आत्मा पर अज्ञानता के आवरण की वजह से अंधकार छाया हुआ है| जैसे एक मटके में हज़ार वॉट का बल्ब लगाया हो और मटके का मुँह बंद कर दिया हो, तो प्रकाश मिलेगा क्या? नहीं मिलेगा। ऐसा इस मूढ़ात्मा का है। भीतर तो अनंत ज्ञान प्रकाश है, लेकिन आवृत होने से घोर अंधकार है। ज्ञानीपुरुष की कृपा से, उनकी सिद्धि के बल से, मटके में यदि ज़रा सा छेद हो जाए, तो पूरे कमरे में प्रकाश हो जाता है। उतना आवरण टूट जाता है और उतना डायरेक्ट प्रकाश प्राप्त होता है। ज्यों-ज्यों आवरण टूटते जाते हैं, ज्यों-ज्यों अधिक छेद होते जाते हैं, त्यों-त्यों प्रकाश बढ़ता जाता है। और जब पूरा मटका टूट जाता है और बल्ब अनावृत हो जाता है तब संपूर्ण प्रकाश चारों और फैल जाता है। जगमगाहट हो जाती है। उसी तरह, अक्रम विज्ञान में, जब परम पूज्य दादाश्री आत्मज्ञान देते हैं, तो चंद्रमा प्रकट होता है। पहला प्रकाश चंद्र के पखवाड़े में बीज के चंद्रमा की तरह होता है, और यह तब होता है जब पूर्ण ज्ञान दिया जाता है। केवल उतना ही जेसे की "चंद्र के पखवाड़े में बीज के दौरान"। तब हमें इस जीवन में "पूर्णिमा" तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए। फिर बीज, तीसरे में बदल जाएगा, फिर चौथा, फिर पाँचवा और जब यह "पूर्णिमा" पर पहुँच जाएगा, तो यह पूरा हो जाएगा। इस प्रकार सर्वज्ञता (केवलज्ञान) की दशा उत्पन्न हो जाएगी |
प्रज्ञा! ‘ज्ञान’ प्राप्ति के बिना प्रज्ञा की शुरूआत नहीं हो सकती है। या फिर अगर समकित प्राप्त हुआ हो तो प्रज्ञा की शूरूआत होती है। समकित में प्रज्ञा की शुरूआत किस प्रकार होती है? दूज के चंद्रमा जैसी शुरूआत होती है, जबकि अपने यहाँ तो पूर्ण प्रज्ञा उत्पन्न हो जाती है। फुल (पूर्ण) प्रज्ञा यानी वह फिर मोक्ष में ले जाने के लिए ही सावधान करती है।
समझने के बाद ज्ञान में आने में कितनी देर लगती है?
जितना जिसका समझना पक्का, उतना उसका ज्ञान में डेवलपमेन्ट होता जाएगा। वैसा कब होगा उसकी चिंता नहीं करनी है। वह तो अपने आप ही ज्ञान में परिणामित होगा, अपने आप ही छूट जाएगा। इसलिए यहाँ पर समझ-समझ करते रहना। ‘ज्ञान’ ही काम कर रहा है। आपको कुछ भी नहीं करना है। नींद में भी ‘ज्ञान’ काम कर रहा है, जगते हुए भी ‘ज्ञान’ काम कर रहा है और स्वप्न में भी ‘ज्ञान’ काम कर रहा है।
‘दिल्ली किस तरह पहुँचा जाएगा’ इस बात को समझ तो दिल्ली पहुँचा जाएगा। समझ बीजस्वरूप है, और ज्ञान वृक्षस्वरूप है। आपकी तरफ से पानी का छिड़काव और भावनाएँ चाहिए।
वर्तन में नहीं लाना है, समझ में सेट कर लेना है, सच्चा ज्ञान! समझने का फल ही वर्तन है। समझ गया हो, परन्तु वर्तन में नहीं आए तब तक दर्शन कहलाता है और वर्तन में आ गया, वह ज्ञान कहलाता है। ज्ञान की माता कौन? समझ! वैसी समझ कहाँ से मिलेगी? ज्ञानी के पास से। पूर्ण समझ वह केवळदर्शन, और वह वर्तन में आ जाए, वह केवळज्ञान है!
