देखने जाएँ तो मृत्यु के अनेक कारण हो सकते हैं। किसी को बीमारी के कारण मृत्यु आती है, तो किसी को एक्सिडेंट के कारण, किसी की कुदरती आपदा के कारण मृत्यु होती है, तो कोई स्वयं ही अपने जीवन को समाप्त करके मृत्यु पाता हैं। लेकिन, इन दिखने वाले कारणों के पीछे ना दिखने वाले ऐसे कौन से कारण हैं, जो मृत्यु के लिए ज़िम्मेदार हैं? चलिए समझते हैं।
इस शरीर की तुलना हम चार्ज की हुई बैटरी से कर सकते हैं। हम पावर प्लग में चार्जर लगाकर फोन की बैटरी को फुल चार्ज करते हैं। बाद में जब चार्जर में से फोन को निकाल देते हैं तब पूरा दिन फोन की बैटरी इस्तेमाल होते होते डिस्चार्ज हो जाती है। इसी तरह, जब मनुष्य का जन्म होता है तब पूर्व में चार्ज की गई तीनों बैटरियों का डिस्चार्ज होना शुरू हो जाता है: 1) मनरूपी बैटरी 2) वाणीरूपी बैटरी और 3) कायारूपी बैटरी। गर्भ से ही मन-वचन-काया की ये तीनों बैटरियाँ अंत में डिस्चार्ज हो जाती हैं। फिर जैसे फोन की पूरी बैटरी इस्तेमाल हो जाती है तब हम फोन ‘डेड’ हो गया ऐसा कहते हैं। इसी तरह जब मन-वचन-काया की तीनों बैटरियाँ इस्तेमाल होकर समाप्त हो जाती हैं उसे 'मृत्यु' कहते हैं।
जब हम फोन को चार्ज करते हुए फोन का इस्तेमाल करते हैं तब एक तरफ़ बैटरी चार्ज होती है और साथ-साथ दूसरी तरफ़ डिस्चार्ज भी होती है। इसी तरह, मन-वचन-काया की तीनों बैटरियाँ डिस्चार्ज होते वक़्त अगले जन्म की तीनों बैटरियाँ चार्ज भी होती रहती हैं। मृत्यु के बाद चार्ज की हुई बैटरी से नया जन्म होता है और फिर से डिस्चार्ज होते होते खत्म हो जाती है तब मृत्यु होती है। इस तरह चार्ज-डिस्चार्ज की, जन्म-मरण की साइकल चलती ही रहती है।
पहले के समय में मैकेनिकल चाबी वाली गुड़िया आती थी। इस खिलौने वाली गुड़िया में, एक बार चाबी घुमाएँ, तो गुड़िया एक फुट की दूरी तक चलकर रुक जाए। तीन बार चाबी घुमाएँ तो गुड़िया तीन फुट तक चलकर रुक जाए। जैसी चाबी दी हो वैसा डिस्चार्ज होता है। ठीक इसी तरह, इस देह में जितने और जिस प्रकार से कर्म चार्ज किए होंगे, उसी तरह से डिस्चार्ज होकर यह देह रूपी गुड़िया भी गिर जाएगी।
आयुष्य एक कर्म है। हम मोमबत्ती के उदाहरण से समझ सकते हैं कि जब तक मोमबत्ती का धागा और मोम जल रहे हैं, तब तक मोमबत्ती का आयुष्य है और वह रोशनी देती है। ऐसा कह सकते हैं कि जब मोमबत्ती बनती है तब से ही मोम, धागा, उसके जलने का समय यानी आयुष्य और उसके परिणाम स्वरूप निकलने वाली रोशनी वह लेकर ही आती है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी पूर्व कर्म का स्टॉक यानी संचित कर्म लेकर ही आता है। संचित कर्म (द्रव्य कर्म) में नाम, रूप, गोत्र और आयुष्य रूपी कर्मों का समावेश होता है, जिसके आधार पर मनुष्य को कैसी देह मिलेगी, कहाँ जन्म होगा, जीवन में कितना यश-अपयश मिलेगा और वह कितना आयुष्य भोगेगा यह निर्धारित होता है। जैसे-जैसे वे कर्म उदय में आते हैं, वैसे-वैसे आयुष्य भी खर्च होता जाता है। जब कर्म पूरे हो जाते हैं, तब साँसें भी कम पड़ने लगती हैं और मृत्यु हो जाती है।
