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आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने के लिए मेरा पुरुषार्थ क्या होना चाहिए?

हमारा पुरुषार्थ नीचे दिए गए इन चार आध्यात्मिक साधनाओं की दिशा में होना चाहिए:

  • दूसरों को दुःख ना पहुँचाना
  • दूसरों के दोष न देखना
  • लक्ष्मी, विषय और मान की प्यॉरिटी रखना
  • ज्ञानी की शरण में रहना

किसी को दुःख मत दीजिए

इस संसार का सबसे बड़ा सत्य यह है कि मन, वचन या वर्तन से किसी भी जीव को दुःख नहीं हो। यह सबसे बड़ा सिद्धांत है और यही अंतिम व्यवहार सत्य है। चलिए समझते हैं कैसे!

किसी को धोखा या दुःख देना, चोरी करना, किसी का विश्वासघात करना, किसी को त्रास देना या कोई बड़ा नुकसान पहुँचाना, ये सब दूसरों को दुःख पहुँचाने के अलग-अलग तरीके हैं; जिसके फल बहुत बड़े आते हैं। इसके पीछे मूल आध्यात्मिक कारण यह है कि, जीवमात्र में भगवान रहे हुए हैं। इसलिए हम किसी भी जीव को दुःख पहुँचाएँगे तो हमें उसका दोष लगेगा।

इसके परिणामस्वरूप न सिर्फ़ हमें अधोगति में जन्म लेना पड़ता है जहाँ अत्यधिक दुःख होते हैं, बल्कि हमारी आध्यात्मिक प्रगति में भी अवरोध आता है। दूसरों को दुःख पहुँचाने से ऐसा आध्यात्मिक नुकसान होता है। लगातार ऐसा होने से हमारी आध्यात्मिक जागृति कम हो जाती है, जो हमें असंवेदनशील बना देती है और हमारी बुद्धि भी बिगड़ जाती है।

किसी भी जीव को दुःख न पहुँचाने की साधना...

यदि कोई आध्यात्मिक प्रगति करना चाहता है, लेकिन दूसरों को दुःख देना नहीं रोक सकता, तो यह आध्यात्मिक मार्ग से भटक जाने का संकेत है। इसलिए आध्यात्मिक इच्छाओं में सबसे पहले दूसरों को दुःख ना पहुँचाना होना चाहिए।

इन प्रयासों को करने का सबसे सरल आध्यात्मिक तरीका यह है कि प्रतिदिन भगवान से हृदयपूर्वक, निश्चय से प्रार्थना करें, "हे भगवान! मेरे मन-वचन-काया से इस संसार के किसी भी जीव को दुःख न हो, कृपया मुझे शक्ति दीजिये।”

ऐसा हो सकता है कि हररोज़ प्रार्थना करने के बावजूद हम दूसरों को दुःख पहुँचाते रहेंगे। जब हमारे क्रोध, मान, माया, लोभ पूरी तरह से बंद हो जाते हैं तब ही दूसरों को दुःख पहुँचाना बंद होता है। यह लंबा मार्ग है! हालाँकि, तब तक हमें यह तय करना चाहिए कि हम दूसरों को दुःख पहुँचानेवाले बर्ताव का बचाव न करें; बल्कि हम हमेशा यह कहकर उसके विरोध में रहने का अभ्यास रखना चाहिए कि, "ऐसा नहीं होना चाहिए! किसी को भी दुःख पहुँचाना गलत है।" हृदय में सच्चे पश्चाताप के साथ हम यह प्रार्थना भी करेंगे कि, “हे भगवान! मैंने इस जीव को दुःख पहुँचाया है। मैं इसके लिए हृदय से क्षमा मांगता हूँ। मुझे ऐसी भूल नहीं करने की शक्ति दीजिए।”

किसी को दुःख न पहुँचाने की यह निरंतर जागृति आमतौर पर आत्मज्ञान के बाद और ज्ञानी पुरुष के आशीर्वाद से प्राप्त होती है।

दूसरों के दोष ना देखें

अब, हमने निश्चय कर लिया है कि हम किसी को दुःख नहीं पहुँचाना चाहते; लेकिन कोई हमें दुःख पहुँचाए तब क्या? जब भी ऐसा होता है, तो हमें सामनेवाला दोषित दिखता है, है न? लेकिन, क्या आप जानते हैं कि हमें किसी भी तरह से दुःख पहुँचानेवाला सिर्फ़ एक 'निमित्त' है, जिसके माध्यम से हमें पिछले कर्मों का फल मिलता है? तो, गलती किसकी है? किसने बुरे कर्म किए थे? हमें आज अपने पूर्व कर्मों का दंड मिला है। तो क्या यह कुदरत का दिया गया पूर्ण न्याय नहीं है?

