Related Questions

मोक्षमार्ग में बाधक कारण क्या हैं?

जो कोई भी मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने और उस मार्ग पर लगातार प्रगति करना चाहते हैं, उनके लिए इस मार्ग में आनेवाली बाधाओं को जानना ज़रूरी है। हर दिन अपनी मोक्षमार्ग में बाधक आंतरिक प्रवृत्तियों को निष्पक्ष हो कर निरिक्षण, विश्लेषण और मूल्यांकन करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। नीचे कुछ बाधक कारण दिए गए हैं:

  • मान के प्रति लगाव: जब भी कोई हमें बहुत सम्मान देता है, तो हमारे अंदर मान की अनुभूति उत्पन्न होती है जो वास्तव में हमे मीठा लगता है। परिणाम स्वरूप, हमारा मान के प्रति लगाव हो जाता हैं। जब तक सांसारिक व्यवहार में ऐसी मिठास का अनुभव होता रहता है, तब तक निरतंर आत्मा की जागृति नहीं रह सकती। ऐसा इसलिए है क्योंकि मिठास के कारण जागृति मंद हो जाती है।

    मान का आनंद लेते समय ही, हमारे आत्मा की जागृति का आनंद कम हो जाता है। हालाँकि, जब कोई अधिक से अधिक मान पाने का प्रयास करता है, तो उसके भीतर पूर्ण अंधकार हो जाता है। मोक्ष की दृष्टि से, सामान्य मान अभी भी मान्य है। लेकिन जिनकी सारी शक्ति निरंतर इस बात में लगी रहती है कि “कहाँ से मान पाऊँ, कैसे दुनिया के सामने मान-प्रतिष्ठा पाऊँ?”, गंभीर खतरे में हैं। मान को मिटाया जा सकता है लेकिन मान की भूख को मिटाना अत्यंत कठिन है। कृपा से प्राप्त हुए मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए, खुद के महत्त्व को धीरे-धीरे कम करना होगा।

  • प्रशंसा की लालसा: जब कोई व्यक्ति अपनी प्रशंसा को अधिक से अधिक सुनना पसंद करता है तब लालसा होती है; प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से व्यक्ति स्वयं की प्रशंसा खोजता रहता है। जब लोग हमारी प्रशंसा करते हैं और हम दिन भर उस मिठास के नशे में घुमते रहते हैं, इसे प्रशंसा का नशा कहते हैं।

    जब कोई यह कहते हुए हमारी प्रशंसा करता है, “आपने बहुत अच्छा काम किया!”, हम तुरंत कर्त्तापन की मिठास का रस चख लेते हैं। इसके परिणाम स्वरूप फिर हमारा आध्यात्मिक पतन होता है! लोग तो हमें ऊँचा उठाएंगे; वे हमें सबसे ऊपर के पद में विराजित भी करेंगे और यह भी सोचेंगे कि हम प्रशंसा के योग्य हैं। परन्तु, लोग क्या सोचते हैं और क्या मानते हैं इससे हमें क्या लेना देना? फिर भी, अहंकार सारा श्रेय ले लेता है और हमें मुक्ति के मार्ग से भटका देता है। जब कोई अच्छा बोलता है तो हमें अच्छा लगता है; जब कोई हमारे बारे में बुरा बोलता है तो हमें कड़वाहट का अनुभव होता है। जब कड़वे और मीठे (अपमान और मान ) के बीच कोई अंतर न रहे, तब जानना की आध्यात्मिक ज्ञान हाजिर है। जो कड़वे और मीठे में भेद नहीं करता और दोनों में से किसी के असर में नहीं आता, वह आध्यात्मिक प्रगति के पात्र कहा जाता है।

  • पूजे जाने की कामना: लोगों द्वारा पूजे जाने की इच्छा रखना एक और बड़ी बाधा है। जिस क्षण कोई हमारे सामने हाथ जोड़कर बड़ी श्रद्धा और पूज्य-भाव से हमें प्रणाम करता है, उसी क्षण भीतर में मीठा लगने लगता है। हम मिठास अनुभव करते हैं, और इसलिए, ऐसे क्षणिक सुखों की लालच में लिप्त हो जाते हैं। उल्टा रास्ता है यह सारा! पूजे जाने की कामना जैसा भयंकर कोई रोग नहीं है।

    किसे पूजना है? आत्मा तो पूज्य ही है। देह को पूजना रहा ही कहाँ फिर? देह को पुजवाकर क्या हाँसिल करना है? जिस देह को जला देना है, उसे पुजवाकर क्या हाँसिल करना है? जब लोग हमारी प्रशंसा और हमारा स्वागत करते हैं, तो हमें इसकी आदत पड़ जाती है; चाय पीने की आदत की तरह ही यह हमें भीतर से पकड़ लेती है। फिर जब हमें प्रशंसा नहीं मिलती, तो हम व्याकुल हो जाते हैं और दुःख भुगतते हैं।

    दूसरों से मान और प्रशंसा पाने के लिए व्यक्ति कपट का भी सहारा ले सकता है। यहाँ वह किसलिए भूखा है? पूजा करवाने की इच्छा होना, भीख मांगने जैसा है। ऐसी आदतें जब एक बार लग जाएँ तो आसानी से छूटती नहीं हैं। लोग अपनी एक अलग ही दुनिया बना लेते जहाँ खुद का महत्त्व हो और ऐसी परिस्थितयाँ ढूंढते लेते है जिससे वे जहाँ भी जाते हैं वहाँ उन्हें सम्मान मिलता है। जो लोग प्रशंसा और कीर्ति का लोभ रखते हैं वे सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते। यहाँ भयंकर ख़तरा है; सावधान!

