यह किट-किट करने के बजाय मौन रहना अच्छा, नहीं बोलना अच्छा। बच्चे सुधरने के बजाय बिगड़ते हैं, इसलिए एक अक्षर भी मत कहना। बिगड़े उसकी ज़िम्मेदारी अपनी है। यह समझ में आए ऐसी बात है न?
आप कहो कि ऐसा मत करना, तब वह उल्टा ही करता है। ‘करूँगा, जाइए जो करना है करो।’ उल्टा वह ज़्यादा बिगड़ता है। बच्चे अपनी आबरू मिट्टी में मिला देते हैं। इन भारतियों को जीना भी नहीं आया! बाप होना नहीं आया और बाप बन बैठे हैं। इसलिए ऐसे-वैसे मुझे समझाना पड़ता है, पुस्तकें प्रकाशित करनी पड़ती हैं। वर्ना जिसने अपना ज्ञान लिया है, वे तो बच्चों को बहुत अच्छा बना सकते हैं। उसे बिठाकर, हाथ फेरकर पूछो कि ‘बेटा, तुझे, यह भूल हुई, ऐसा नहीं लगता!’
यह इन्डियन फिलॉसफि (भारतीय तात्विक समझ) कैसी होती है? माता-पिता में से एक डाँटने लगे तब दूसरा, बच्चे का बचाव करता है। इसलिए वह कुछ सुधर रहा हो, तो सुधरना तो एक ओर रहा, ऊपर से बेटा समझता है कि ‘मम्मी अच्छी है और पापा बुरे हैं, बड़ा हो जाऊँगा तब इन्हें मारूँगा।’
बच्चों को सुधारना हो तो हमारी आज्ञानुसार चलो। बच्चों के पूछने पर ही बोलना और उन्हें यह भी कह देना कि मुझे नहीं पूछो तो अच्छा। बच्चों के संबंध में उल्टा विचार आए तो तुरंत उसका प्रतिक्रमण कर डालना।
किसी को सुधारने की शक्ति इस काल में खत्म हो गई है। इसलिए सुधारने की आशा छोड़ दो। क्योंकि मन-वचन-काया की एकात्मवृति हो, तभी सामनेवाला सुधर सकता है। मन में जैसा हो, वैसा वाणी में निकले और वैसा ही वर्तन हो, तभी सामनेवाला सुधरेगा। इस काल में ऐसा नहीं है। घर में प्रत्येक व्यक्ति के साथ कैसे व्यवहार हो, उसकी ‘नोर्मेलिटी’ (समानता) ला दो। आचार, विचार और उच्चार में सीधा परिवर्तन हो तो खुद परमात्मा बन सकता है और उल्टा परिवर्तन हो तो राक्षस भी बन सकता है।
लोग सामनेवाले को सुधारने के लिए सब फ्रेक्चर कर डालते हैं। पहले खुद सुधरे तो ही दूसरों को सुधार सकता है। लेकिन खुद के सुधरे बगैर सामनेवाला कैसे सुधरेगा?
आपको बच्चों के लिए भाव करते रहना है कि बच्चों की बुद्धि सीधी हो। ऐसा करते-करते बहुत दिनों के बाद असर हुए बिना नहीं रहता। वे तो धीमे-धीमे समझेंगे, आप भावना करते रहो। उन पर ज़बरदस्ती करोगे तो उल्टे चलेंगे। तात्पर्य यह कि संसार जैसे-तैसे निभा लेने जैसा है।
बेटा शराब पीकर आए और आपको दुःख दे, तब आप मुझे कहो कि यह बेटा मुझे बहुत दुःख देता है तो मैं कहूँ कि गलती आपकी है, इसलिए शांति से चुपचाप भुगत लो, बिना भाव बिगाड़े। यह भगवान महावीर का नियम है और संसार का नियम तो अलग है। संसार के लोग कहेंगे कि ‘बेटे की भूल है।’ ऐसा कहनेवाले आपको आ मिलेंगे और आप भी अकड़ जाओगे कि ‘बेटे की ही भूल है, यह मेरी समझ सही है।’ बड़े आए समझवाले! भगवान कहते हैं, ‘तेरी भूल है।’
आप फ्रेन्डशिप (मित्रता) करोगे तो बच्चे सुधरेंगे। आपकी फ्रेन्डशिप होगी तो बच्चे सुधरेंगे। लेकिन माता-पिता की तरह रहोगे, रोब जमाने जाओगे, तो जोखिम है। फ्रेन्ड (मित्र) की तरह रहना चाहिए। वे बाहर फ्रेन्ड खोजने न जाए इस प्रकार रहना चाहिए। अगर आप फ्रेन्ड हैं, तो उसके साथ खेलना चाहिए, फ्रेन्ड जैसा सब करना चाहिए! तेरे आने के बाद हम चाय पिएँगे, ऐसा कहना चाहिए। हम सब साथ मिलकर चाय पिएँगे। आपका मित्र हो इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, तब बच्चे आपके रहेंगे। नहीं तो बच्चे आपके नहीं होंगे, सचमुच कोई बच्चा किसी का होता ही नहीं। कोई आदमी मर जाए तो, उसके पीछे उसका बेटा मरता है कभी? सब घर आकर खाते-पीते हैं। ये बच्चे नहीं हैं, ये तो सिर्फ कुदरत के नियमानुसार (संबंध के तौर पर) दिखाई देते हैं इतना ही। ‘योर फ्रेन्ड’ (आपका मित्र) के तौर पर रहना चाहिए। आप पहले तय करो तो फ्रेन्ड के तौर पर रह सकते हो। जैसे फ्रेन्ड को बुरा लगे ऐसा नहीं बोलते, वह उल्टा कर रहा हो तो हम उसे कब तक समझाते हैं कि वह मान जाए तब तक और न माने तो फिर उसे कहते हैं कि ‘जैसी तेरी मरज़ी।’ फ्रेन्ड होने के लिए मन में पहले क्या सोचना चाहिए? बाह्य व्यवहार में ‘मैं उसका पिता हूँ’, परंतु अंदर से मन में हमें मानना चाहिए कि मैं उसका बेटा हूँ। तभी फ्रेन्डशिप हो पाएगी, नहीं तो नहीं होगी। पिता मित्र कैसे होगा? उसके लेवल (स्तर) तक आने पर। उस लेवल तक किस प्रकार आएँ? वह मन में ऐसा समझे कि ‘मैं इसका पुत्र हूँ।’ यदि ऐसा कहे तो काम निकल जाए। कुछ लोग कहते हैं और काम हो भी जाता है
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