा आत्मा परमात्मा का एक अंश है" - यहाँ स्व का अर्थ है आत्मा, वह एक अविनाशी तत्व है। एक अविनाशी (शाश्वत) तत्व सदा के लिए अविभाज्य है। परमात्मा का अर्थ है केवल आत्मा यानी आत्मा की वह अवस्था जिसके ऊपर आवरण या अज्ञानता की कोई परत नहीं हैं। जिसने ऐसी दशा प्राप्त कर ली, उसे भगवान कहा जाता है। यही ईश्वर के साथ एक होने का सच्चा अर्थ है।
सब्से पहले और सब्से महत्वपूर्ण, क्यूँ कोई भगवान को टुकड़ों मे बाँटेगा? आप परमात्मा के टुकड़े नहीं कर सकते। मान लीजिये, यदि आप परमात्मा के अंश होते, तो आपको कभी भी किसी भी दुख से नही निकलना पड़ता। जब भगवान राम, जिनके आप अंश हैं, अनन्त सुख का आनंद ले रहे हैं, तो आपको क्यूँ कभी पीड़ा झेलनी पड़ती है?
परमात्मा सम्पूर्ण है और मै उसका अंश हूँ ," इस भ्रान्ति को दूर करने के लिए ज्ञानी स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं कि अनंत आत्माएं है और वे स्वतंत्र हैं (किसी पर निर्भर नहीं )। ज्ञानी की दृष्टि से प्रत्येक जीव में सम्पूर्ण व स्वतंत्र आत्मा है। इसलिए परम पूज्य दादाश्री से निम्नलिखित बातचीत द्वारा इस विषय के वास्तविक तथ्य क्या है वह समजते है।
प्रश्नकर्ता : तो सभी आत्मा एक ही आत्मा के अंश हैं, ऐसा कहा जा सकता है क्या?
दादाश्री : नहीं, नहीं। सभी आत्मा एक ही आत्मा के अंश नहीं हो सकते। ऐसा है, हमेशा ही, कोई वस्तु होती है न, उसमें इन रूपी वस्तुओं के अंश होते हैं, लेकिन अरूपी के अंश नहीं होते। अरूपी एक ही वस्तु के रूप में होता है। उसके अंश हो जाएँ, टुकड़े हो जाएँ, विभाजन हो जाएँ तो फिर वह एक नहीं हो पाएगा। यानी कि खुद सर्वांश स्वरूप ही है।
प्रश्नकर्ता : यानी मैं अपने आप में पूर्ण शुद्धात्मा हूँ?
दादाश्री : आप पूर्ण ही हो, सर्वांश ही हो न!
प्रश्नकर्ता : तो आत्मा का विभाजन नहीं हो सकता?
दादाश्री : आत्मा खुद ही परमात्मा है और वह वस्तु के रूप में है। यानी उसका एक भी टुकड़ा अलग नहीं हो सकता, ऐसी पूर्ण वस्तु है। अगर विभाजन हो जाए तो टुकड़ा हो जाएगा तो वस्तु खत्म हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं है। आत्मा का विभाजन नहीं हो सकता।
प्रश्नकर्ता : सभी आत्मा अलग-अलग हैं या सभी एक परमात्मा के ही रूप हैं?
दादाश्री : व्यवहार से सभी अलग हैं। नाम रूप देखने जाएँ तो व्यवहार से सब अलग हैं, ‘रियली’ एक ही है। ‘रिलेटिवली’ अलग-अलग हैं और ‘रियली’ एक हैं तो आपको क्या जानना है?
आत्मा का विलीनीकरण नहीं होता। प्रत्येक आत्मा अपने स्वतंत्र अस्तित्व को खोकर दूसरे के लिए बलिदान क्यों करे?
प्रश्नकर्ता : तो यह बात तो ठीक है कि आत्मा परमात्मा में विलीन होता ही है, लेकिन वह एक जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में, नहीं तो तीसरे जन्म में?
