प्रश्नकर्ता: इसमें प्रेम और आसक्ति का भेद ज़रा समझाइये।
दादाश्री: जो विकृत प्रेम है, उसीका नाम आसक्ति। इस संसार में हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह विकृत प्रेम कहलाता है और उसे आसक्ति ही कहा जाएगा।
यह तो सूई और चुंबक में जैसी आसक्ति है, वैसी यह आसक्ति है। उसमें प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। प्रेम होता ही नहीं न किसी जगह। यह तो सूई और चुंबक के आकर्षण को लेकर आपको ऐसा लगता है कि मुझे प्रेम है, इसलिए मैं खिंच रहा हूँ। लेकिन वह प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। प्रेम तो, ज्ञानी का ‘प्रेम’, वह प्रेम कहलाता है।
इस दुनिया में शुद्ध प्रेम, वही परमात्मा है। उसके सिवा अन्य कोई परमात्मा दुनिया में कोई हुआ नहीं है और होगा भी नहीं। और वहाँ दिल को ठंडक होती है और तब दिलावरी काम होते हैं। वर्ना दिलावरी काम नहीं हो सकते। दो प्रकार से दिल को ठंडक होती है। अधोगति में जाना हो, तब किसी स्त्री में दिल लगाना और उर्ध्वगति में जाना हो, तब ज्ञानीपुरुष में दिल लगाना। और वह तो तुम्हें मोक्ष में ले जाएगा। दोनों जगह दिल की ज़रूरत पड़ेगी, तब दिलावरी प्राप्त होती है।
अर्थात् जिस प्रेम में क्रोध-मान-माया-लोभ कुछ भी नहीं, स्त्री नहीं, पुरुष नहीं जो प्रेम समान, एक जैसा रहता है, ऐसा शुद्ध प्रेम देखे, तब मनुष्य के दिल में ठंडक होती है।
मैं प्रेम स्वरूप हो चुका हूँ। उस प्रेम में ही आप मस्त हो जाओगे तो जगत् भूल ही जाओगे, जगत् पूरा विस्मृत होता जाएगा। प्रेम में मस्त हुए तो फिर तुम्हारा संसार अच्छा चलेगा, दर्शरूप से चलेगा।
Book Name: पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार (Page #52 Paragraph #6, #7 & Page #53 Paragraph #1 to #4).
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