अक्रम विज्ञान, एक ऐसा आध्यात्मिक विज्ञान है जो व्यवहार में उपयोगी है और मोक्ष प्राप्ति के लिए एक ‘शार्टकट’ रास्ता है।
अधिक पढ़ें21 मार्च |
दादा भगवान फाउन्डेशन प्रचार करता हैं, अक्रम विज्ञान के आध्यात्मिक विज्ञान का – आत्मसाक्षात्कार के विज्ञान का। जो परम पूज्य दादा भगवान द्वारा बताया गया है।
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प्रश्नकर्ता : अहिंसा पालने का उपाय बताइए।
दादाश्री : एक तो, जो जीव अपने से त्रास पाए उसे दुख नहीं देना चाहिए, उसे त्रास नहीं देना चाहिए। और गेहूँ है, बाजरा है, चावल है, उन्हें खाओ। उसका हर्ज नहीं है। वे अपने से त्रास नहीं पाते, वे अभान अवस्था में हैं और ये कीड़े-मकोड़े वे तो दौड़ जाते हैं, उन्हें नहीं मारना चाहिए। ये सीप-शंख के जो जीव होते हैं, जो हिलते-डुलते हैं ऐसे दो इन्द्रिय से लेकर और पाँच इन्द्रिय तक के जीवों को कुछ नहीं करना चाहिए। खटमल को भी आप पकड़ो तो त्रस्त हो जाता है। इसलिए आप उसे मारो नहीं। समझ में आया न?
प्रश्नकर्ता : हाँ, समझ में आया।
दादाश्री : हाँ, दूसरा, सूर्यनारायण के अस्त हो जाने के बाद भोजन मत करो।
अब तीसरा, अहिंसा में जीभ का बहुत कंट्रोल रखना पड़ता है। आपको कोई कहे कि आप नालायक हो, तो आपको सुख होता है या दुख होता है?
प्रश्नकर्ता : दुख होता है।
दादाश्री : तो आपको इतना समझ जाना है कि हम उसे 'नालायक' कहें तो उसे दुख होगा। वह हिंसा है, इसलिए हमें नहीं कहना चाहिए। यदि अहिंसा पालनी हो तो हिंसा के लिए बहुत सावधानी रखनी पड़ती है। हमें जिससे दुख होता है, वैसा दूसरों को नहीं कह सकते।
फिर मन में खराब विचार भी नहीं आना चाहिए। किसी का मुफ्त में ले लेना है, हड़प लेना है ऐसे विचार कोई आने ही नहीं चाहिए। बहुत पैसे इकट्ठे करने के विचार नहीं आने चाहिए। क्योंकि शास्त्रकारों ने क्या कहा है कि पैसे तेरे हिसाब के जो हैं, वे तो तेरे लिए आया ही करते हैं। तो बहुत पैसे इकट्ठे करने के विचार करने की तुझे ज़रूरत ही नहीं। तू ऐसा विचार करे तो उसका अर्थ हिंसा होता है। क्योंकि दूसरे के पास से हड़प लेना, दूसरों का क्वोटा हमें ले लेने की इच्छा होती है, इसलिए वहाँ भी वह हिंसा समाई हुई है। इसलिए ऐसे कोई भाव नहीं करना।
प्रश्नकर्ता : बस, ये तीन ही उपाय हैं अहिंसा के?
