प्रश्नकर्ता: दादा, मुझे चार-चार घंटों तक समाधि रहती है।
दादाश्री: जब समाधि रहती है तब तो रहती है, वह ठीक है, लेकिन फिर क्या वह थोड़ी-बहुत चली जाती है?
प्रश्नकर्ता: वह तो चली ही जाती है न!
दादाश्री: तो वह टेम्परेरी समाधि कहलाएगी या परमानेन्ट?
प्रश्नकर्ता: वह तो टेम्परेरी ही कहलाएगी न!
दादाश्री: इस जगत् में जो चल रही है वह सब टेम्परेरी समाधि है, जड़ समाधि है। समाधि तो निष्क्लेश और हमेशा के लिए रहनी चाहिए। ये सभी तो टेम्परेरी समाधि करते हैं। आप समाधि का मतलब क्या समझे हो?
प्रश्नकर्ता: उसमें मन एक जगह कुछ समय तक टिकाकर रखना हो तो रखा जा सकता है।
दादाश्री: लेकिन उससे लाभ क्या है? प्राणों को कंट्रोल किया हो तो लाभ होता है, लेकिन स्थायी ठंडक हो जाती है? यह तो अँगीठी के पास बैठे उतने समय तक ठंड उड़ती है, फिर वही की वही ठंड! सिगड़ी तो स्थायी चाहिए, ऐसी कि जिससे कभी भी ठंड नहीं लगे। समाधि तो अलग ही चीज़ है। हाथ से यदि पंखा करना हो तो उससे ठंडक लगती है लेकिन हाथ दुखते हैं, ऐसी हेन्डल समाधि किस काम की? यदि नाक दबाने से समाधि हो जाती तो बच्चे को भी नाक दबाने से समाधि हो जाएगी। तो ज़रा छोटे बच्चे का नाक दबाकर देखना, वह क्या करेगा? तुरंत ही चिढ़कर काट खाएगा। यह क्या सूचित करता है कि इससे तो कष्ट होता है, ऐसी कष्ट-साध्य समाधि किस काम की? समाधि तो सहज होनी चाहिए। उठते, बैठते, खाते-पीते समाधि रहे, वह सहज समाधि है। अभी तो मैं आपके साथ बात कर रहा हूँ, और नाक तो दबाई नहीं है, तो फिर मुझे समाधि होगी न? मैं निरंतर समाधि में ही रहता हूँ और कोई गालियाँ दें तो भी हमारी समाधि नहीं जाती। ये नाक दबाकर जो समाधि करने जाते हैं, उसे तो हठयोग कहते हैं। हठयोग से कहीं समाधि हो पाती होगी? गुरु का यह फोटो यदि किसी ने उठा लिया हो तो भी उसे भीतर क्लेश हो जाता है। समाधि तो निष्क्लेश होनी चाहिए और वह भी फिर निरंतर, उतरे नहीं उसका नाम समाधि और उतर जाए उसका नाम उपाधि! छाया में बैठने के बाद धूप में आए तब बेचैनी होती है, यों! आधि, व्याधि और उपाधि में भी समाधि रहे, उसका नाम समाधि! समाधि तो परमानेन्ट ही होनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता: समाधि परमानेन्ट हो सकती है, ऐसा तो मैं जानता ही नहीं था!
दादाश्री: पूरे जगत् को बंद आँखों से समाधि रहती है, वह भी सब को रहे या न भी रहे, जबकि यहाँ अपने को खुली आँखों से समाधि रहती है! खाते, पीते, गाते, देखते हुए सहज समाधि रहती है! आँखों पर पट्टी बाँधकर तो बैल को भी समाधि रहती है, वह तो कृत्रिम है और अपने को तो खुली आँखों से भगवान दिखते हैं। रास्ते पर चलते-फिरते भगवान दिखते हैं। बंद आँखों से तो सभी समाधि करते हैं, लेकिन यथार्थ समाधि तो खुली आँखों से रहनी चाहिए। आँखें बंद करने के लिए नहीं हैं। आँखें तो सब देखने के लिए हैं, भगवान जिनमें हैं उनमें यदि देखना आ जाए तो! असल में तो जैसा है वैसा देख, जैसा है वैसा सुन, जैसा है वैसा चल, इसके बावजूद भी समाधि रहे, ऐसी है दादा की समाधि। और बंद आँखों की समाधि के लिए तो जगह ढूँढनी पड़ती है। यहाँ एकांत नहीं है, तो दुनिया में कहाँ जाएगा? यहाँ तो बेहद बस्ती है। भीड़ में एकांत ढूँढना आ जाए, उसे ज्ञान कहते हैं। गाड़ी में चारों तरफ से भीड़ में दब रहा हो, तब मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार चुप रहेंगे, तब जितना चाहिए उतना एकांत लो। यथार्थ एकांत तो सचमुच की भीड़ में ही मिले, वैसा है! भीड़ में एकांत, वही यथार्थ एकांत है!
