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हमें कैसे पता चलेगा कि किसी को आत्मा की तीव्र इच्छा है?

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प्रश्नकर्ता: लोए यानी क्या?

दादाश्री: नमो लोए सव्वसाहूणं। लोए यानी लोक। इस लोक के अलावा दूसरा, अलोक है; वहाँ कुछ भी नहीं है। अर्थात् लोक में जो सभी साधु हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ।

प्रश्नकर्ता: आत्मदशा साधने से आत्मा का अनुभव होता है?

दादाश्री: वह आत्मदशा साधता है मतलब अनुभव की ओर बढऩे लगता है, साधना करता है। साधना का क्या अर्थ है? ‘आतम् भावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे!’ (आतम् भावना करते जीव लहे केवलज्ञान रे!) लेकिन आत्मभावना उसे प्राप्त होनी चाहिए न? हम यहाँ जो ज्ञान देते हैं, वह आत्मदशा की ही प्राप्ति करवाते हैं और उसे प्राप्त करने के बाद उसे फिर आगे की दशा प्राप्त होती है और उसमें कोई जैसे-जैसे आगे बढ़ता हैं उसे उपाध्याय दशा प्राप्त होती है।

साधु कौन कहलाता है? आत्मदशा साधे वह साधु। साधु तो साधक ही होता है। निरंतर साधक दशा तो ‘स्वरूप’ का भान (ज्ञान) होने के बाद ही उत्पन्न होती है। साधक दशा यानी सिद्ध दशा, उत्पन्न होती ही जाती है। सिद्ध दशा से मोक्ष और साधक-बाधक दशा से संसार। इसमें किसी का दोष नहीं है। नासमझी का फँसाव है यह। उनकी भी इच्छा तो साधक दशा की ही होती है न?

जहाँ बाधकता है, वहाँ साधु नहीं है। साधु साधक-वाधक नहीं होता। वह सिर्फ साधक ही होता है।

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