जलती हुई मोमबत्ती की एक छवि एक कमरे के भीतर अंधेरे को दूर नहीं कर सकती है, लेकिन साक्षात जलती हुई एक मोमबत्ती कर सकती है। इसी तरह, शास्त्रज्ञान आपको आत्मा का वास्तविक अनुभव नहीं दे सकता है; यह केवल आपको समझ दे सकता है। आत्मा का अनुभव करने के लिए आपको आत्मज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है। जब प्रत्यक्ष ज्ञानीपुरुष द्वारा आपको यह ज्ञान आपको दिया जाता है तब आत्मा का अनुभव शुरू हो जाता है। इसके बाद यह आप एक शुद्धआत्मा हो, यह जाग्रति आपको सहज और स्वाभाविक रहेगी। यह तब भी रहेगी जब आप आधी रात को जाग जाते हैं।
कुछ चीजें आपको याद रखने के लिए प्रयास करना पड़ता है जो शरीर के मामले में (पुद्गल) की श्रेणी में आते हैं। आपको आत्मा को याद करने की आवश्यकता नहीं है। जब आपको शुद्धात्मा यह मूल स्वभाव का अनुभव होता हे, तब आपको इसे याद रखने के लिए कोई पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं रहती है।
खुद अनादि काल से विभ्रम में पड़ा हुआ है। आत्मा है स्वभाव में, परंतु विभाव की विभ्रमता हो गई। वह सुषुप्त अवस्था कहलाती है। वह जग जाए, तब उसका लक्ष्य बैठता है हमें। वह ज्ञान से जगता है। ‘ज्ञानी पुरुष’ ज्ञान सहित बुलवाते हैं, इसलिए आत्मा जग जाता है। फिर लक्ष्य नहीं जाता। लक्ष्य बैठा तब अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति रहती है। इस लक्ष्य के साथ प्रतीति रहती ही है। अब अनुभव बढ़ते जाएँगे। पूर्ण अनुभव को केवलज्ञान कहा है।
आत्मा का अनुभव हो गया, यानी देहाध्यास छूट गया। देहाध्यास छूट गया, यानी कर्म बँधना रुक गया। फिर इससे ज़्यादा और क्या चाहिए? पहले चंदूभाई क्या थे और आज चंदूभाई क्या हैं, वह समझ में आता है। तो यह परिवर्तन कैसे? आत्म-अनुभव से। पहले देहाध्यास का अनुभव था और अब यह आत्म-अनुभव है। प्रतीति अर्थात् पूरी मान्यता सौ प्रतिशत बदल गई और ‘मैं शुद्धात्मा ही हूँ’ वही बात पूरी तरह से तय हो गई। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ वह श्रद्धा बैठती है लेकिन वापस उठ जाती है और प्रतीति नहीं ऊठती। श्रद्धा बदल जाती है, लेकिन प्रतीति नहीं बदलती । यह प्रतीति यानी मान लो हमने यहाँ ये लकड़ी रखी अब उस पर बहुत दबाव आए तो ऐसे टेड़ी हो जाएगी लेकिन स्थान नहीं छोड़ेगी। भले ही कितने ही कर्मों का उदय आए, खराब उदय आए लेकिन स्थान नहीं छोड़ेगी। ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ वह गायब नहीं होगा। अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति ये तीनों रहेंगे। प्रतीति सदा के लिए रहेगी। लक्ष्य तो कभी-कभी रहेगा। व्यापार में या किसी काम में लगे कि फिर से लक्ष्य चूक जाएँ और काम खत्म होने पर फिर से लक्ष्य में आ जाएँ। और अनुभव तो कब होगा, कि जब काम से, सबसे निवृत होकर एकांत में बैठे हों तब अनुभव का स्वाद आएगा। यद्यपि अनुभव तो बढ़ता ही रहता है। अनुभव लक्ष्य और प्रतीति। प्रतीति मुख्य है, वह आधार है। वह आधार बनने के बाद लक्ष्य उत्पन्न होता है। उसके बाद ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ वह निरंतर लक्ष्य में रहता ही है और जब आराम से बैठे हों और ज्ञाता-दृष्टा रहें तब वह अनुभव में आता है। जब तक आप केवलज्ञान तक नहीं पहुँच जाते तब तक धीरे-धीरे यह अनुभव में वृद्धि होगी। केवल ज्ञान, पूर्ण अनुभव की दशा है। वर्तमान में आंशिक अनुभव है।
बर्ताव, बिलीफ (मान्यता) और ज्ञान एक दूसरे पर आधारित (डिपेन्डेन्ट) हैं। जैसी बिलीफ होगी, वैसा ज्ञान मिलता है और बर्ताव भी वैसा ही हो जाता है। बर्ताव करना नहीं पड़ता।
