मृत्यु जीवन का एक सत्य है, एक अनिवार्य हक़ीक़त है। हम सभी इस हक़ीक़त को जानते हैं, फिर भी मृत्यु के नाम से ही भय की एक कंपकंपी महसूस होती है। अपनी मृत्यु नज़दीक है ऐसा पता चलते ही लंबा जीने की आशा फिर से जाग उठती है। जब किसी करीबी प्रियजन की मृत्यु हो जाती है तब भावनाओं का एक तूफ़ान उमड़ पड़ता है। माता-पिता जिन्होंने हमें नया जीवन दिया, जब उनमें से किसी एक की मृत्यु हो जाए, मित्र से भी ज़्यादा प्यारे भाई या बहन की मृत्यु हो जाए, जीवन में सहारे जैसे पति या पत्नी में से किसी एक की मृत्यु हो जाए या ऐसी संतान जिसने अभी पूरी दुनिया देखी भी नहीं उसकी अकाल मृत्यु हो जाए तब जीवन में ऐसा खालीपन लगता है जिसे कोई भर नहीं सकता। अपने ही अस्तित्व का एक अंग मानो कुदरत ने छीन लिया हो ऐसी व्यथा, फरियाद और दुःख हमें घेर लेते हैं और जीवन की क्षणभंगुरता को लेकर मन में कई सवाल खड़े होते हैं। इनमें से एक प्रश्न 'मृत्यु क्या है?' यह लगातार दिल में उलझन खड़ी करता है।
भौतिक विज्ञान के अनुसार, शरीर के मुख्य अंग जैसे कि हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े आदि के बंद होने की अवस्था को मृत्यु कहते हैं। लौकिक मान्यता के अनुसार मृत्यु यानी भगवान के घर जाना। बचपन में बच्चों को कहा जाता है कि मृत्यु पाने वाला आकाश में तारा बन जाता है। सामाजिक दृष्टि से मृत्यु एक बहुत ही दुःखद घटना है, जिसमें परिवार के सदस्य सफ़ेद या काले कपड़े पहनकर शोक व्यक्त करते हैं। कुछ धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब शरीर में से आत्मा निकल जाता है तब मृत्यु होती है और अपने-अपने धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार मृतदेह को या तो अग्निदाह दिया जाता है या ज़मीन में दफ़नाया जाता है।
मृत्यु के बाद होने वाली प्रक्रियाओं और रीति-रिवाजों को तो हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में मृत्यु क्या है इसकी सही समझ कहीं भी नहीं मिलती। जब एकलौता बेटा गुज़र जाए तब ऐसा कहें कि “भगवान ने मेरा बेटा ले लिया” तो भगवान को ही खूनी ठहराना नहीं कहा जाएगा? भगवान किस लिए लोगों को अपने घर इकट्ठा करेंगे? अगर आकाश में तारा बन जाएँ तो तारों की संख्या कई गुना बढ़ नहीं जाएगी? इसलिए मृत्यु के बारे में ऐसी यथार्थ समझ की ज़रूरत है, जिससे स्वजन की मृत्यु के बाद जो दुःख का अनुभव होता है उसमें चैन मिल सके; अपनी या दूसरों की मृत्यु के समय लगने वाले भय को दूर किया जा सके। अक्रम विज्ञान के माध्यम से, परम पूज्य दादाश्री ने मृत्यु के बारे में ऐसी स्पष्ट वैज्ञानिक समझ दी है, जिसे जानने से मृत्यु का दुःख और भय तो दूर होते ही हैं, बल्कि मृत्यु एक महोत्सव बन जाती है!
हरएक चीज़ का आरंभ उसके अंत के साथ ही होता है। सूर्य का उदय होता है तो अस्त भी होता ही है। वसंत में नए पत्ते की कोपल फूटती है और पतझड़ में पूरा पत्ता गिर जाता है। स्कूल में पढ़ने गए तो उसकी शुरुआत हुई और पढ़ाई पूरी हुई इसलिए उसका अंत आ गया। नई शर्ट सिलवाई इसलिए शर्ट का जन्म हुआ और वह घिसकर फट गई वह उसकी मृत्यु हुई। इस प्रकार जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी हुई है। जहाँ जन्म होता है वहाँ मृत्यु अवश्य होती ही है!