दादाश्री : और भी हैं दूसरे। फिर माँसाहार, अंडे, कभी भी नहीं खाने चाहिए। फिर आलू है, प्याज़ है, लहसुन है, ये चीज़ मत लेना। कोई रास्ता न हो तब भी मत लेना। क्योंकि ये प्याज़-लहसुन हिंसक है, मनुष्य को क्रोधी बनाते हैं और क्रोध हो, तब सामनेवाले को दुख होता है। दूसरी आपको जो सब्ज़ी खानी हो वह खाना।
अब भगवान क्या कहना चाहते हैं कि पहले मनुष्यों को सँभालो। हाँ, वह बाउन्ड्री सीखो कि मनुष्यों को तो मन-वचन-काया से किंचित् मात्र दुख नहीं देना है। फिर पंचेन्द्रिय जीव- गाय, भेंस, मुर्गी, बकरे, ये सब जो हैं, उनकी मनुष्यों से थोड़ी-बहुत कम, परन्तु उनकी सँभाल रखनी चाहिए। उन्हें दुख नहीं हो ऐसा ध्यान रखना चाहिए। मतलब यहाँ तक ध्यान रखना है। मनुष्य के अलावा के पंचेन्द्रिय जीवों को, लेकिन वह सेकन्डरी स्टेज में। फिर तीसरी स्टेज कौन-सी आती है? दो इन्द्रिय से ऊपर के जीवों का ध्यान रखना।
आहार में सबसे ऊँचा आहार कौन-सा? एकेन्द्रिय जीवों का! दो इन्द्रिय के ऊपर के जीवों के आहार का,जिसे मोक्ष में जाना हो उसे अधिकार नहीं है। इसलिए दो इन्द्रिय से अधिक इन्द्रियवाले जीवों की जोखिम हमें नहीं उठानी चाहिए । क्योंकि जितनी उनकी इन्द्रियाँ उतने प्रमाण में पुण्य की ज़रूरत है, उतना मनुष्य का पुण्य खर्च हो जाता है!
मनुष्य को खुराक खाए बिना छुटकारा ही नहीं और उस जीव का नुकसान तो मनुष्य को अवश्य जाता है। अपना जो भोजन है वह एकेन्द्रिय जीव ही है। उनका भोजन हम करें तो वे भोज्य और हम भोक्ता हैं और तब तक जिम्मेदारी आती है। पर भगवान ने यह छूट दी है। क्योंकि आप महानसिलक(पूंजी, राहखर्च)वाले हो और आप उन जीवों का नाश करते हो। पर उन जीवों को खाते हैं, उसमें उन जीवों को क्या फायदा? और उन जीवों को खाने से नाश तो होता ही है। परन्तु ऐसा है, यह भोजन खाया इसलिए आपको दंड लागू होता है। पर वह खाकर भी आप नफा अधिक कमाते हो। सारे दिन जीए और धर्म किया तो आप सौ कमाते हो। उसमें से दस का जुर्माना आपको उन्हें चुकाना पड़ता है। इसलिए नब्बे आपके पास रहे हैं और आपकी कमाई में से दस उन्हें मिलने से उनकी ऊर्ध्वगति होती है। यानी यह तो कुदरत के नियम के आधार पर ही ऊर्ध्वगति हो रही है। वे एकेन्द्रिय में से दो इन्द्रिय में आ रहे हैं। यानी इस प्रकार यह क्रमपूर्वक बढ़ता ही जा रहा है। इन मनुष्यों के लाभ में से वे जीव लाभ उठाते हैं। इस तरह हिसाब सारा चुकता होता रहता है। यह सब साइन्स लोगों को समझ में नहीं आता न!
इसलिए एकेन्द्रिय में हाथ मत डालना। एकेन्द्रिय जीवों में आप हाथ डालोगे तो आप इगोइज़मवाले हो, अहंकारी हो। एकेन्द्रिय त्रस जीव नहीं है। इसलिए एकेन्द्रिय के लिए आप कोई विकल्प करना नहीं। क्योंकि यह तो व्यवहार ही है। खाना-पीना पड़ेगा, सब करना पड़ेगा।
बाकी, जगत् सारा जीवजंतु ही है। एकेन्द्रिय जीव का तो सभी यह जीवन ही है। जीव बिना तो इस दुनिया में कोई वस्तु ही नहीं। और निर्जीव वस्तु खाई जा सके ऐसी नहीं है। इसलिए जीववाली वस्तु ही खानी पड़ती है। उससे ही शरीर को पोषण मिलता है। और एकेन्द्रिय जीव हैं इसलिए खून, पीब, माँस नहीं है इसलिए एकेन्द्रिय जीव आपको खाने की छूट दी है। इसमें तो इतनी सारी चिंताएँ करने जाओ, तो कब पार आए? उस जीव की चिंता करनी ही नहीं है। चिंता करनी थी वह रह गए और नहीं करने की चिंता पकड़ रखी है। ऐसी झीनी हिंसा की तो चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं।
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