किसी के दोष न देखने की साधना...

यहीं पर परम पूज्य दादा भगवान हमें चार सिद्धांत सिखाते हैं, जो हम रोज़ाना अपने जीवन की अलग-अलग परिस्थितियों में कर सकते हैं। वे इस प्रकार हैं:

  • 'हुआ सो न्याय!’
  • ‘भुगते उसी की भूल।’
  • ‘एडजस्ट एवरीव्हेर।’
  • ‘टकराव टालिए।'

इन चार सिद्धांतों का गहन अभ्यास महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ के रूप में काम करता है जो आध्यात्मिक मार्ग पर आपकी प्रगति को काफी हद तक खोल देता है। इसलिए इस पुरुषार्थ में सर्वोत्तम परिणाम लाने के लिए आपको सबसे पहले आत्मज्ञान प्राप्त करना होगा।

अक्रम विज्ञान में, आत्मज्ञान प्राप्त करना बहुत सरल है। हमें बस इतना करना है: ज्ञानी के पाससे दो घंटों के ज्ञानविधि कार्यक्रम (निःशुल्क) में भाग लेना है। आपका काम उनकी कृपा से पूरा होता है!!!

इसके बाद, ज्ञानी के बताए गए सिद्धांतों का पालन करते हुए, हमें अनुभव होगा कि सभी वास्तव में निर्दोष ही हैं, पूरा जगत् निर्दोष ही है। हम अपने दोष से ही बँधे हैं, उनके दोष से नहीं।

हम किसी और के कारण नहीं बल्कि अपने ही दोषों के कारण दुःख भुगतते हैं इस आध्यात्मिक विज्ञान को समझाता हुआ एक वीडियो नीचे दिया गया है। जब कोई इस बात को पूरी तरह से समझ लेता है तो उसकी दूसरों के दोष देखने की आदत दूर हो जाती है

लक्ष्मी, विषय और मान संबंधित प्योरिटी

जीवन व्यवहार अध्यात्म में आगे बढ़ने के लिए, प्योरिटी की आवश्यकता है। इम्प्योरिटी से, कभी कोई कुछ प्राप्त नहीं कर सकता।

इस काल में, अगर व्यवहार में सब से विशेष प्रधानता मिली होगी तो वह है लक्ष्मी, विषय और मान को! इसलिए, परम पूज्य दादा भगवानने कहा है, “यदि खुद व्यवहार में प्योर हों, जहाँ विषय- कषाय से संबंधित विचार ही नहीं हों और संपूर्ण रूप से भीख चली जाए तभी इस जगत् का वास्तविक स्वरूप समझ में आएगा। “ जहाँ पर किसी भी प्रकार की भीख नहीं रहती, न तो लक्ष्मी की, न ही विषय सुखों की और न ही मान की, वहाँ पर प्योरिटी के साथ यह परमात्मा पद प्राप्त होता है।

प्योरिटी के लिए साधना...

हमें किसने बाँध रखा है? हमें अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ने से कौन रोक रहा है? कोई व्यक्ति या परिस्थिति नहीं, बल्कि हमारी अपनी ग़लतियाँ ही सबसे बड़ा बंधन है। कुछ लोगों को मानने बाँध रखा है, कुछ को लोभने और कुछ को विषयने।

जैसे की हमारे अंदर क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि के परमाणु हैं ही, इसलिए अक्सर हम या तो किसी को दुःख पहुँचाते है या हमें किसी से दुःख हो जाता है। जब ये दोष दूर हो जाते हैं तो हम बिना किसी अवरोध के प्रगति कर सकते हैं। इसलिए, खुद के दोषों को ढूँढना और उनसे मुक्ति पाने के सही प्रयास ही हमारा सबसे बड़ा आध्यात्मिक पुरुषार्थ है! जब हम अपने दोष देखेंगे और उसे दूर करेंगे तो हम प्योरिटी पाएँगे। परिणामस्वरूप, हम भीतर से ज़्यादा से ज़्यादा मुक्ति का अनुभव करेंगे। यही परिणाम हम चाहते हैं, है न?!