साधु समाधि लगाते हैं, हिमालय में जाकर पूर्वाश्रम छोड़कर कहेंगे कि, ‘मैं फलाना नहीं, मैं साधु नहीं, मैं यह नहीं,’ उससे थोड़ा सुख बरतता है, लेकिन वह निर्विकल्प समाधि नहीं कहलाती। क्योंकि वह समझदारीपूर्वक भीतर नहीं उतरा।
प्रश्नकर्ता: एक व्यक्ति को खड़े-खड़े समाधि लग जाती है वह मैंने देखा है, हम आवाज़ लगाएँ तो भी वह नहीं सुन पाता।
दादाश्री: उसे समाधि नहीं कहते, वह तो अभानावस्था कहलाती है। समाधि किसे कहते हैं? सहज समाधि को, उसमें पाँचों इन्द्रियाँ जागृत रहती हैं। देह को स्पर्श हो तो भी पता चलता है। इस देह का भान नहीं रहता वह समाधि नहीं कहलाती, वह तो कष्ट कहलाता है। कष्ट उठाकर समाधि लगाए उसे समाधि नहीं कहते। समाधिवाला तो संपूर्ण जागृत होता है!
दुनिया के महात्माओं ने निर्विकल्प समाधि किसे माना है? चित्त के चमत्कार को। देह बेसुध हो जाती है और मानते हैं कि मेरा इन्द्रियज्ञान खत्म हो गया, लेकिन अतीन्द्रिय ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए बीच में निरीन्द्रिय चमत्कार में भटकता है! किसी को चित्त चमत्कार दिखता है, किसी को उजाला दिखता है, लेकिन वह सच्ची समाधि नहीं है, वह तो निरीन्द्रिय समाधि है। देह का भान चला जाए, तो वह समाधि नहीं है। निर्विकल्प समाधि में तो देह का और अधिक सतर्क भान होता है। देह का ही भान चला जाए तो उसे निर्विकल्प समाधि कैसे कहेंगे?
प्रश्नकर्ता: निर्विकल्प समाधि यानी क्या?
दादाश्री: ‘मैं चंदूलाल*’ वह विकल्प समाधि। यह सब देखता है वह भी विकल्प समाधि। यह बालक अगर कुछ फोड़ दे, तब अंदर में विकल्प समाधि टूट जाती है।
प्रश्नकर्ता: संकल्प-विकल्प यानी क्या?
दादाश्री: विकल्प यानी ‘मैं’ और संकल्प यानी ‘मेरा’। खुद कल्पतरु है, जैसे कल्पना करे वैसा बन जाता है। विकल्प करे, तब विकल्पी बन जाता है। मैं और मेरा करता रहता है वह विकल्प और संकल्प है। जब तक स्वरूप का भान नहीं हो जाता, तब तक विकल्प नहीं टूटता और निर्विकल्प हुआ नहीं जाता। ‘मैंने यह त्याग किया, मैंने इतने शास्त्र पढ़े, यह पढ़ा, भक्ति की, वह किया,’ वे सभी विकल्प हैं, अंत तक वे विकल्प खड़े ही रहते हैं और ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ ऐसा नहीं बोला जा सकता, ‘मैं चंदूलाल* हूँ, मैं महाराज हूँ, मैं साधु हूँ’ वह भान बरतता है लेकिन ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’ वह भान नहीं हुआ तो ‘मैं शुद्धात्मा हूँ,’ कैसे बोला जा सकता है? और तब तक निर्विकल्प समाधि कैसे उत्पन्न होगी? यह तो ऊपर से शब्द उतर आया है, बस इतना ही! सिर्फ वीतराग और उनके अनुयायी ही निर्विकल्प समाधि में थे और वे तो सभी जानते थे, सीधा जानते थे और आड़ा भी जानते थे! फूल चढ़ते उसे भी जानते थे और पत्थर चढ़ते उसे भी जानते थे, यदि जानते नहीं तो वीतराग कैसे कहलाते? पर ये लोग तो देह का भान गया और ‘हम निर्विकल्प समाधि में हैं’ ऐसा समझ बैठे हैं! सोते समय भी देह का भान चला जाता है, तो फिर उसे भी निर्विकल्प समाधि ही कहा जाएगा न? समाधिवाले को जगते हुए देह का भान चला जाता है और चित्त के चमत्कार दिखते हैं, उजाले दिखते हैं, बस इतना ही। लेकिन यह नहीं है अंतिम दशा, इसे अंतिम दशा मान लेना भयंकर गुनाह है! आत्मा का भान तो रहना ही चाहिए और इसका (पुद्गल का) भी संपूर्ण भान रहना चाहिए। उसे निर्विकल्प समाधि कहा गया है, नहीं तो वीतरागों को केवलज्ञान में कुछ भी दिखता ही नहीं न?
*चंदूलाल = जब भी दादाश्री 'चंदूलाल ' या फिर किसी व्यक्ति के नाम का प्रयोग करते हैं, तब वाचक, यथार्थ समझ के लिए, अपने नाम को वहाँ पर डाल दें।
Book Excerpt: आप्तवाणी 2 (Page #296 - Paragraph #2 to #9, Entire Page #297 & #298, Page #299 - Paragraph #1 to #3)
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