जगत् के लोग ध्यान में बैठते हैं, लेकिन क्या ध्येय निश्चित किया?
ध्येय की फोटो देखकर नहीं आया है, तो फिर किसका, भैंसे का ध्यान कर रहा है? बिना ध्येय का ध्यान, वह अपध्यान है। भगवान ने शब्द-आत्मा का ध्यान करने के लिए मना किया था। ध्यान तो किसे कहा जाता है? आत्मा के सारे ही गुण एट-ए-टाइम ध्यान में लेना। तो आत्मा के गुण वे ध्येय कहलाते हैं और ध्याता तू खुद बन जाए तो वह तेरा ध्यान कहलाता है। यह सब एट-ए-टाइम कुछ रहता होगा? इन लोगों को समाधि की क्या ज़रूरत है? दिन को आधि में, रात को व्याधि में और विवाह में उपाधि में रहता है तो ये क्या देखकर समाधि माँग रहे हैं?
प्रश्नकर्ता: ये जो श्वासोच्छ्वास पर ध्यान धरने को कहते हैं, उससे क्या होता है?
दादाश्री: इसमें ध्यान करो कहते हैं, वह क्या है? नाक में से श्वास निकले उस पर ध्यान रखो, श्वास अंदर जाता है उस पर ध्यान रखो! श्वास तो आता है और निकलता है, उस ध्यान का क्या करना है? उस नाक की नली का क्या करना है? छोड़ो न। जब दमे का श्वास उठता है तब कर न ध्यान? तब तो वह कैसे कर पाएगा? यह तो कहेगा कि श्वास लिया वह ‘सो’ और श्वास निकला वह ‘हम्,’ यानी ‘हमसो,’ ‘हमसो,’ ‘सोहम्’ होता है, उसका ध्यान करो ऐसा कहेंगे लेकिन आत्मा सोहम् भी नहीं है और हमसो भी नहीं है। आत्मा शब्द में नहीं है, वह तो वीतरागों ने ‘आत्मा’, यों शब्द से संज्ञा की है। आत्मा पुस्तक में नहीं होता और शास्त्रों में भी नहीं होता, उन सभी में तो शब्द-आत्मा है। रियल आत्मा तो ज्ञानी के पास ही होता है। ये श्वासोच्छश्वास देखते रहते हैं, तो क्या उन्हें उससे समाधि रहती है? नहीं। उससे क्या होता है? कि मन टूट जाता है। मन तो नाव है। संसार सागर में से किनारे तक जाने के लिए मन की नाव की ज़रूरत पड़ती है। खुद के स्वरूप का ध्यान, वह ध्यान कहलाता है। दूसरा, खिचड़ी का ध्यान रखें तो खिचड़ी बनती है। ये दो ही ध्यान रखने चाहिए, बाकी के सब तो पागल ध्यान कहलाते हैं। इन ‘दादा’ के ध्यान में रहना है तो भले ही रहे, उसे भले ही और कोई समझ नहीं हो, लेकिन फिर भी खुद उस रूप होता जाएगा। ज्ञानीपुरुष, वे खुद अपना ही आत्मा है और इसीलिए फिर वह खुद ‘उस’ रूप होता जाता है।
आत्मा प्राप्त हुआ, वह आत्मध्यान है और संसारी ध्यान में खिचड़ी का ध्यान करना है। सभी लोग जो ध्यान सिखलाते हैं, वे तो बल्कि बोझ बन जाता है। वह तो जिसे व्यग्रता का रोग है, उसे एकाग्रता का ध्यान सिखलाना पड़ता है, लेकिन औरों को उसकी क्या ज़रूरत है? वह ध्यान उसे कौन सी जगह ले जाएगा, उसका क्या ठिकाना?
भगवान ने क्या कहा है कि इतना ध्यान रखना, ‘खिचड़ी का ध्यान रखना और पति का ध्यान रखना, नहीं तो स्वरूप का ध्यान रख।’ इनके सिवा और किसी ध्यान का क्या करना है? समाधि के लिए और कौन से ध्यान करने हैं? ये बाकी के बाहरवाले तो पर-ध्यान हैं। मात्र कान को जो प्रिय लगता कि बहुत अच्छा है, बहुत अच्छी आवाज़ है। कुछ के मन को प्रिय लगता है तो कुछ की बुद्धि को प्रिय लगता है। वह तो सबकी मति के अनुसार लगता है।
1) यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - ये सभी योग के अष्टांग हैं। यहाँ पर यह ज्ञान मिला इसलिए आपके लिए ये पूरे हो गए। उससे आगे आत्मा का लक्ष्य भी आपको बैठ गया है।
2) ध्यान दो प्रकार के हैं : एक पौद्गलिक अर्थात् कि कुंडलिनी का, गुरु का, मंत्र वगैरह का, वह; और दूसरा आत्मा का ध्यान। वह निर्विकल्प समाधि में ले जाता है।
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