मैं 'शुद्धात्मा' हूँ’, यह दर्शन (आत्मद्रष्टि) है । इसका अनुभव है ज्ञान (आत्मा का ज्ञान)। हालाँकि आप जितना यह अनुभव करेंगे, उतनी ही राग और द्वेष से आपको पूर्ण स्वतंत्रता (वीतरागता) प्राप्त होगी, और उतना ही चारित्र प्राप्त होगा। इसलिए, ज्ञान - दर्शन - चरित्र और तप, आपको वास्तव में तप के चौथे स्तंभ के साथ सब कुछ निपटाना होगा, क्या आप यह नहीं करेंगे? जब आंतरिक भाग में क्रोध आता है, तो आपको इसे 'देखना' जारी रखना होगा, और इसे कहा जाता है तप। इसे वास्तव में, अदिठ तप कहा जाता है।
जब ज्ञान और दर्शन, दोनों का संयोजन होता है, तो चारित्र अपने आप उत्पन्न होता जाता है, जबकि तप लगातार अंतर में होता ही रहता है। जब आपकी पसंद के अनुसार कुछ नहीं होता है तब इन्सान को तप करना होता है। तप में भूखे रहने की आवश्यता नहीं है।
नहीं, भीतर बेचैनी और चंचलता होती रहती है। इसमें व्यक्ति बाहर किसी को बोल के दुःख नहीं पहुँचाता लेकिन भीतर चंचलता रहती है, इसे ही अंतर तप (अदिठ तप) कहा जाता है।
जब कोई जबरदस्त तप करता है, तो वह दर्शन (आत्म दर्शन) से ज्ञान (आत्मज्ञान) की ओर बढ़ेगा।
तप होने के बाद ही व्यक्ति आत्म के अनुभव को प्राप्त कर सकता है। अन्यथा आपको अनुभव केसे होगा? अंतर तप का अर्थ यह हे कि आपके भीतर जो भी 'तपता' है, आप उससे अलग रहने की कोशिश करते हैं। और जब आप ऐसा करते हैं, आप निश्चित रूप से उसमे से अनुभव ग्रहण करते हैं।
आप इससे मुक्त हो जाएँगे, और इसका अनुभव वास्तव में आपको आत्मा के अनुभव से होगा। सुख और आत्मा का प्रकाश बढ़ता ही रहेगा, बस यही सब है।
परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, “ हमेशा के लिए टिकता है। एक मिनट, दो मिनट के लिए नहीं। एक मिनट-दो मिनट तो ये सभी चीज़ें हैं ही न, इस दुनिया में। ये खाने-पीने की सब चीज़ें यहाँ पर जीभ पर जितने समय तक रहें, उतने समय तक ही अनुभव टिकता है, फिर चला जाता है। फिर अनुभव रहता है? हम मिठाई खाएँ, तो कितनी देर तक अनुभव टिकता है? और इत्र का फाहा डालें तो? दस-बारह घंटे तक टिकता है और आत्मा तो, एक ही बार अनुभव में आया कि हमेशा के लिए टिकता है। हमेशा के लिए अनुभव रहना चाहिए। नहीं तो इसका अर्थ ही नहीं है न! वह फिर ‘मीनिंगलेस’ बात है। "
आनंद दो प्रकार के हैं : एक, हमें बिज़नेस में खूब रुपये मिल जाएँ, अच्छा सौदा हो जाए, उस घड़ी आनंद होता है। परंतु वह आकुलता-व्याकुलतावाला आनंद, मूर्छित आनंद कहलाता है। बेटे की शादी करे, बेटी की शादी करे, उस घड़ी आनंद होता है, वह भी आकुलता-व्याकुलतावाला आनंद, मूर्छित आनंद कहलाता है, और जब निराकुल आनंद हो, तब समझना कि आत्मा प्राप्त हुआ।
यहाँ सत्संग में जो सारा आनंद होता है, वह निराकुल आनंद है। यहाँ पर आकुलता-व्याकुलता नहीं रहती।आकुलता-व्याकुलतावाले आनंद में क्या होता है कि अंदर झंझट चलता रहता है। यहाँ झंझट बंद रहता है और जगत् विस्मृत रहा करता है। अभी किसी वस्तु को लेकर आनंद आए तो हम समझ जाएँगे कि यह पौद्गलिक आनंद है। और यह तो सहज सुख! अर्थात् निराकुल आनंद। आकुलता-व्याकुलता नहीं। जैसे कि स्थिर हो गए हों, ऐसा हमें लगता है। थोड़ा भी उन्माद नहीं रहता।
गरमी में बैठे हों और हवा आए, और वह भी जब ठंडी लगे तो समझ में आता है कि कहीं बर्फ़ होनी चाहिए, उसी तरह यहाँ (अक्रम विज्ञान) पर आत्मा का अस्पष्ट अनुभव हो जाता हैं। जब से यह वेदन शुरू होता है, तभी से संसार का वेदन बंद हो जाता है। एक ही जगह पर वेदन हो सकता है, दो जगहों पर वेदन नहीं हो सकता। जब से आत्मा का वेदन होना शुरू होता है, वही आत्मा का ‘स्वसंवेदन’ है और वह धीरे-धीरे बढ़कर ‘स्पष्ट’ वेदन तक पहुँचता है!
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