बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि हमें भगवान की पूजा करनी चाहिए। और हम विभिन्न माध्यमों जैसे जप, तपस्या (तप), भक्ति, आरती, ध्यान आदि के माध्यम से भगवान की पूजा करते हैं।
आमतौर पर, हम पाते हैं कि भले ही हम इन क्रियाओ में शारीरिक रूप से व्यस्त हैं, लेकिन हमारा मन वास्तव में कहीं र भटक रहा होता है। इसके परिणामस्वरूप, हमें अपनी भक्ति का वांछित (मनचाहा) परिणाम नहीं मिलता है।
तो, हम ईश्वर पर कैसे केंद्रित रहें?
जहाँ रूचि हमे होती है, वहां हमारी एकाग्र करने की क्षमता रहती है।
जब हम घर पर पैसे की गिनती करते हैं, या हम कपड़े की खरीदारी कर रहे होते हैं, तो क्या हमें एहसास होता है कि हमारा मन उस क्रिया में कितना केन्द्रित और तन्मयाकार रहता है? से उस क्रिया के दौरान हमारी एकाग्रता कितनी अच्छी तरह से रहती है?
यदि हमारी ईश्वर में वैसी ही रुचि हो, तो हमें ईश्वर पर अपना ध्यान केन्द्रित करने में कोई कठिनाई नहीं आएगी। जब हम ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने में असमर्थ होते हैं, तो इसका अर्थ है कि ईश्वर में हमारी रुचि में कुछ कमी है।
जब हमारे भीतर ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होगा, तो मन भटकेगा नहीं और हम आसानी से ध्यान केंद्रित कर पाएंगे। हम उन चीजों के पीछे भटकते हैं जिन्हें हम मूल्यवान समझते हैं। हम किसी भी चीज़ की जितनी अधिक किंमत रखेंगे, उतना ही हमे उनसे लगाव होगा।
अगर आपको संसार के प्रति ममता बांधनी है; तो जाओ आगे बढ़ो; या फिर, मेरे पास आओ। यदि मुझसे ममता बांधेगे, तो आपको कायमी सुख मिलेगा; और यदि संसार से ममता बांधेगे, तो आपको कभी संतोष नहीं मिलेगा!
जब तक हमे संसारी चीजों में रुचि रखते हैं तब तक हम विनाशी चीजों के प्रति आकर्षित हो के फ़स जाते है। यदि हम इसके बजाय ईश्वर में रुचि लेते हैं, तो विनाशी चीजों में हमारा आकर्षण, बिना किसी प्रयत्न के अपने आप निकल जाता है। इसलिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारी रुचि बदल जाए।
यह इसलिए है क्योंकि हमने भगवान को देखा नहीं है। हमने कपड़े और उनके सुंदर रंग देखे हैं, इसलिए हमारी रुचि उनके लिए स्वाभाविक रूप से विकसित होती है।
लेकिन हमे जिन्हें पहले कभी देखा या अनुभव नहीं किया है, तो उसमें किसी की रुचि कैसे विकसित हो सकती है? अगर हम ईश्वर के दर्शन करते हैं तो चीजें काफी बदल जाएंगी।
लेकिन भगवान को नहीं देखा जा सकता है। तो अब हम क्या करें?
ईश्वर के प्रतिनिधि ज्ञानी पुरुष में रूचि।
हम ज्ञानी को अपनी आँखों से, व्यक्ति के रूप मे देख सकते हैं।
इससे हमे अपनी रुचि स्थापित करने में बहुत आसानी हो जाएगी। और ज्ञानी ऐसे है कि किसी को भी उनके प्रति रुचि विकसित करने के लिए ज्यादा प्रयत्न नहीं करना पड़ता है, यह अपने आप उत्पन्न होता है। हर कोई उनके प्रति एक सहजता से आकर्षण का अनुभव करते है - हमें ऐसा लगता है कि हम हर समय उनके साथ ही रहते हैं।
जब हमारी रुचि ज्ञानी में बैठेगी, तो वह रुचि सीधे भगवान तक पहुँच जाएगी!
श्रद्धा किसी बल से नहीं बढ़ती। वह साहजिक रूप से बढ़ती है। जब आप किसी तरह से लाभान्वित होते हैं या आपने अपने भीतर कुछ बदलाव का अनुभव करते है, तो यह अनुभव अपने आप विकसित होता है। आपको श्रद्धा रखने की आवश्यकता नहीं है, इसे सहज रूप से होना चाहिए, और एक बार यह अनुभव होने के बाद, यह किसी भी परिस्थिति में नहीं छुटेगा। श्रद्धा के बिना आप जो कुछ भी करते हैं वह सब मिकेनिक्ल है।
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