आयुष्य का आधार साँसों के खर्च होने पर रहता है। मनुष्य जन्म लेता है तभी से गिनती की साँसें लेकर ही आता है। मनुष्य का आयुष्य ज़्यादा से ज़्यादा सौ साल का गिनें तो नॉर्मल, तंदुरुस्त व्यक्ति को सौ सालों में जितनी साँसें लेने की ज़रूरत होती है उतनी गिनती की साँसें वह लेकर ही आता है, ऐसा नियम ही है। जो मनुष्य साँसों का कम उपयोग करता है, उसका आयुष्य बढ़ कर एक सौ चालीस साल का भी हो सकता है और जो व्यक्ति साँसों का उपयोग ज़्यादा करता है, उसकी तीस साल में ही मृत्यु हो सकती है।
सबसे अधिक साँसों का उपयोग किसमें होता है? जिस क्रिया में अंदर डर लगता है और घबराहट होती है ऐसी हरएक क्रिया में साँसें ज़्यादा खर्च हो जाती हैं। कुछ पक्के चोर होते हैं जो जेब काटते हैं, चोरी करते हैं पर फिर भी पकड़े नहीं जाते। भले ही चोरी करते वक़्त वो एकदम निश्चिंत लगते हों पर चोरी करते वक़्त उनको असल में चारों तरफ़ से डर लगता है, अंदर फड़फड़ाहट होती है कि ”कोई देख तो नहीं लेगा न!”, ”पकड़ा जाऊँगा तो?” इसलिए उसमें बहुत ज़्यादा साँसें खर्च हो जाती हैं। इसी तरह से परस्त्री या परपुरुष के साथ चोरी-छिपे अणहक्क (बिना हक़) का विषय भोग भोगते समय भी बहुत भय लगता है और साँसें मानो घिरनी उल्टी घूम गई हो ऐसे ढेर सारी खर्च हो जाती हैं! एक बार के परस्त्री या परपुरुष के साथ विषय भोग में तो एक साल की उम्र जितना आयुष्य खर्च हो जाता है! जब मनुष्य को क्रोध आता है तब भी साँसें ज़्यादा खर्च हो जाती हैं। पूरे दिन भागदौड़ करने वालों की साँसें भी ज़्यादा खर्च हो जाती हैं। जबकि दूसरी ओर, जितना आत्मा का ध्यान रहता है उतनी साँसें कम खर्च होती हैं। अर्थात् साँसों रूपी आयुष्य निश्चित ही होता है। लेकिन साँसें फ्रैक्चर करें या नहीं यह अपने हाथ में है।
इसके बावजूद मनुष्य की साँसों की गिनती, कर्म और आयुष्य बंधने की जटिल प्रक्रिया को साधारण गणित से समझ सकें ऐसा नहीं है। जिस व्यक्ति की कम उम्र में ही मृत्यु हो जाए उसने ज़्यादा साँसें खर्च कर दी हैं ऐसा मानने की बजाय, वो कम ही साँसें लेकर आया था ऐसा मानना उचित है। लेकिन यदि आयुष्य के पीछे का विज्ञान समझ में आ जाए तो कोई संत या डॉक्टर आयुष्य बढ़ा सकते हैं, यह अंधश्रद्धा उड़ जाएगी।
जितनी साँसे कम खर्च होंगी उतना आयुष्य बढ़ेगा, यह तो नियम ही है। इसलिए, कोई ऐसा अहंकार नहीं कर सकता कि “मैंने आयुष्य बढ़ाया है!” या “मेरी मृत्यु हमारे स्वाधीन है, जब हमारी इच्छा होगी तब मृत्यु आएगी।” इन दोनों तरह से बोलना गुनाह कहलाता है। मनुष्य को खुद भुगतने वाले कर्मों में परिवर्तन करने की बिलकुल भी सत्ता नहीं है, तो फिर आयुष्य तो कैसे बढ़ा सकते हैं?