दादाश्री : नहीं, नहीं। वहाँ पर विलीनीकरण है ही नहीं। आत्मा खुद ही परमात्मा है। ‘मैं चंदूभाई हूँ’, अभी आपको ऐसा भान है। जब ‘मैं आत्मा हूँ’ ऐसा भान हो जाएगा, तब आपको परमात्मा का भान होगा। यह आत्मा ही परमात्मा है। आपका आत्मा, वह भी परमात्मा है, इनका आत्मा भी परमात्मा है।
वे सभी जिन्होंने ज्ञानी की कृपा से ज्ञान प्राप्त किया है, वे उस आत्मा को देख रहे हैं जो आपके भीतेर है, और वही है परमात्मा। आत्म-साक्षात्कार के बाद, आप भी कह सकते हैं, "मेरा आत्मा परमात्मा है।" अगर विलीकरण होता तो आप परमात्मा को नहीं देख पाते! यहाँ, बकरी मे भी भगवान के दर्शन देख सकता है!
सम्पूर्ण आत्मा बकरी में विराजमान है; गधे में भी भगवान विराजमान हैं। वह वही आत्मा है, लेकिन उसे अभी तक भान नहीं हुआ है। अभी जो है वह वर्तमान में आत्मा अज्ञानता की अवस्था में है। अभी आपको "मै चंदूभाई हूँ" “मै देसाई हूँ" यह भान है, जबकी "मै आत्मा हूँ" यह भान आपको नही है।
प्रश्नकर्ता : यह ब्रह्म है, इन्हें एक में से अनेक होने की इच्छा क्यों हुई होगी? ‘एकोहम् बहुस्याम्’ ऐसी इच्छा क्यों हुई उन्हें?
दादाश्री : यह तो ऐसा है न, कि वह खुद एक ही है। अनेक कभी हुआ ही नहीं, एक ही है। लेकिन भ्रांति से अनेक हो गया है, ऐसा दिखता है। यह एक ही स्वभाव का है। इस सोने की चाहे कितनी भी सिल्लियाँ हों और सबको इकट्ठा करें, तो सारा एक ही है न? और इसमें पीतल मिल जाए तो नुकसान है। सभी भगवान ही हैं, भगवान स्वरूप ही हैं। लेकिन यह अलग दिखता है, उसका कारण भ्रांति है।
आत्मा का स्वभाव शाश्वत सुख है। प्रत्येक आत्मा का स्वभाव एक जैसा है। हालाँकि, इसका अस्तित्व स्वतंत्र है और यह कभी भी किसी अन्य आत्मा के साथ विलीन नहीं होता है। इसलिए, हम सभी स्वतंत्र रूप से अपने आत्मा का अनुभव करेंगे।
आइए इसे निम्नलिखित बातचीत के माध्यम से समझते हैं:
प्रश्नकर्ता: यानी सभी में जो चेतन तत्व उपस्थित है, वह एक ही है?
दादाश्री: हाँ, एक ही है। लेकिन एक ही यानी कि स्वभाव से एक है।
प्रश्नकर्ता: फिर जब देहोत्सर्ग होता है, तब वह चेतन जो कि चला जाता है, उसका फिर एकीकरण नहीं हो जाएगा? उसका अस्तित्व अलग किस तरह से रह सकेगा?
दादाश्री: इस जगत् में सबकुछ अलग है। यहाँ पर भिन्नता लगती है न, वैसी वहाँ पर भी भिन्नता है। वहाँ पर अलग यानी कि स्वभाव से सब एक ही लगता है, लेकिन अस्तित्व से तो अलग है|
प्रश्नकर्ता: लेकिन चेतन एक प्रकार का हो तो उसका अस्तित्व अलग-अलग किस तरह से रह सकता है?
