दादाश्री : वोट इज़ द डेफिनेशन ऑफ लव?
प्रश्नकर्ता : मुझे पता नहीं। वह समझाइए।
दादाश्री : अरे, मैं ही बचपन से प्रेम की परिभाषा ढूंढ रहा था न! मुझे हुआ, प्रेम क्या होता होगा? ये लोग 'प्रेम-प्रेम' किया करते हैं, वह प्रेम क्या होगा? उसके बाद सभी पुस्तके देखीं, सभी शास्त्र पढ़े, पर प्रेम की परिभाषा किसी जगह पर मिली नहीं। मुझे आश्चर्य लगा कि किसी भी शास्त्र में 'प्रेम क्या है', ऐसी परिभाषा ही नहीं दी?! फिर जब कबीर साहब की पुस्तक पढ़ी, तब दिल ठरा कि प्रेम की परिभाषा तो इन्होंने दी है। वह परिभाषा मुझे काम लगी। वे क्या कहते हैं कि,
'घड़ी चढ़े, घड़ी उतरे, वह तो प्रेम न होय,
अघट प्रेम ही हृदय बसे, प्रेम कहिए सोय।'
उन्होंने परिभाषा दी। मुझे तो बहुत सुंदर लगी थी परिभाषा, 'कहना पड़ेगा कबीर साहब, धन्य है!' यह सबसे सच्चा प्रेम। घड़ी में चढ़े और घड़ी में उतरे वह प्रेम कहलाएगा?!
प्रश्नकर्ता : तो सच्चा प्रेम किसे कहा जाता है?
दादाश्री : सच्चा प्रेम जो चढ़े नहीं, घटे नहीं वह! हमारा ज्ञानियों का प्रेम ऐसा होता है, जो कम-ज़्यादा नहीं होता। ऐसा हमारा सच्चा प्रेम पूरे वर्ल्ड पर होता है। और वह प्रेम तो परमात्मा है।
प्रश्नकर्ता : फिर भी जगत् में कहीं तो प्रेम होगा न?
दादाश्री : किसी जगह पर प्रेम ही नहीं है। प्रेम जैसी वस्तु ही इस जगत् में नहीं है। सभी आसक्ति ही है। उल्टा बोलते हैं न, तब तुरन्त पता चल जाता है।
अभी आज कोई आए थे विलायत से, तो आज तो उनके साथ ही बैठे रहने में अच्छा लगता है। उसके साथ ही खाना-घूमना अच्छा लगता है। और दूसरे दिन वह हमसे कहे, 'नोनसेन्स जैसे हो गए हो।' तो हो गया! और 'ज्ञानी पुरुष' को तो सात बार नोनसेन्स कहें तब भी कहेंगे, 'हाँ भाई, बैठ, तू बैठ।' क्योंकि 'ज्ञानी' खुद जानते हैं कि यह बोलता ही नहीं, यह रिकॉर्ड बोल रही है।
यह सच्चा प्रेम तो कैसा है कि जिसके पीछे द्वेष ही नहीं हो। जहाँ प्रेम में, प्रेम के पीछे द्वेष है, उस प्रेम को प्रेम कहा ही कैसे जाए? एकसा प्रेम होना चाहिए।
Book Name: प्रेम (Page #4 & Page #5 Paragraph #1,#2)
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