यदि आप सांसारिक जीवन जी रहे हैं और भौतिक चीज़ें आपको आकर्षित करती हैं, तो आप सोंचेगे की आध्यात्मिकता की यात्रा आपके लिए आसान नहीं होगी। लेकिन, यह सत्य नहीं है। आप फिर भी आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं। आपको केवल सांसारिक जीवन जीते हुए आध्यात्मिक कैसे रहें, इस चाबी को जानने की आवश्यकता है।
आत्मा प्राप्त करने के लिए जो कुछ भी किया जाता है, वह मेइन प्रोडक्शन है और उसकी वजह से बाय प्रोडक्ट मिलता है और संसार की सभी ज़रूरतें प्राप्त होती हैं।
एक बार एक मुमुक्षु ने परम पूज्य दादा भगवान से पूछा कि क्या आध्यात्मिकता में सांसारिक इच्छाएँ या भौतिक वस्तुओं की लालसा, बाधक हैं या नहीं। आइए देखें उन्होंने क्या कहा...
प्रश्नकर्ता : भौतिक समृद्धि प्राप्त करने की इच्छा व प्रयत्न आध्यात्मिक विकास में बाधक हैं क्या? अगर बाधक हैं तो कैसे और अगर बाधक नहीं हैं तो कैसे?
दादाश्री : भौतिक समृद्धि प्राप्त करनी हो तो हमें इस दिशा में जाना, आध्यात्मिक समृद्धि प्राप्त करनी हो तो इस दूसरी दिशा में जाना। हमें एक दिशा में जाना है, उसके बजाय हम यों दूसरी दिशा में जाएँ तो बाधक होगा या नहीं?
प्रश्नकर्ता : हाँ, वह बाधक कहलाएगा!
दादाश्री : अर्थात् पूर्णतया बाधक है। आध्यात्मिक यह दिशा है तो भौतिक सामनेवाली दिशा है।
प्रश्नकर्ता : पर भौतिक समृद्धि के बिना चले किस तरह?
दादाश्री : भौतिक समृद्धि इस दुनिया में कोई कर पाया है क्या? सभी लोग भौतिक समृद्धि के पीछे पड़े हैं। हो गई है किसीकी?
प्रश्नकर्ता : थोड़े, कुछ की ही होती है, सभी की नहीं होती।
दादाश्री : मनुष्य के हाथ में सत्ता नहीं है वह। जहाँ सत्ता नहीं है, वहाँ व्यर्थ शोर मचाएँ, उसका अर्थ क्या है? मीनिंगलेस!
प्रश्नकर्ता : जब तक उसकी कोई कामना है, तब तक अध्यात्म में किस तरह जा सकेंगे?
दादाश्री : हाँ, कामना होती है, वह ठीक है। कामना होती है, पर हमारे हाथ में सत्ता नहीं है वह।
प्रश्नकर्ता : वह कामना किस तरह मिटे?
दादाश्री : उसकी कामना के लिए ऐसा सब आता ही है फिर। आपको उसमें बहुत झंझट नहीं करनी है। आध्यात्मिक करते रहो। यह भौतिक समुद्धि तो बाइ प्रोडक्ट है। आप आध्यात्मिक प्रोडक्शन शुरू करो, इस दिशा में जाओ और आध्यात्मिक प्रोडक्शन शुरू करो तो भौतिक समृद्धियाँ, बाइ प्रोडक्ट, आपको फ्री ऑफ कोस्ट मिलेंगी।
प्रश्नकर्ता : अध्यात्म तरह से जाना हो तो, क्या कहना चाहते हो? किस प्रकार जाना?
दादाश्री : नहीं, पर पहले यह समझ में आता है कि अध्यात्म का आप प्रोडक्शन करो तो भौतिक बाय प्रोडक्ट है? ऐसा आपकी समझ में आता है?
प्रश्नकर्ता : ऐसा मानता हूँ कि आप कहते हैं, वह मुझे समझ में नहीं आता है।
दादाश्री : इसलिए मानो तो भी यह सब बाय प्रोडक्ट है। बाय प्रोडक्ट यानी फ्री ऑफ कोस्ट। इस संसार के विनाशी सुख सारे फ्री ऑफ कोस्ट मिले हुए हैं। आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने जाते, रास्ते में यह बाय प्रोडक्शन मिला है।
प्रश्नकर्ता : हमने ऐसे कई लोग देखे हैं कि जो अध्यात्म में जाते नहीं हैं, पर भौतिक रूप से बहुत समृद्ध हैं और उसमें वे सुखी हैं।
दादाश्री : हाँ, वे अध्यात्म में जाते नज़र नहीं आते, मगर उसने जो अध्यात्म किया था, उसका फल है यह।
प्रश्नकर्ता : यानी इस जन्म में अध्यात्म करे, तो अगले जन्म में भौतिक सुख मिलेगा?