जब भगवान महावीर का निर्वाणकाल नज़दीक आया तब देवों ने भगवान से विनती की कि ”वीर, आयुष्य बढ़ाइए रे! यदि आप अपना दो-तीन मिनट का भी आयुष्य बढ़ा देंगे तो इस दुनिया पर भस्मक ग्रह का असर नहीं पड़ेगा” क्योंकि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद ढाई हजार सालों तक इस भस्मक ग्रह के विपरीत असर रहने की भविष्यवाणी की गई थी। दुनिया में कोई दुःख ना आए इस हेतु से देवों ने भगवान से विनती की थी। तब भगवान ने कहा, “ऐसा ना कभी हुआ और ना कभी होगा। भस्मक ग्रह आने ही वाला है और यह होने वाला ही है।“ इसलिए मृत्यु को टालना, बदलना या देर से बुलाना यह खुद भगवान के हाथ में भी नहीं है।
सतयुग के काल में मनुष्य का आयुष्य हजारों सालों का था। फिर जैसे जैसे काल उतरता गया वैसे वैसे आयुष्य के साल भी कम होते गए। कलयुग में अधिक से अधिक सौ साल का आयुष्य माना जाता है। इसलिए जैसे जैसे युग बदलता है, वैसे वैसे आयुष्य में भी बदलाव होता रहता है।
अब यह भी कहा जाता है कि मनुष्य का औसतन आयुष्य बढ़ गया है। कुछ सालों पहले मनुष्य औसतन पैंसठ साल जीते थे, जबकि आज वे पचहत्तर साल जीते हैं। तो इसका कारण भी यही है कि वे इतना आयुष्य लेकर आए हैं। पहले आयुष्य ज़्यादा था, बाद में कम हो गया। और अब फिर से आयुष्य बढ़ गया है, इस तरह से कुछ उतार-चढ़ाव, उतार-चढ़ाव चलते ही रहते हैं।
कुदरत का नियम ऐसा है कि किसी भी मनुष्य की मृत्यु खुद उसके हस्ताक्षर के बिना नहीं हो सकती।
लेकिन इस दुनिया से जाने की इच्छा तो किसी को नहीं होती। तो फिर जानबूझकर अपनी ही मृत्यु के हस्ताक्षर कौन करेगा? वास्तव में, मृत्यु के हस्ताक्षर अनजाने में ही हो जाते हैं।
एक उदाहरण लेते हैं, कोई व्यक्ति अस्पताल में भर्ती हो या किसी का एक्सिडेंट हो गया हो, उस समय शरीर में भयंकर वेदना उठती है। वह दर्द उससे सहा नहीं जाता तब दुःख के मारे वह बोल उठता है, "हे भगवान! अब सहा नहीं जाता, यह शरीर अब छूट जाए तो अच्छा!” दुःख सहन नहीं हो पाने के कारण वह बोल देता है, "भगवान, यहाँ से चला जाऊँ तो अच्छा!" इसे ही मृत्यु के हस्ताक्षर हो जाना कहते हैं। अगर खुद बहुत जागृत हो तो उसे समझ में आता है कि यह हस्ताक्षर हो गए हैं।
जब तक अहंकार हस्ताक्षर ना करे तब तक मृत्यु नहीं आ सकती।
A. मृत्यु जीवन का एक सत्य है, एक अनिवार्य हक़ीक़त है। हम सभी इस हक़ीक़त को जानते हैं, फिर भी मृत्यु के नाम... Read More
Q. क्या आपको मृत्यु का डर नहीं है?
A. यह निरंतर भयवाला जगत् है। एक क्षणभर के लिए भी निर्भयतावाला यह जगत् नहीं है और जितनी निर्भयता लगती... Read More
Q. मृत्यु के अंतिम घंटों में क्या होता है?
A. मरते समय सारी ज़िन्दगी में जो किया हो, उसका सार (हिसाब) आता है। वह सार पौना घंटे तक पढ़ता रहे, फिर... Read More
Q. क्या वास्तव में पुनर्जन्म है?
A. प्रश्नकर्ता : जीवात्मा मरता है, फिर वापस आता है न? दादाश्री : ऐसा है न, फॉरेनवालों का वापस नहीं... Read More
Q. क्या मृत्यु के बाद जीवन है?
A. दादाश्री : मृत्यु के बाद जन्म और जन्म के बाद मृत्यु है, बस। यह निरंतर चलता ही रहता हैं! अब यह जन्म... Read More
Q. आत्मा जब शरीर को छोड़कर जाता है, उसके बाद क्या होता है?
A. प्रश्नकर्ता : यानी यह देह छोड़ना और दूसरा धारण करना, उन दोनों के बीच में वैसे, कितना समय लगता... Read More
Q. क्या मनुष्य का जन्म हमेशा मनुष्य योनि में ही होता है?
A. प्रश्नकर्ता : मनुष्य में से मनुष्य में ही जानेवाले हैं न? दादाश्री : वह खुद की समझ में भूल है।... Read More
Q. क्या यह सच है कि कोई व्यक्ति मनुष्य योनि में से जानवर योनि में जा सकता है?
A. प्रश्नकर्ता : 'थियरी ऑफ इवोल्युशन' (उत्क्रंतिवाद) के अनुसार जीव एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय ऐसे... Read More
Q. क्या ज्ञान प्राप्ति का आनंद इसी जन्म तक सीमित है?
A. प्रश्नकर्ता : मात्र यह सनातन शांति प्राप्त करे तो वह इस जन्म के लिए ही होती है या जन्मों जन्म की... Read More
subscribe your email for our latest news and events