परम पूज्य दादा भगवान कहते है कि, “इस ‘अक्रम विज्ञान’ के माध्यम से आपको भी आत्मानुभव ही प्राप्त हुआ है। लेकिन वह आपको आसानी से प्राप्त हो गया है, इसलिए आपको खुद को लाभ होता है, प्रगति की जा सकती है। विशेष रूप से ‘ज्ञानी’ के परिचय में रहकर समझ लेना है। यह ज्ञान बारीक़ी से समझना पड़ेगा। क्योंकि यह ज्ञान घंटेभर में दिया गया है। कितना बड़ा ज्ञान! जो एक करोड़ साल में नहीं हो सके वही ज्ञान घंटेभर में हो जाता है। मगर बेसिक (बुनियादी) होता है। फिर विस्तार से समझ लेना पड़ेगा न? उसे ब्योरेवार समझने के लिए तो आप मेरे पास बैठकर पूछोगे तब मैं आपको समझाऊँ। इसलिए हम कहा करते हैं न कि सत्संग की बहुत आवश्यकता है। आप ज्यों-ज्यों यहाँ गुत्थी पूछते जाएँ, त्यों-त्यों वे गुत्थी अंदर खुलती जाती है। वे तो जिसे चुभें, उसे पूछ लेना चाहिए।“
जिस तरह एक बीज को बढ़ने के लिए बोने के बाद पानी का छिड़काव करना आवश्यक है, उसी तरह आत्मज्ञान के बाद एक मनुष्य के लिए आध्यात्मिक सत्संग में भाग लेना महत्वपूर्ण है ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर आगे बढ़े जो हमे केवलज्ञान अवस्था की ओर ले जाएगी।
परम पूज्य दादाश्री ने अपनी दृष्टि का खुलासा किया है नीचे दर्शाए हुए अनुसार है:
प्रश्नकर्ता : ज्ञान लेने के बाद भी ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ ऐसा ध्यान में लाना पड़ता है, वह कुछ कठिन है।
दादाश्री : नहीं, ऐसा होना चाहिए। रखना नहीं पड़ेगा अपने आप ही रहेगा। तो उसके लिए क्या करना पड़ेगा? उसके लिए मेरे पास आते रहना पड़ेगा। जो पानी छिड़का जाना चाहिए वह छिड़का नहीं जाता इसलिए इन सब में मुश्किल आती है। आप व्यापार पर ध्यान नहीं दो तो व्यापार का क्या होगा?
प्रश्नकर्ता : डाउन हो जाएगा।
दादाश्री : हाँ, ऐसा ही इसमें भी है। ज्ञान ले आए तो फिर उस पर पानी छिड़कना पड़ेगा, तो पौधा बड़ा होगा। छोटा पौधा होता है न, उस पर भी पानी छिड़कना पड़ता है। तो कभी-कभी महीने दो महीने में ज़रा पानी छिड़कना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : घर पर छिड़कते हैं न।
दादाश्री : नहीं, लेकिन घर पर हो ऐसा नहीं चलेगा।
परम पूज्य दादाश्री हमें ज्ञानविधि की प्रक्रिया के दौरान केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रदान करते हैं। यह केवलदर्शन बरकरार रहता है लेकिन वर्तमान कल चक्र के प्रभाव के कारण हम ३६० डिग्री के केवलज्ञान को पचा पाने में असमर्थ रहते हैं।
जब यह ज्ञान (आत्मज्ञान) हमें प्रदान किया जाता है, तो हम ३०० डिग्री तक पहुँच जाते हैं और जैसे-जैसे यह डिग्री बढ़ती है, वैसे आत्मा का अनुभव बढ़ता जाता है। जब यह ३४५ डिग्री तक पहुँच जाता है तो उस अवस्था को ज्ञानी की अवस्था कहते है । ज्ञानी अवस्था ३५९ डिग्री तक अवशेष रहती है। ३६० डिग्री प्राप्त करते ही, केवलज्ञान की अवस्था में पहुँच जाते हैं और भगवान हो जाते हैं । केवलज्ञानी प्रत्येक जीव मात्र को निर्दोष द्रष्टि से देखते है। उनकी द्रष्टिसे, कोई जीवमात्र भी दुखी नहीं है और कोई सुखी भी नहीं है। सब कुछ नियमित है।
प्रश्नकर्ता : आपको ज्ञान प्रकट होने के बाद ज्ञानप्रकाश उतना ही रहता है या बढ़ता रहता है?
दादाश्री : हमें तो यह ‘अनुभवज्ञान’ है। उसमें दो प्रकार का प्रकाश नहीं होता है। निरंतर एक ही प्रकार का प्रकाश रहता है, हमें आत्मा का स्पष्ट अनुभव है। जब तक आत्मा का स्पष्ट अनुभव नहीं हो जाता, तब तक ज्ञान बढ़ता रहता है। परन्तु स्पष्ट अनुभव हो जाए, तब वह ज्ञान पूरा हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : आध्यात्मिक स्टडी करनेवाला पूर्णता तक पहुँचा, उसका किस तरह पता चले?
दादाश्री : उनकी वाणी वीतराग होती है, बातें वीतराग होती हैं, वर्तन वीतराग होता है। उनकी हरएक बाबत में उनकी वीतरागता होती है। कोई गाली दे तो भी वीतरागता और फूल चढ़ाएँ तो भी वीतरागता होती है। उनकी वाणी स्यादवाद होती है यानि कि किसी धर्म का, किसी जीव का प्रमाण नहीं दुभता (आहत होता)।
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