प्रश्नकर्ता: अनाहत नाद अर्थात् क्या?
दादाश्री: शरीर के किसी भी भाग का नाद पकड़ लेते हैं, वह हार्ट के पास, कोहनी के पास, कलाई के पास नाद आता है, उस नाद के आधार पर एकाग्रता हो जाती है और उसमें से आगे बढ़ते हैं। वह किस प्रकार का स्टेशन है वह भी समझ में नहीं आता। बहुत प्रकार के स्टेशन हैं, लेकिन उनसे आत्मा नहीं मिलता। वह मार्ग आत्मप्राप्ति वाला मोक्ष मार्ग नहीं है। वह ध्येय नहीं है, लेकिन रास्ते में आनेवाले स्टेशन हैं, केन्टीनें हैं। यदि आत्मा बन गया है, ब्रह्म बन गया है, तो फिर ब्रह्मनिष्ठ बनना है और तभी काम पूरा होगा, वर्ना यदि महाराज खुद ही ब्रह्मनिष्ठ नहीं बने होंगे, वे ही जगत्निष्ठा में होंगे, तो अपना क्या भला होगा?
ब्रह्म तो है ही सभी में लेकिन उन्हें जगत्निष्ठा है। अभी जगत् के लोगों की निष्ठा जगत् में है। जगत् के सभी सुखों को भोगने की निष्ठा है। लेकिन ‘ज्ञानीपुरुष’ उस पूरी निष्ठा को उठाकर ब्रह्म में बैठा देते हैं इसलिए जगत् निष्ठा फ्रेक्चर हो जाती है और तभी अंतिम स्टेशन आता है और फिर सभी जगह आराम से घूमता है। इन बीच के स्टेशनों पर बैठने से कुछ नहीं होगा, उससे तो एक भी अवगुण नहीं जाएगा। अवगुण किस तरह जाएगा? उनमें मैं ही हूँ, ऐसा रहता है न ! वेदांत ने भी कहा है कि, ‘आत्मज्ञान के बिना कुछ भी नहीं हो सकता।’
यह अनाहत नाद क्या सूचित करता है? वह तो पौद्गलिक है। उसमें आत्मा का क्या भला हुआ? वह नहीं है आत्मा। आत्मा का अनाहत नाद होगा या आत्मा का आनुषंगिक होगा तो कोई परेशान नहीं करेगा। लेकिन यदि पूरण-गलन की वंशावली होगी तो परेशान करेगी। आत्मा और आत्मा के आनुषंगिक में कोई अवरोध डाल सके, ऐसा नहीं है, लेकिन अगरपूरण-गलनकी वंशावली होगी तो विघ्न डाले बिना रहेंगे ही नहीं। तो फिर क्या, उसे पहचानना नहीं पड़ेगा कि वह वंशावली किसकी है?
फिर भी जिसे इसमें पड़ना हो उसे हम नहीं हिलाते, उसका जो भी स्टेशन है, वह ठीक है। जब तक उसे यह आत्मज्ञान नहीं मिलता, तब तक वह अवलंबन ठीक है।
1) अनाहत नाद, कुंडलिनी, वे सब चित्त चमत्कार हैं और पौद्गलिक हैं। कुछ कहते हैं कि, ‘मुझे भीतर कृष्ण भगवान दिखते हैं।’ वह आत्मा नहीं है, वह तो चित्त चमत्कार है। उस कृष्ण को देखनेवाला आत्मा है। अंत में दृष्टि दृष्टा में डालनी है। यह तो दृष्टि दृश्य में डालते हैं।’
2) निर्विकल्प अर्थात् विकल्परहित दशा और निर्विचार अर्थात् विचार रहित दशा! ज्ञानी के अलावा निर्विकल्प दशा देखने को ही नहीं मिलती कहीं भी!
3) कोई सांसारिक दुःख हमें छू ना पाए, वही स्वयं को पहचानने की सच्ची परिभाषा है।
Book Name: आप्तवाणी 2 (Page #290 - Paragraph #3 to #6, Page #291 - Paragraph #1 & #2)
Q. ध्यान कितने प्रकार के होते हैं?
A. चार प्रकार के ध्यान होते हैं, उनमें से मनुष्य निरंतर किसी एक ध्यान में रहते ही हैं। आपको यहाँ पर... Read More
Q. क्या ध्यान करते वक्त कर्म बंधता है?
A. आचार्य महाराज प्रतिक्रमण करते हैं, सामायिक करते हैं, व्याख्यान देते हैं, प्रवचन देते हैं, पर वह तो... Read More
Q. हमारे वर्तमान और पूर्वकर्म किस तरह ध्यान पर आधारित होते हैं?
A. प्रश्नकर्ता: अभी जो भोगते हैं उसमें आपका कहना है कि आयोजन है। उनमें क्रियमाण भी होते हैं और संचित... Read More
Q. तप करते समय भगवान पार्श्वनाथ के ध्यान की स्थिति क्या थी?
A. इनको कैसे पहुँच पाएँगे? इन पर तो यदि बंदूकें चलाएँगे तो गोलियाँ व्यर्थ जाएँगी ऐसा है! ऊपर से बैर... Read More
Q. ध्यान और धर्म में क्या अंतर है और सच्चा धर्म किसे कहते हैं?
A. धर्म किसे कहते हैं? जो धर्म के रूप में परिणामित हो, वह धर्म। यानी कि अंदर परिणामित होकर कषाय भावों... Read More
Q. कुण्डलिनी जागरण से क्या आत्म–साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं?
A. सभी कुछ रिलेटिव (लौकिक) है अर्थात् ऑर्नामेन्टल है। मन को स्थिर करता है, लेकिन अंदर प्रगति नहीं हो... Read More
Q. सद्गुरु किस प्रकार का ध्यान करवाते है?
A. यह तो, लोग 'गुरु' को समझे ही नहीं हैं। हिन्दुस्तान के लोग गुरु को समझे ही नहीं कि गुरु किसे कहा... Read More
Q. समाधि अर्थात क्या? निर्विकल्प समाधि कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
A. प्रश्नकर्ता: दादा, मुझे चार-चार घंटों तक समाधि रहती है। दादाश्री: जब समाधि रहती है तब तो रहती है,... Read More
subscribe your email for our latest news and events