प्रश्नकर्ता : 'नमो आयरियाणं'।
दादाश्री : अरिहंत भगवान के बताए हुए आचार का जो पालन करते हैं और उन आचारों का पालन करवाते हैं, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ। उन्होंने खुद आत्मा की प्राप्ति की है, आत्मदशा प्रकट हुई है। वे संयम सहित हैं। लेकिन यहाँ आजकल जो आचार्य हैं वे (सच्चे) आचार्य नहीं हैं। ये तो, ज़रा सा अपमान करने पर तुरंत ही क्रोधित हो जाते हैं। अर्थात् ऐसे आचार्य नहीं होने चाहिए। उनकी दृष्टि में परिवर्तन नहीं आया है। दृष्टि परिवर्तन होने के बाद काम होगा। जो मिथ्या दृष्टिवाले हैं, उन्हें आचार्य नहीं कहा जा सकता। समकित (आत्मदृष्टि) होने के बाद जो आचार्य बनें, वे आचार्य कहलाते हैं।
आचार्य भगवान कौन से? ये जो दिखाई देते हैं, लौकिक धर्मों के आचार्य, वे नहीं। सुख की जिसे किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है और निज आत्मा के सुख के हेतु ही आचारों का पालन करते हैं। आयरियाणं अर्थात् जिसे आत्मा जानने के पश्चात् आचार्यपन (खुद आचारों का पालन करते हैं और दूसरों को पालन करवाते हैं) है, ऐसे आचार्य भगवान को नमस्कार करता हूँ। इसमें हर्ज है क्या? आपको इसमें आपत्ति जैसा लगता है क्या? फिर भले ही कोई भी हो, किसी भी जाति का हो, लेकिन जिसे आत्मज्ञान हुआ है, ऐसे आचार्य को नमस्कार करता हूँ।
अब वर्तमान में ऐसे आचार्य इस जगत् में सभी जगह पर नहीं हैं, किन्तु कुछ जगह पर हैं। लेकिन ऐसे आचार्य यहाँ नहीं हैं। हमारी भूमि पर नहीं हैं लेकिन दूसरी भूमि पर हैं। इसलिए ये नमस्कार, वे जहाँ हैं वहाँ उन्हें पहुँच जाते हैं और हमें तुरंत उसका फल मिलता है।
Book Name: त्रिमंत्र (Page #12 Last #2 Paragraphs; Page # 13 Paragraph # 1,#2,#3)
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