अक्रम विज्ञान, एक ऐसा आध्यात्मिक विज्ञान है जो व्यवहार में उपयोगी है और मोक्ष प्राप्ति के लिए एक ‘शार्टकट’ रास्ता है।
अधिक पढ़ें“यदि खुद के स्वरूप को पहचान लिया तो फिर वह, खुद ही परमात्मा है |”
~ परम पूज्य दादा भगवान
दादा भगवान फाउन्डेशन प्रचार करता हैं, अक्रम विज्ञान के आध्यात्मिक विज्ञान का – आत्मसाक्षात्कार के विज्ञान का। जो परम पूज्य दादा भगवान द्वारा बताया गया है।
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ब्रह्मनिष्ठ तो ज्ञानी ही बनाते हैं
‘खुद’ परमात्मा है, लेकिन जब तक वह पद प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक ‘हम वैष्णव हैं और हम जैन हैं,’ ऐसा करते हैं। और फिर वैष्णव हृदय में कृष्ण को धारण करते हैं, लेकिन जब तक मूल वस्तु प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक वह धारणा कहलाती है। ‘मूल वस्तु,’ खुद का स्वरूप, वह प्राप्त हो जाए, तो वह ब्रह्मसंबंध है। ब्रह्मसंबंध किसे कहते हैं? लगनी लग जाए, फिर कभी भी भूले नहीं, वह ब्रह्मसंबंध है, यानी आत्मा के साथ संबंध बाँध देना, वह ब्रह्मसंबंध है। ‘ज्ञानीपुरुष’ जगत् में से आपकी निष्ठा उठाकर ब्रह्म में बैठा देते हैं और आपको ब्रह्मनिष्ठ बना देते हैं! इसमें तो आत्मा और अनात्मा को गुणधर्म द्वारा जुदा करना है। अनंत जन्मों से आत्मा और अनात्मा भ्रांतिरस से जुड़े हुए हैं। ‘ज्ञानीपुरुष’ आपके पाप जला देते हैं तब जाकर आपको स्वरूप का लक्ष्य रहता है, उसके बिना लक्ष्य कैसे रहेगा? यदि कोई आपसे पूछे कि, ‘आपका कौन सा धर्म है?’ तो कहना कि, ‘हमारा तो स्व-धर्म है।’ आत्मा, वह ‘स्व’ है और आत्मा जानने के बाद ही स्वधर्म शुरू होता है!
‘जिन’ को जाने तब जैन बनता है, वर्ना जैन, वह तो वंशागत है। वैष्णव भी वंशागत है, लेकिन हमारी वाणी को जो एक घंटे तक सुने, वही सच्चा जैन और सच्चा वैष्णव है।
कईं जन्म लेने के बावजूद भी वैधव्य आएगा, इसलिए हमारे साथ ब्रह्म का संबंध बाँध लेना, वर्ना मरते समय कोई साथ नहीं देगा। बाकी यह संसार तो पूरा दगा है! इसलिए हमारा संबंध बाँधो, इसका नाम ब्रह्मसंबंध और यह संबंध कैसा कि कोई निकाल दे तो भी जाए नहीं। संसार तो वैधव्य का स्थान है और दुःख का संग्रहस्थान है, उसमें सुख कहाँ से दिखेगा? वह तो मोह रहता है, इसलिए ज़रा अच्छा दिखता है, मोह उतरेगा तो संसार कड़वा ज़हर जैसा लगेगा, मोह के कारण कड़वा नहीं लगता।
हमारे साथ ब्रह्मसंबंध बाँध लेना, तो आपका कल्याण हो जाएगा। यह जो देह दिखती है वह तो बुलबुला है, लेकिन देह के भीतर ‘दादा भगवान’ बैठे हैं तो काम निकाल लेना। दस लाख सालों में ‘यह’ अवतार प्रकट हुआ है, संसार में रहकर मोक्ष मिलेगा। यह बुलबुला फूट जाएगा, उसके बाद भीतर बैठे हुए ‘दादा भगवान’ के दर्शन नहीं होंगे, इसलिए बुलबुला फूटने के पहले दर्शन कर लेना। ब्रह्मसंबंध अर्थात् जहाँ ब्रह्म प्रकट हो गया है उनके चरण के अंगूठे को छूकर संबंध लें, तो वह ब्रह्मसंबंध है। सच्चा ब्रह्मसंबंध देनेवाले शायद ही कभी मिलते हैं।