मृत्यु मतलब अस्तित्व का अंत नहीं बल्कि दो अस्तित्व के बीच की संध्या है। जिस तरह दो दिनों के बीच रात है, उसी तरह दो जीवन के बीच मृत्यु है। जिस तरह देह के कपड़े बदलते हैं, उसी तरह आत्मा के ऊपर यह देह बदलती है। इसलिए यह देह टेम्परेरी है, विनाशी है और जो टेम्परेरी है उसकी मृत्यु होती है। जबकि आत्मा तो परमानेन्ट है, अविनाशी है, शाश्वत है। आत्मा की मृत्यु होती ही नहीं, आत्मा अजन्म-अमर है! अंतिम संस्कार के समय देह नष्ट होकर पंचतत्त्व में विलीन हो जाती है और आत्मा नई देह धारण करता है।
अगर हमारा प्रिय स्वजन पुराने कपड़े बदलकर नए कपड़े पहने तो हमें कोई दुःख होता है? नहीं होता। क्योंकि हमें ध्यान में रहता है कि कपड़े बदल रहे हैं, व्यक्ति नहीं बदलता। ऐसी ही दृष्टि अगर आत्मा के लिए रहे कि आत्मा सिर्फ़ शरीर बदल रहा है, पर खुद तो कायम रहता ही है! तो दुःख नहीं होगा। जला दी वह तो देह है, लेकिन आत्मा अभी दूसरी देह में कहीं जन्म ले चुका है।
तो फिर देह की मृत्यु होने का आधार क्या है? कर्म!
वास्तव में, मनुष्य कितने साल जियेगा यह कर्म के हिसाब के ऊपर आधारित है। कर्म की शुरुआत होना मतलब जन्म और एक-एक करके सभी कर्म पूरे होते होते शरीर में से आत्मा छूट जाता है, वह मृत्यु! एक अवतार कर्मों का जो हिसाब बांधा था वो पूरा हो जाए तो मृत्यु हो जाती है।
आयुष्य भी एक कर्म है। इसे मोमबत्ती के उदाहरण से समझते हैं। हम मोमबत्ती को उसके धागे से जलाते हैं। यह धागा मोम को जलाता है। जहाँ तक थोड़ा सा भी धागा बाकी है या मोम जल रहा है वहाँ तक ही मोमबत्ती रोशनी दे सकती है। जैसे-जैसे मोमबत्ती रोशनी देती जाती है वैसे-वैसे उसका अस्तित्व घटता जाता है और अंत में मोमबत्ती जलकर खत्म जाती है। दूसरे शब्दों में, जब मोमबत्ती का आयुष्य पूरा हो जाता है तब वह बुझ जाती है। जैसे मोमबत्ती धागा, मोम, प्रकाश और आयुष्य इन चार वस्तुओं के आधार पर जलती है, उसी तरह से मनुष्य की देह भी कर्मों के आधार पर जीती है। जिस तरह मोमबत्ती को एक बार जलाने के बाद वह अपने आप कुदरती रूप से जलती ही रहती है, वैसे ही मनुष्य जन्म ले तब से ही बिना कुछ किए ही उसके कर्म पूरे होते रहते हैं। जैसे मोमबत्ती जलते-जलते अपने आप पूरी हो जाती है, उसी तरह आयुष्य कर्म पूरा होकर देह भी खत्म हो जाती है।
कर्म की शुरुआत होना मतलब जन्म, और एक-एक करके सभी कर्म पूरे होते-होते शरीर में से आत्मा छूट जाए, वह मृत्यु!
मृत्यु अपने कर्म का ही फल है और जैसे हम देखते हैं कि किसी बीमारी, व्यक्ति, घटना या संयोग के निमित्त से वह कर्म पूरा होता है। अगर यह समझ हाज़िर रहे तो फिर जिस भी निमित्त से आयुष्य कर्म पूरा हो वह निमित्त या संयोग गुनहगार नहीं दिखता।
मृत्यु का आधार कर्म के ऊपर है, इसीलिए मृत्यु के ऊपर किसी का अंकुश नहीं है। कभी कोई छोटे बच्चे की जन्म के कुछ ही दिनों में मृत्यु हो जाती है। जबकि कितने ही बुज़ुर्ग सौ सालों से भी लंबा आयुष्य भोगते हैं। कभी-कभी एक्सिडेंट में या हार्ट अटैक आने से अचानक मृत्यु हो जाती है, तो कभी-कभी सालों तक कैंसर से पीड़ा सहते सहते मृत्यु होती है। जब वासुदेव श्रीकृष्ण भगवान के पैर में तीर लगा तब वे भी उनकी मृत्यु को रोक नहीं पाए थे। जीसस क्राइस्ट ने भी सूली पर चढ़कर मृत्यु को गले लगाया था। भगवान महावीर भी इतने समर्थ तीर्थंकर होने के बावजूद अपने मृत्युकाल में राई जितना भी बदलाव नहीं कर सके।
मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन यह जीवन किस तरह से जीना है यह तो हमारे हाथ में है न! इसलिए जब तक हम जी रहे हैं, हमारे प्रिय स्वजन जी रहे हैं, तब तक इस जीवन के एक-एक क्षण को जी लें और इस मनुष्य जीवन को सार्थक बनाएँ।
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Q. क्या यह सच है कि कोई व्यक्ति मनुष्य योनि में से जानवर योनि में जा सकता है?
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