  • यह जानने की जिज्ञासा कि “लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे”: मोक्षमार्ग का एक और भयानक रोग कि लोग हमारे बारे में क्या कहते हैं, उसको जानने के लिए गुप्त रूप से सुनना। एक गुप्त रूप से यह सुनने की कोशिश करता है कि दूसरा व्यक्ति उसके लिए क्या कह रहा है। यदि हम, दूसरे हमारे बारे में क्या कहते हैं यह सुनेंगे, तो हम अपना विवेक खो देंगे। हम जो सुनते हैं, उसके आधार पर, हमारे मन में लोगो के बारे में गहरा अभिप्राय बनता है - उन लोगों के बारे में नेगेटिव अभिप्राय जो हमारे बारे में बुरा बोलते हैं और पोज़िटिव अभिप्राय जो हमारे बारे में अच्छा बोलते हैं। जो व्यकित मोक्ष में जाना चाहता है उन्हें कोई उसके बारे में बुरा बोलता है तो उसे खुश होना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि वास्तव में, वह व्यक्ति उसे उसके कर्मों से मुक्त कर देता है और इन बुराइयों को अपने ऊपर ले लेता है। बोलने वाले ने चाहे अनजाने में ही बोला दिया होगा, लेकिन वे शब्द हमारे मन और नींद को नष्ट कर देते हैं।

    जो व्यक्ति यह जानने की इच्छा रखता है की "जब मैं नहीं होता हूँ तब वे मेरे बारे में क्या कह रहे हैं?" तब वह मोक्षमार्ग से भटक जाता है। लोग जो कहना चाहते हैं कहने दें। यदि हम दोषित होंगे तो दुनिया बोलेगी; फिर हम इसका विरोध क्यों करें? यदि कोई हमारी निन्दा करे, तो उसे बोलने दें, क्योंकि इससे हमें ही लाभ होता है। हमें मज़बूत होने की जरूरत है। इस मामले में एक छोटी सी भूल भी मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ने में भारी समस्या खड़ी कर सकती है। यह हमारे भीतर का छल है जो हमारे मन को गुप्त रूप से दूसरे लोगों की बातचीत सुनने की ओर ले जाता है।

  • लोग क्या कहेंगे इसका डर: "लोग क्या कहेंगे?" इस दुनिया का सबसे बड़ा रोग है। मोक्ष में व्यक्ति सामाजिक बंधनों के दबाव में नहीं आता है। आमतौर पर लोग डर के मारे छल-कपट का सहारा लेते हैं, लेकिन किस बात का डर? जो व्यक्ति दोषित होता है, उसे ही भय होता है ना?

    जिस किसी के पास मुक्ति की अभिलाषा और तीव्र इच्छा है, वह मुक्ति के मार्ग में आनेवाली किसी भी बाधा की परवाह नहीं करता। "मुझे मोक्ष के अलावा कुछ और नहीं चाहिए”, की निरंतर जागृति से कपट जाएगा। इसे हर सुबह पांच बार कहने से हमारे अंदर कपट को हराने की जागृति उत्पन्न होगी।

  • दूसरों की बातों में आ जाना: बहुत से लोग दूसरों की बातों में आसानी से में आ जाते हैं। यदि कोई तीसरा व्यकित आकर किसी व्यक्ति के लिए नेगेटिव बोलता है, तो हम तुरंत ही उस व्यक्ति के लिए नेगेटिव अभिप्राय बना लेते हैं। जब कोई इतना भोला न हो कि उसे दूसरों की बातों में आ जाए, तो वह सही है। हमें यह समझना चाहिए कि दूसरा व्यक्ति केवल हमारा पक्ष लेने की कोशिश कर रहा है। परम पूज्य दादा भगवान अपना ही उदाहरण बताते हैं, "इतने सारे लोग हम से कहते हैं पर हम किसी की सुनते नहीं है।“