दस लाख साल पहले धर्म अस्त-व्यस्त हो गए थे। तब के केसरिया जी में ‘दादा भगवान ऋषभदेव’ सर्व धर्मों के मूल, वे आदिम भगवान, प्रथम भगवान हैं। और दस लाख सालों बाद आज ये ‘दादा भगवान’ आए हैं! उनके दर्शन कर लेना और काम निकाल लेना। प्रत्यक्ष भगवान आए हैं और उनकी यह देह तो मंदिर है, तो उस मंदिर का नाश हो जाए उससे पहले मंदिर में बैठे हुए प्रकट ‘दादा भगवान’ के दर्शन कर लेना। ब्रह्मसंबंध ऐसा बाँध लेना कि पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, सभी में भगवान दिखें! कच्चा संबंध बाँधोगे तो दिन नहीं बदलेंगे। इसलिए पक्का संबंध बाँध लेना। कविराज ने गाया है न,
‘‘मन-वचन-कायाथी तद्दन जुदो एवो ‘हुं’ ब्रह्मसंबंधवाळो छुं।’’
"मन-वचन-काया से बिल्कुल जुदा ऐसा ‘मैं’ ब्रह्मसंबंधवाला हूँ!"
संसार व्यवहार में आबरू मुठ्ठी में रहे वैसा कर दे, ऐसा है यह मंत्र! इस मंत्र से ब्रह्म की पुष्टि होती रहेगी और ब्रह्मनिष्ठ बन जाओगे। ‘ज्ञानीपुरुष’ के साथ लगनी लगे, वही ब्रह्मसंबंध। माया के साथ बहुत जन्मों से मित्रता की है, उसे निकाल बाहर करें, फिर भी वापस आ जाती है, लेकिन ब्रह्मसंबंध हो जाए, तब माया भाग जाती है।
मोहबाज़ार में कहीं भी घुसना मत। विवाह में मोह और माया का बाज़ार होता है। माया और उसके बच्चे अपनी आबरू ले लेते हैं और भगवान अपनी आबरू सँभालते हैं। हमारे आसरे आया उसका कोई नाम नहीं ले सकता। यहाँ किसी कलेक्टर की पहचानवाला हो तो उसका कोई नाम नहीं लेता, कहते हैं कि, ‘भाई, इनकी तो कलेक्टर से पहचान है।’ उसी तरह आपकी इन ‘दादा भगवान’ से पहचान हुई है कि जिन्हें तीन लोकों के नाथ वश में बरतते हैं! फिर आपका नाम कौन लेनेवाला है?
हमारा नाम देना और हमारी चाबी लेकर जाओगे तो ‘रणछोड़ जी’ आपके साथ बातें करेंगे। हमारा नाम रणछोड़ जी को बताना तो वे बोलने लगेंगे! कविराज ने दादा के लिए गाया है न कि,
(१) कल्पे कल्पे जन्मे छे ते कल्पातीत सत्पुरुष,
श्री रणछोडरायनुं हृदयकमळ ‘हुं’ ज छुं।
परात्पर पुरुष गीतागायक ‘हुं’ ज छुं।
(२) मुरलीना पडघे झूमी जमना बोली,
श्री कृष्णना प्रकाशक आवी गया छे।
‘वैष्णव जन तो तेने रे कहीए....’ इस परिभाषावाला एक भी वैष्णव मिलता ही नहीं। मर्यादा मतलब अंशधर्म, लिमिटेड धर्म, उसका पालन करे तो अच्छा, लेकिन यह तो पूरे दिन क्लेश करता है।
एकादशी तो किसे कहते हैं? पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन - इन सब को एक दिन काबू में रखना होता है! यह तो पति को एकादशी के दिन डाँटती है कि, ‘आप यह नहीं लाए और वह नहीं लाए!’ उसे ऐसा कैसे कहेंगे कि एकादशी की? धर्म तो ऐसी एकादशी करने से धर्म नहीं मिल सकता। हमारी आज्ञानुसार कोई एक एकादशी करे तो दूसरी करनी ही नहीं पड़ेगी!
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