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क्या मांसाहारी भोजन आध्यात्मिक प्रगति में बाधक है?

प्रश्नकर्ता : अन्न का असर मन पर पड़ता है, वह भी निश्चित है?

दादाश्री : सबकुछ इस खुराक का ही असर है। यह खुराक खाते हैं, तब पेट के अंदर उसकी ब्रान्डी बन जाती है और ब्रान्डी से सारा दिन अभानावस्था में तन्मयाकार रहता है। तब यह सात्विक भोजन है न, उसकी भी, पर ब्रान्डी नहीं जैसी बनती है। और दूसरी बोटल की ब्रान्डी पीता है तब भान ही नहीं आता, ऐसा है। वैसे ही यह भोजन अंदर जाता है, उसकी सब ब्रान्डी ही बन जाती है। ये लड्डू हैं, सर्दियों में वसाणा (सदियों मे बनाई जानेवाली विशेष मिठाई) कहते हैं, वह सब नहीं है सात्विक! सात्विक मतलब खूब हल्का फूड और लड्डू तो कै़फ बढ़ानेवाला है। परन्तु लोग भी अच्छा लगता हो वह स्वीकार लेते हैं, सहूलियतवाला कर देते हैं।

प्रश्नकर्ता : इस माँसाहार का आध्यात्मिक विचारों में कोई असर होता है क्या?

दादाश्री : अवश्य। माँसाहार, वह स्थूल भोजन है, इसलिए आध्यात्मिक की बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है। अध्यात्म में जाना हो तो लाइट फूड चाहिए कि जिससे मद चढ़े नहीं और जागृति रहे। बाकी, इन लोगों को जागृति है ही कहाँ?

वे फॉरेन के साइन्टिस्ट अपनी बात नहीं समझेंगे। वे साइन्टिस्ट कहते हैं, 'ओहो! यह तो बहुत विचार करने जैसी बात है। पर हमारे मानने में नहीं आती।' तब मैंने कहा, 'अभी बहुत टाइम लगेगा। बहुत सारी मुर्गियाँ खा गए हो इसलिए टाइम लगेगा। वह तो दाल-चावल चाहेंगें । प्योर वेजिटेरियन की ज़रूरत है।' वेजिटेरियन फूड होता है उसका आवरण पतला होता है, इसलिए वह ज्ञान को समझ सकता है, सब आरपार देख सकता है और वो माँसाहारी को मोटा आवरण होता है।

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