दादाश्री: अलग ही रहता है तो फिर वह एक किस तरह से हो सकेगा? एक हो ही नहीं सकता! ये सोने की सभी सिल्लियाँ अलग-अलग होती हैं, लेकिन कहलाता है सारा सोना ही, इसी तरह से यह कहा जाता है कि आत्मा एक है। लेकिन यों इन सिल्लियों की तरह सब अलग-अलग हैं। उन सभी में अन्य कोई फ़र्क़ नहीं है। यह तो हमें बुद्धि से उल्टे पासे दिखते हैं। बाकी वहाँ पर सिद्ध स्थिति में सभी अपने-अपने सुख में ही रहते हैं।
जब तक बुद्धि है, तब तक दख़ल रहती है। जब बुद्धि खत्म हुई, तब स्व स्वभाव में एकता का अनुभव होता है। बुद्धि क्या करती है? भेद डालती है। इसलिए, जब एक बार बुद्धि का खत्म हो जाती है, तो इसे सहजता से समझा जा सकता है
आत्मा ही परमात्मा है; अज्ञान अवस्था में भी आत्मा ही परमात्मा है। सिर्फ समझ का फ़र्क़ है। वह जब घर पर होता है तब लोग कहेंगे कि ‘यह तो इस स्त्री का पति है।’ और दुकान पर जाए तब कहते हैं, ‘यह सेठ है।’ कोर्ट में जाए तब कहते हैं, ‘यह वकील है।’ लेकिन वह खुद वही का वही है। यानी कि वही का वही जीवात्मा, वही का वही अंतरात्मा और वही का वही परमात्मा है। और वह जो काम कर रहा है उस काम के आधार पर उसके विशेषण हैं।
लौकिक धर्म में आत्मा और परमात्मा भिन्न है, इस प्रकार से भक्ति करवाई जाती है। ऐसी भक्ति जिसमे आत्मा और परमात्मा एक है, भिन्न नहीं, वही सच्चा धर्म है और जगत से परे है। वास्तविक धर्म से मोक्ष होता है! आइए इसे आगे की बातचीत द्वारा समझते हैं:-
प्रश्नकर्ता: जीव को परमेश्वर किस प्रकार से कह सकते हैं? जीव तो एक आभास है।
दादाश्री: भेदबुद्धि से जीव कहा जाता है। जब तक भेदबुद्धि है कि मैं अलग हूँ और भगवान अलग हैं, तब जीव कहलाता है, और अभेद बुद्धि हो जाए कि ‘मैं ही भगवान हूँ’ तब शिवबुद्धि हो जाती है।
प्रश्नकर्ता: ‘मैं आत्मा हूँ’ उस दृष्टि से आत्मा में भेद नहीं है?
दादाश्री: ‘मैं आत्मा हूँ’ ऐसा भान हो जाए न तो जीव-शिव का भेद खत्म हो जाए!
प्रश्नकर्ता: यह ठीक है। लेकिन जीव और परमेश्वर, इनमें क्या फ़र्क़ है?
दादाश्री: जो जीव है, वह इन विनाशी चीज़ों को भोगना चाहता है और उसे विनाशी चीज़ों में श्रद्धा है। और परमेश्वर को अविनाशी में ही श्रद्धा है और परमेश्वर खुद के अविनाशी पद को ही मानते हैं, विनाशी चीज़ों की उनके लिए कोई क़ीमत नहीं है, फ़र्क़ सिर्फ इतना ही है। ‘जीव’ यानी कि वह ‘खुद’ भ्रांति में है, उस भ्रांति के चले जाने के बाद इन विनाशी चीज़ों की सारी मूच्र्छा खत्म हो जाती है, तब ‘खुद’ ही ‘परमेश्वर’ बन जाता है!
भगवान, आध्यात्मिक गुरु, मेयर, सती, वेश्या, चोर या गधे मे सचमे तत्व आधार पर कोई अंतर नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी के अंदर जो आत्मा है वो एक समान है। अंतर केवल इतना ही है की आत्मा प्रकट पुरुष में सम्पूर्ण रूप से जागृत है, और हमारे भीतर आवरण से ढका हुआ है। हालाँकि, अज्ञानता के आवरण को हटाकर आत्मा को प्रकट करने के की बारी है! मेरा आत्मा परमात्मा है, यह अनुभव करने के लिए ज्ञानी से भें मिलना बस यही आवश्यक है।
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