मान संबंधित प्योरिटी

खुद सामने वाले को हल्का मानता है इसलिए मान टिका हुआ है। इसलिए, किसी को हल्का मत मानना; बल्कि हमेशा ऐसा रखना की “यह तो मेरा ऊपरी (बॉस) है” ऐसा कहना, तो मान चला जाएगा। परम पूज्य दादाश्री ने मान में प्योरिटी प्राप्त करने के लिए ऐसी बहुत सी छोटी-छोटी, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण चाबियाँ दी हैं। इनका प्रयोग करके हम सारी कामनाओं से मुक्त होकर आत्मसुख का अनुभव कर सकेंगे।

नैतिकता और प्रामाणिकता लाएँ लक्ष्मी की प्योरिटी

लक्ष्मी के बारे में परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, “सही रास्ते से जाना, उससे भीतर शांति रहेगी। भले ही बाहर पैसे नहीं हों लेकिन अंदर शांति और आनंद रहेगा। गलत रास्ते से आया हुआ पैसा टिकता भी नहीं और अंदर दुःखी कर देता है इसलएि गलत रास्ते से जाना ही नहीं है, ऐसा निश्चित करना।“

परम पूज्य दादा भगवान अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं, “हम ने बचपन में ही तय किया था कि जहाँ तक हो सके गलत तरीके की लक्ष्मी घुसने ही नहीं देनी है। तो आज छियासठ साल हुए लेकिन गलत लक्ष्मी घुसने नहीं दी।“

जब हम अपने धंधे में नैतिकता और प्रामाणिकता अपनाएँगे तो, हमें लक्ष्मी की कमी कभी भी नहीं होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्ति को जो कमी महसूस होती है वह आवश्यक रूप से इस जन्म में या पिछले जन्मों में की गई चोरी के कारण है। जहाँ मन-वचन-काया से चोरी न हो, वहाँ लक्ष्मीजी कृपा करें।

चोरी हमारे आध्यात्मिक मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। स्थूल चोरी बंद होने पर तो ऊँचे परिवार में जन्म होगा, पर सूक्ष्म चोरी अर्थात् ट्रिक (चालाकी) करे वह तो खुद को और दूसरों को भी नुकसान करता है।

चालाकी यानी माल बेचते वक़्त “बहुत चोखा माल है” कहना और मिलावटवाला माल बेचना। और तो और बेचनेवाला ट्रिक करके खुश होता है जिसका अर्थ है की वह चालाकी का समर्थन कर रहा है। ट्रिकें और पैसों के बीच बड़ी दुश्मनी है। वक़्त बीतते जितनी ट्रिकों का ज़्यादा उपयोग होगा, उतनी लक्ष्मी कम आएगी। ये चालाकियाँ ज़्यादा लक्ष्मी देंगी ऐसा दिखता है, लेकिन यह अतिरिक्त लक्ष्मी किसी ना किसी तरीके से दुःख और भोगवटा देकर जाती है। इस तरह पैसों का लाभ वक़्त के चलते कम होता जाता है। इसीलिए, चालाकी बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए; हमें अपने सभी व्यवहारो में हर तरह से प्रामाणिकता रखनी चाहिए।

ईमानदार रहने का भाव

हमें यही लगता है कि ईमानदारी से व्यापार करने जाएँ तो ज़्यादा मुश्किलें आती हैं। हालाँकि, अगर ईमानदारी से काम करेंगे और आर्थिक संकट आ जाता है तो एक ही मुश्किल आएगी लेकिन बेईमानी से काम करने पर आर्थिक संकट आता है तो दो प्रकार की मुश्किलें आएँगी। वक़्त गुज़रते व्यक्ति आर्थिक संकट से तो उभर जाएगा, लेकिन जब कुदरत उसे उसकी अनैतिकता का दंड देने पर आती है, तब उससे छूटना बहुत कठिन है।

दूसरी तरफ ईमानदारी तो भगवान का बहुत बड़ा ‘लाइसेन्स’ है। अगर हमारे पास यह लाइसेन्स हो तो हमारा कोई नाम नहीं ले सकता। इसलिए, हमें हमेशा ईमानदार रहने की शुद्ध भावना रखनी चाहिए।

प्रामाणिक भाव

जब, कभी भी भावना में इम्प्योरिटी घुस जाए तो वह दूध में नमक गिरने जैसा है। इस दृष्टान्त में, जो कुछ भी गलत या इम्प्योर है वह ‘नमक’ की तरह है। यह हमारे बर्ताव के पीछे रहे मन में इम्प्योरिटी के भाव या इम्प्योर विचार हो सकते हैं।

नमक गिरने पर दूध बेकार हो जाता है, क्योंकि उस दूध से चाय नहीं बनाई जा सकती। इसलिए, हमें इतना ध्यान रखना चाहिए कि हमारे दूध में नमक न गिरे। हमारी भावना बड़ी न हो तो चलेगा लेकिन भावना में बिल्कुल इम्प्योरिटी नहीं होनी चाहिए। दूध कम रखने में कोई हर्ज़ नहीं। लेकिन, हमें दूध में नमक गिरने देना नहीं चाहिए।

