पुरुष और प्रकृति
सारा संसार प्रकृति को समझने में फँसा है। पुरुष और प्रकृति को तो अनादि से खोजते आए हैं। लेकिन वे योें हाथ में आ जाएँ, ऐसे नहीं हैं। क्रमिक मार्ग में पूरी प्रकृति को पहचान ले उसके बाद में पुरुष की पहचान होती है। उसका तो अनंत जन्मों के बाद भी हल निकले ऐसा नहीं है। जबकि अक्रम मार्ग में ज्ञानी पुरुष सिर पर हाथ रख दें, तो खुद पुरुष होकर सारी प्रकृति को समझ जाता है। फिर दोनों सदा के लिए अलग-अलग ही रहते हैं। प्रकृति की भूलभूलैया में अच्छे-अच्छे फँसे हुए हैं, और वे करते भी क्या? प्रकृति द्वारा प्रकृति को पहचानने जाते हैं न, उसका कैसे पार पाएँ?
पुरुष होकर प्रकृति को पहचानना है, तभी प्रकृति का हर एक परमाणु पहचाना जा सकता है।
प्रकृति अर्थात् क्या? प्र = विशेष और कृति = किया गया। स्वाभाविक की गई चीज़ नहीं। लेकिन विभाव में जाकर, विशेष रूप से की गई चीज़, वही प्रकृति है।
प्रकृति तो स्त्री है, स्त्री का रूप है और ‘खुद’(सेल्फ) पुरुष है। कृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा कि त्रिगुणात्मक से परे हो जा, अर्थात् त्रिगुण, प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त, ‘तू’ ऐसा पुरुष बन जा। क्योंकि यदि प्रकृति के गुणों में रहेगा, तो ‘तू’ अबला है और पुरुष के गुणों में रहा, तो ‘तू’ पुरुष है।
‘प्रकृति लट्टू जैसी है।’ लट्टू यानी क्या? डोरी लिपटती है, वह सर्जन, डोरी खुले, तब घूमता है, वह प्रकृति।
डोरी लिपटती है, तब कलात्मक ढंग से लिपटती है, इसलिए खुलते समय भी कलात्मक ढंग से ही खुलेगी। बालक हो, तब भी खाते समय निवाला क्या मुँह में डालने के बजाय कान में डालता है? साँपिन मर गई हो, तब भी उसके अंडे टूटने पर उनमें से निकलने वाले बच्चे निकलते ही फन फैलाने लगते हैं, तुरंत ही। इसके पीछे क्या है? यह तो प्रकृति का अजूबा है।
प्रकृति का कलात्मक कार्य, एक अजूबा है। प्रकृति इधर-उधर कब तक होती है? उसकी शुरूआत से ज़्यादा से ज़्यादा इधर-उधर होने की लिमिट है। लट्टू का घूमना भी उसकी लिमिट में ही होता है। जैसे कि, विचार उतनी ही लिमिट में आते हैं। मोह होता है, वह भी उतनी लिमिट में ही होता है। इसलिए प्रत्येक जीव की नाभि, सेन्टर है और वहाँ आत्मा आवृत्त नहीं है। वहाँ शुद्ध ज्ञानप्रकाश रहा हुआ है। यदि प्रकृति लिमिट से बाहर जाए, तो वह प्रकाश आवृत्त हो जाता है और पत्थर हो जाता है, जड़ हो जाता है। लेकिन ऐसा होता ही नहीं है। लिमिट में ही रहता है। यह मोह होता है, इसलिए उसका आवरण छा जाता है। चाहे जितना मोह टॉप पर पहुँचा हो, लेकिन उसकी लिमिट आते ही फिर नीचे उतर जाता है। यह सब नियम से ही होता है। नियम से बाहर नहीं होता।
Reference: Book Name: आप्तवाणी 1 (Page #63 - Paragraph #3 & #4, Entire Page #64, Page #65 - Paragraph #1)
वेद,तीन गुणों में ही हैं
कृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि, ‘वेद तीन गुणों से बाहर नहीं हैं, वेद तीन गुणों को ही प्रकाशित करते हैं।’ कृष्ण भगवान ने ‘नेमीनाथ’ से मिलने के बाद गीता कही थी, उससे पहले वे वेदांती थे। उन्होंने गीता में कहा, ‘त्रैगुण्य विषयो वेदो निस्त्रैय गुण्यो भवार्जुन,’ यह गज़ब का वाक्य कृष्ण ने कह दिया है! ‘आत्मा जानने के लिए वेदांत से परे जाना,’ कह दिया है! उन्होंने ऐसा कहा कि, ‘हे अर्जुन! आत्मा जानने के लिए तू त्रिगुणात्मक से परे हो।’ त्रिगुणात्मक कौन-कौन से? सत्व, रज और तम। वेद इन्हीं तीन गुणवाले हैं, इसलिए तू उनसे परे हो जाएगा तभी तेरा काम होगा। और फिर ये तीन गुण द्वंद्व हैं, इसलिए तू त्रिगुणात्मक से परे हो जा और आत्मा को समझ! आत्मा जानने के लिए कृष्ण ने वेदांत से बाहर जाने को कहा है, लेकिन लोग समझते नहीं है। चारों ही वेद पूरे होने के बाद वेद इटसेल्फ क्या कहते हैं? दिस इज़ नोट देट, दिस इज़ नोट देट, तू जिस आत्मा को ढूँढ रहा है वह इसमें नहीं है। ‘न इति, न इति,’ इसलिए तुझे यदि आत्मा जानना हो तो गो टु ज्ञानी।
कृष्ण भगवान ने कहा है कि, ‘यह जगत् भगवान ने नहीं बनाया है, लेकिन स्वभाविक रूप से बन गया है!’
Reference: Book Name: आप्तवाणी 2 (Page #383 - Paragraph #6, Page #384 - Paragraph #1 & #2)
1) कृष्ण भगवान ने जो समझाया है, उस बात को ही यदि समझ जाएगा तो भी सच्चा भक्त बन जाएगा।
2) कृष्ण भगवान ने तो पूरा साइन्स बता दिया है और उन्होंने कहा है कि चारों वेद त्रिगुणात्मक हैं।
3) ये चार वेद तो लोगों के लिए हैं। लेकिन जिन्हें मोक्ष में जाना है, उन्हें इन चार वेदों से आगे आना है, गीता में आना है।
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