सभी कुछ रिलेटिव (लौकिक) है अर्थात् ऑर्नामेन्टल है। मन को स्थिर करता है, लेकिन अंदर प्रगति नहीं हो पाती। मन स्थिर हो जाए तो इंसान मस्ती में आ जाता है। मन का स्थिर होना और उसमें अहंकार का एकाकार होना, उसे मस्ती कहा जाता है। तो बस मस्ती में आने पर समझता है कि “अब कुछ है!”
प्रश्नकर्ता: कुंडलिनी के अनुभव हुए हों तो उसी का दृढ़ आग्रह हो जाता है।
दादाश्री: वे तो दिमाग़ में तरह-तरह के चमकारे होते हैं। वे चित्त के चमत्कार हैं। चित्त के चमत्कार हैं। बहुत से कुंडलिनीवाले तो जब गाड़ी में मिलते हैं न, तो वे मुझे देखकर दर्शन कर जाते हैं। पहचानने की शक्ति अच्छी होती है। दृष्टि से पहचान जाते हैं और मुख के आनंद से समझ जाते हैं कि ‘यहाँ कुछ है।’ तब फिर मैं कहता हूँ कि कहाँ पर कुंडलिनी जागृत की है?
प्रश्नकर्ता: इगो बहुत होता है।
दादाश्री: इगो बढ़ने से यह दशा हुई है। इसलिए जब मेरे पास विधि करते हैं न, तब वह इगो निकलने लगता है उससे फिर पूरा शरीर एकदम हिलने और काँपने लगता है। फिर इगो निकल जाता है। उसके बाद वह हल्का हो जाता है। इगो बढ़ाकर ऐसा जाल बनाता है। फिर जाल में ही आनंद उठाता है।
प्रश्नकर्ता: मकड़ी के जाले जैसा?
दादाश्री: हाँ।
1) यदि आप कहीं बाहर या सत्संग करने जाओ न तो आपका मन उल्लास में आ जाता है और यहाँ पर तो मन नहीं, आत्मा उल्लास में आ जाता है। आत्मा ‘ज्ञानीपुरुष’ के पास ही जागृत होता है, वर्ना जागृत नहीं हो सकता।
2) ध्यान दो प्रकार के हैं: एक पौद्गलिक अर्थात् कि कुंडलिनी का, गुरु का, मंत्र वगैरह का, वह; और दूसरा आत्मा का ध्यान। वह निर्विकल्प समाधि में ले जाता है|
Book Name: आप्तवाणी 10 (P) (Page #193 - Paragraph #5, Page #194 - Paragraph #1 to #6)
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