विषय संबंधित प्योरिटी

जिसे खाने में असंतोष है उसे जहाँ होटल दिखे वहाँ वह आकर्षित होता है, परंतु क्या खाना ही अकेला विषय है? यह तो पाँच इन्द्रियाँ और उनके कितने ही विषय हैं! खाने का असंतोष हो तो खाना आकर्षित करता है, वैसे ही जिसे विषय का असंतोष है वह यहाँ-वहाँ आँखे ही घुमाता रहता है।

मन-वचन-काया के माध्यम से शुद्ध ब्रह्मचर्य, निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति करानेवाला है।

ऐसे दुषमकाल में, अक्रम विज्ञान की उपलब्धि होने से आजीवन मन-वचन-काया से शुद्ध ब्रह्मचर्य की रक्षा हुई, उसे एकावतारी पद निश्चय ही प्राप्त हो ऐसा है।

ज्ञानी के प्रति समर्पित रहना

ज्ञानी पुरुष के चरणों में समर्पण से मोक्ष।

ज्ञानी मोक्ष के गारंटर हैं और इसलिए आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने के लिए, हमें अंततः प्रत्यक्ष ज्ञानी के चरणकमल में समर्पित होना होगा!!! वास्तव में समर्पण अर्थात् हम अपनी सभी गलत मान्यताओं को ज्ञानी के चरणों में समर्पित कर दें। हम उन रोंग बिलीफों को समर्पित कर देते हैं और वे हमें राइट बिलीफ दे देते हैं। वे मिथ्यादर्शन को भेदकर सम्यक् दर्शन की प्राप्ति करवाते हैं।

वीतरागों ने कहा है, “मोक्ष में जाने के लिए कुछ भी नहीं करना है। सिर्फ जो खुद छूट चुके हैं उन्हें खोज लेना, जो खुद तर चुके हैं और जिनमें अनेकों को तारने का सामर्थ्य है, ऐसे तरणतारण ज्ञानीपुरुष को खोज लेना और निर्भय होकर उनके पीछे-पीछे चले जाना। मोक्ष में जाना हो तो सजीवन मूर्ति के बगैर, उन्हें समर्पित हुए बगैर और उनकी आज्ञा का पालन किए बगैर कभी भी मोक्ष में नहीं जा सकते।“

सिन्सियरली ज्ञानी के प्रति समर्पित रहना सबसे महत्वपूर्ण साधना है!

समर्पण की साधना में हम जिन्हें समर्पित हुए हों उन पर संपूर्ण रूप से विश्वास रखना शामिल है। वे जो भी कहें या करें उसमें खुद की बुद्धि का ज़रा भी उपयोग नहीं करें और पूरी श्रद्धा से उनके कहे अनुसार करें और उनके प्रति सिन्सियर रहें।

आईए, इसके बारे में सीधे परम पूज्य दादा भगवान के शब्दों में जानें...

दादाश्री : सिन्सियर यानी तन-मन-वचन के प्रति सच्चाई और फिर वे गुरु के प्रति भी सिन्सियर रहते हैं। गुरु डाँटे तब भी सिन्सियरिटी इधर-उधर नहीं हो, तो वह मोक्ष पाएगा। सिन्सियर का क्या अर्थ है? अपने आप के प्रति सिन्सियर रहो। मन के प्रति सिन्सियर रहो, बुद्धि के प्रति सिन्सियर रहो, अहंकार के प्रति सिन्सियर रहो। उनके साथ छल-कपट मत करो। लोग तो खुद अपने साथ ही छल-कपट करते हैं, क्या वह शोभा देता है?

प्रश्नकर्ता : बिल्कुल नहीं।

दादाश्री : सिन्सियर यानी सिन्सियर! इंसान यदि खुद अपने आप के प्रति सिन्सियर रहे तो वह परमात्मा बन जाता है, फिर चाहे ज्ञानी मिलें या न मिलें! यदि अपने आप के प्रति सिन्सियर रहने से (उसे) सभी संयोग मिल जाते हैं। प्रकट ‘ज्ञानीपुरुष’ के प्रति जितनी सिन्सियरिटी रखी जाए उतना ही अपना स्वरूप प्रकट हो जाता।

अभी इसी वक़्त इस अवस्था तक पहुँचने के लिए हम इतना कर सकते हैं कि, चाहे ज्ञानी कुछ भी कहें या करें, हम उनसे अलग न हों ऐसा हमारा समर्पणभाव होना चाहिए। ज्ञानी आत्मा पर से आवरण तोड़कर हमारा काम कर देते हैं।

आशा है, ये सभी मुद्दे आपको अपना सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करेंगे, ताकि आप आध्यात्मिक मार्ग पर अच्छी तरह से प्रगति कर सकें और मोक्ष के अंतिम ध्येय को प्राप्त कर सकें!

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