अक्रम विज्ञान, एक ऐसा आध्यात्मिक विज्ञान है जो व्यवहार में उपयोगी है और मोक्ष प्राप्ति के लिए एक ‘शार्टकट’ रास्ता है।
अधिक पढ़ें21 मार्च |
दादा भगवान फाउन्डेशन प्रचार करता हैं, अक्रम विज्ञान के आध्यात्मिक विज्ञान का – आत्मसाक्षात्कार के विज्ञान का। जो परम पूज्य दादा भगवान द्वारा बताया गया है।
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सारे जगत् के लोगों को रौद्रध्यान और आर्तध्यान तो अपने आप होता ही रहता है। उसके लिए तो कुछ करना ही नहीं है। इसलिए इस जगत् में सबसे बड़ी हिंसा कौन-सी? आर्तध्यान और रौद्रध्यान! क्योंकि वह आत्महिंसा कहलाती है। वो जीवों की हिंसा तो पुद्गल हिंसा कहलाती है और यह आत्महिंसा कहलाती है। तो कौन-सी हिंसा अच्छी?
प्रश्नकर्ता : हिंसा तो कोई भी अच्छी नहीं है। परन्तु आत्महिंसा वह बड़ी कहलाती है।
दादाश्री : फिर ये लोग सारे पुद्गलहिंसा तो बहुत पालते हैं। पर आत्महिंसा तो हुआ ही करती है। आत्महिंसा को शास्त्रकारों ने भावहिंसा लिखा है। अब भावहिंसा इस ज्ञान के बाद आपको बंद हो जाती है। तो अंदर कैसी शांति रहती है न!
प्रश्नकर्ता : कृपालुदेव ने इस भावहिंसा को भावमरण कहा है न? कृपालुदेव का वाक्य है न,'क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रह्यो' उसमें समय-समय का भावमरण होता है?
दादाश्री : हाँ प्रत्येक क्षण भयंकर भावमरण यानी क्या कहना चाहते हैं? जब कि प्रतिक्षण भावमरण नहीं होता, हर एक समय भयंकर भावमरण होता है। पर यह तो स्थूल रूप से पर लिखा हुआ है। जब कि प्रत्येक समय भावमरण ही हो रहा है। भावमरण मतलब क्या कि 'मैं चंदूलाल हूँ' वही भावमरण है। जो अवस्था उत्पन्न हुई वह अवस्था 'मुझे' हुई ऐसा मानना मतलब भावमरण हुआ। इन सब लोगों की रमणता भावमरण में है कि 'यह सामायिक मैंने किया, यह मैंने किया।'
प्रश्नकर्ता : तो फिर भाव सजीव किस प्रकार से हो सकते हैं?
दादाश्री : ऐसे भाव सजीव नहीं हैं। भाव का मरण हो गया है। भावमरण वह निद्रा कहलाता है। भावनिद्रा और भावमरण वे दोनों एक ही हैं। इस 'अक्रम विज्ञान' में भाव वस्तु ही नहीं रखते, इसलिए फिर भावमरण होता नहीं, और क्रमिक में तो प्रतिक्षण भावमरण में ही बंधे होते हैं। कृपालुदेव तो ज्ञानी पुरुष न, इसलिए उन्हें अकेले को ही समझ में आता था, उन्हें ऐसा लगता कि, 'यह तो भावमरण हुआ, यह भावमरण हुआ।' इसलिए खुद निरंतर सचेत रहते थे। दूसरे लोग तो भावमरण में ही चला करते हैं।
भावमरण का अर्थ क्या? कि स्वभाव का मरण हुआ और विभाव का जन्म हुआ। अवस्था में 'मैं', उससे विभाव का जन्म हुआ और 'हम' अवस्था को देखें तब स्वभाव का जन्म हुआ।
इसलिए यह पुद्गलहिंसा होगी न, तो उसका कोई निबेड़ा आएगा। परन्तु आत्महिंसावाले का निबेड़ा नहीं आएगा। इतनी बारीकी से लोग समझाते ही नहीं न! वे तो मोटा कात देते हैं।
समस्या : कभी-कभी काम पर मैं लोगों को दुःख पहुँचा देता हूँ। मुझे अपनी वाणी पर काबू नहीं रहता। मेरे सह-कर्मचारियों के साथे मेरे संबंध बिगड़ गए हैं। मैं क्या करू? मैं वे कैसे सुधारूँ?
दादाश्री : वह तो सुबह पहले बाहर निकलते समय 'मन-वचन-काया से किसी भी जीव को किंचित् मात्र दुःख न हो' ऐसी पाँच बार भावना करके और फिर निकलना चाहिए। फिर किसी को दुःख हो गया हो, उसे याद रखकर उसका पश्चाताप करना चाहिए।
परिणाम : धीरे-धीरे आपके संबंध में सुधार आएगा और आपकी वाणी भी दूसरों के प्रति मनोहर होती जाएगी।
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