दादाश्री : हाँ, उसका फल अगले भव में मिलेगा आपको। फल दिखता है आज और आज अध्यात्म में नहीं भी हों।
इस बातचीत से हमें यह पता चलता है कि प्रत्येक जीव निरंतर आध्यात्मिक विकास कर रहा है। लेकिन कैसे? आइए समझते हैं…
जब हम इस संसार में अपनी यात्रा आरंभ करते हैं, तो आत्मा पूरी तरह से कर्म के परमाणुओं से आवरण में होता है। यही आवरण आत्मा की अजागृति या अज्ञानता के लिए ज़िम्मेदार हैं। जैसे ही यह आवरण थोड़ा-थोड़ा टूटता है, आत्मा का प्रकाश वहाँ से बहार निकलता है और जीव एक इन्द्रिय जीव में विकास के स्टेज में आगे बढ़ता है, जहाँ से स्पर्श की इन्द्रिय शुरू होती है। इस प्रकार वह आत्मा एक इन्द्रिय जीव का शरीर धारण करता है।
कई जन्मों के बाद, जब आत्मा के कुछ और आवरण टूट जाते हैं, तो वह दो इन्द्रिय जीव में विकसित होता है। आगे, कई जन्मों के बाद, एक और इन्द्रिय प्रकट होती है और वह तीन इन्द्रिय जीव में विकसित होता है। इसी तरह विकास होता है। गाय और चिंपैंजी जैसे पांच इंद्रिय जीवों में मन थोड़ा विकसित होता है। जब आत्मा मानव शरीर धारण करता है; तब धीरे धीरे मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और जागृति के साथ-साथ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष का भी विकास होता है।
कई जन्मों के बाद, जब आत्मा के कुछ और आवरण टूट जाते हैं, तो वह दो इन्द्रिय जीव में विकसित होता है। आगे, कई जन्मों के बाद, एक और इन्द्रिय प्रकट होती है और वह तीन इन्द्रिय जीव में विकसित होता है। इसी तरह विकास होता है। गाय और चिंपैंजी जैसे पांच इंद्रिय जीवों में मन थोड़ा विकसित होता है। जब आत्मा मानव शरीर धारण करता है; तब धीरे धीरे मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और जागृति के साथ-साथ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष का भी विकास होता है।
पाँच इन्द्रियों और मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के माध्यम से हमें सांसारिक सुखों का अनुभव होता है। यह कई जन्मों तक चलता रहता है, और अंत में, हमें यह अनुभव होता है कि इस भौतिक संसार में कोई कायमी सुख नहीं है; सभी भौतिक सुख नाशवंत हैं और भौतिक वस्तुएँ भी नाशवंत हैं - यह मात्र क्षणिक सुख ही देती हैं।
यह होता है तब व्यक्ति कायमी सुख ढूँढ़ने लगता है।
व्यक्ति ऐसी जगह को ढूँढ़ने का प्रयास करता है जहाँ उसे कायमी सुख मिल सके। यह सुख केवल अध्यात्म ही दे सकता है। यही कारण है कि व्यक्ति सांसारिक जीवन में आध्यात्मिक कैसे रहा जाए यह ढूँढ़ना शुरू करता है।
आत्मा शाश्वत है और अनंत सुख का धाम है! जब व्यक्ति को यह अनभुव हो जाता है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' तो वह शाश्वत सुख का स्वाद चख लेता है। इसके बाद, वह जितना अधिक शुद्धात्मा की जागृति में रहता है, उसे किसी भौतिक वस्तु के प्रति आकर्षण या द्वेष उत्पन्न नहीं होता।
यह जागृति नए कर्म चार्ज करना भी रोक देती है। तो, धीरे-धीरे, पुराने कर्म एक के बाद एक फल देकर पूरे हो जाते हैं। परिणामस्वरूप, आत्मा एक ऐसी स्थिति में आ जाता है जहाँ वह सभी आवरणों से मुक्त हो जाता है।
जब आत्मा पर अज्ञान या कर्म का कोई भी आवरण नहीं रहता, तो वह शाश्वत सुख का अनुभव करता है और जन्म और मृत्यु के चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाता है!!
इसलिए, ऐसी स्थिति तक पहुँचाना आवश्यक है, जहाँ हम अपने अनुभवों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी भौतिक चीज़ें नाशवंत हैं और इसलिए उनसे प्राप्त होते सांसारिक सुख भी नाशवंत हैं।
इसलिए, सांसारिक जीवन जीते हुए भी आध्यात्मिक मार्ग पर चलने में ही समझदारी है। सांसारिक जीवन जीते और सांसारिक इच्छाएँ रखते हुए आध्यात्मिक कैसे बनें, इसकी शुरुआत करने के लिए, हमें पूरे दिल से प्रार्थना करनी चाहिए, “हे भगवान! इस जगत् के भौतिक सुखों में से मेरी इच्छाएँ खत्म हो जाएँ ऐसा कीजिए।”
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