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बच्चों को कैसे सँभालें?

प्रश्नकर्ता : दादा, घर में बेटे-बेटियाँ सुनते नहीं हैं, मैं खूब डाँटता हूँ फिर भी कोई असर नहीं होता।

दादाश्री : यह रेलवे के पार्सल पर लेबल लगाया हुआ आपने देखा है? 'ग्लास विद केर', ऐसा होता है न? वैसे घर में भी 'ग्लास विद केर' रखना चाहिए। अब ग्लास हो और उसे आप हथौड़े मारते रहो तो क्या होगा? वैसे, घर के लोगों को काँच की तरह सँभालना चाहिए। आपको उस बंडल पर चाहे जितनी भी चिढ़ चढ़ी हो, फिर भी उसे नीचे फेंकोगे? तुरन्त पढ़ लोगे कि 'ग्लास विद केर'! घर में क्या होता है कि कुछ हुआ तो आप तुरन्त ही बेटी को कहने लग जाते हो, 'क्यों ये पर्स खो डाला? कहाँ गई थी? पर्स किस तरह खो गया?' यह आप हथौड़े मारते रहते हो। यह 'ग्लास विद केर' समझे तो फिर स्वरूपज्ञान नहीं दिया हो, तब भी समझ जाए।

इस जगत् को सुधारने का रास्ता ही प्रेम है। जगत् जिसे प्रेम कहता है वह प्रेम नहीं है, वह तो आसक्ति है। ये बेटी को प्रेम करते हो, पर वह प्याला फोड़े तो प्रेम रहता है? तब तो चिढ़ जाते हैं। मतलब, वह आसक्ति है।

बेटे-बेटियाँ हैं, उनके आपको संरक्षक की तरह, ट्रस्टी की तरह रहना है। उनकी शादी करने की चिंता नहीं करनी होती है। घर में जो हो जाए उसे 'करेक्ट' कहना, 'इन्करेक्ट' कहोगे तो कोई फायदा नहीं होगा। गलत देखनेवाले को संताप होगा। एकलौता बेटा मर गया तो करेक्ट है, ऐसा किसी से नहीं कह सकते। वहाँ तो ऐसा ही कहना पड़े कि, बहुत गलत हो गया। दिखावा करना पड़ेगा। ड्रामेटिक करना पड़ेगा। बाकी अंदर तो करेक्ट ही है, ऐसा करके चलें। प्याला जब तक हाथ में है तब तक प्याला है! फिर गिर पड़े और फूट जाए तो करेक्ट है ऐसा कहना चाहिए। बेटी से कहना कि सँभालकर धीरे से लेना पर अंदर करेक्ट है ऐसे कहना।

क्रोध भरी वाणी न निकले तब फिर सामनेवाले को नहीं लगेगी। मुँह पर बोल दें, केवल वही क्रोध नहीं कहलाता है, अंदर कुढ़े वह भी क्रोध है। यह सहन करना वह तो डबल क्रोध है। सहन करना यानी दबाते रहना, वह तो एक दिन स्प्रिंग की तरह उछलेगा तब पता चलेगा। सहन किसलिए करना है? इसका तो ज्ञान से हल ला देना है। चूहे ने मूछें काटी वह 'देखना' है और 'जानना' है, उसमें रोना किसलिए? यह जगत् देखने-जानने के लिए है।

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