    प्रगति तब होती है जब कोई ऐसी बातों के असर में नहीं आता जिसका मोक्ष के ध्येय से लेना देना नहीं है। इससे आध्यात्मिक प्रगति निश्चित होती है। केवल उन्ही बातों से जुड़े रहें जो हमें मुक्त कराती है। ऐसी कोई भी बात जो हमें अपने ध्येय से और सच्ची दृष्टि से दूर ले जाए, उसे अपने मन में नहीं आने देनी चाहिए। इसका एक उपाय है की उसे नाटकीय रूप से सुनें, अर्थात्, वास्तव में केवल सतही रूप से सुनते हुए ध्यान से सुनने का नाटक करना है; बाहर से उसका बिल्कुल भी विरोध नहीं करना है और भीतर से सम्यक दृष्टि पर ही विश्वास करना है। हर कोई व्यक्ति जैसा समझता है वैसा ही बोलता है; लेकिन हमें, मुमुक्षु के रूप में, सम्यक दृष्टि पर ही जोर देना है।

  • पोइन्ट मैन - ऐसे व्यक्ति की संगति से सावधान रहें जो मोक्ष के मार्ग से हमे दूर करता है और दूसरी दिशा में धकेलता है: यदि कोई 'पोइन्ट मैन' मोक्षमार्ग के बीच रास्ते में आ जाता है, तो इस बात की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है कि हम रास्ते पर रहेंगे। यदि ट्रैक बदल जाता है, तो यह नहीं बताया जा सकता कि हम कहाँ जाकर रुकेंगे।

    जब तक गाड़ी सही रास्ते पर चल रही है, तब तक ज्ञानी से प्राप्त हुई महान आध्यात्मिक स्थिति हमसे छीनी नहीं जाएगी। इसलिए अपने आप को उस गड्ढे में गिरने से बचाने के लिए अत्यंत सावधानी रखनी चाहिए कि हमारा ‘मोक्ष का ध्येय’ न बदले और हम हमेशा ज्ञानी के द्वारा बताए गए मार्ग और अंतिम लक्ष्य पर टिके रहें।

  • आड़ाई: जो मोक्षमार्ग पर चलना चाहता है उसे संपूर्ण सरल होना चाहिए; मोक्षमार्ग में चलने के लिए रत्ती भर भी आड़ाई नहीं होनी चाहिए। ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि मोक्ष के मार्ग में आड़ाई बहुत बड़ी बाधा है और अगर कोई सीधा हो जाए, तो वह भगवान बन सकता है

    हमारी आड़ाई के पीछे का कारण है कि हम चीज़ों को अपने तरीके से पाना चाहते हैं। हम ऐसी चाल और डराने की युक्ति अपनाते हैं जैसे की रूठ जाना, गुस्से में चीज़ो को फेंकना और चीज़ो को अपने तरीके से चलाने के लिए और कुछ भी करना। यदि कोई इस तरह के प्रयास में सफल होता है, तो समय के साथ उसकी मान्यता बन जाती है कि, "इस तरह के प्रयास से हम आसानी से जो चाहें वो प्राप्त कर सकते हैं।" ऐसी हर सफलता के साथ उसकी मान्यता और मज़बूत बन जाती है। ऐसी मान्यताओं के कारण ही आड़ाई रहती है। इसलिए इस मान्यता को तोड़ना बहुत आवश्यक है। या फिर आड़ाई करने वाला व्यक्ति सांसारिक मार्ग के साथ-साथ मोक्ष के मार्ग में भी बहुत कुछ खो देता है।

    जब हम अपनी आड़ाई को स्वीकार करते हैं, तो वह दूर होने लगती है; लेकिन अगर हम उसे नकारते हैं, तो वे और भी मज़बूत होती जाती है। ह्रदय को संतुष्ट करनेवाली सच्ची बात को जब स्वीकार नहीं किया जाता, तो वह आड़ाई का स्वभाव है। आड़ाई करने वाले लोग अपने मतानुसार आचरण करते हैं। ज्ञानी के मत के अनुसार आचरण करने वालों की आड़ाई समाप्त हो जाती है।

  • अत्यधिक लोभ: लोभ हमें अपना ध्येय भुला देता है। जो हमारे लक्ष्य को तोड़ता है वह हमारा दुश्मन है। मन और देह के क्षणिक भौतिक सुखों को भोग लेना और उसमें एकाकार होने की पुरानी आदत के कारण लोभ अधिक से अधिक उत्पन्न होता है। यह सुख हमें जाल में फँसा देते है। हालाँकि, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम अपने मोक्ष के ध्येय से कभी न चूकें और लोभ के हर प्रसंग में खुद को कहना चाहिए, "नहीं, में इस रास्ता पर जाना चाहता हूँ; मुझे कोई क्षणिक सुख नहीं चाहिए; मैं मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता हूँ और मैं अपने ध्येय को प्राप्त करना चाहता हूं।“

प्रत्यक्ष ज्ञानी की उपस्थिति के बिना उपर्युक्त बाधक कारणों का ज्ञान हमारी मदद करेगा, लेकिन केवल एक निश्चित सीमा तक।

ऐसा इसलिए क्योंकि इन बाधक कारणों को ढूंढ पाना कठिन है और एक बार गिर जाने के बाद बाहर निकलना और भी कठिन हो जाता है। ज्ञानी की कृपा से ही हमें अपनी गलतियाँ दिखाई देती हैं जब वे हमें बताते हैं और हम उसका निरिक्षण करते हैं। फिर धीरे-धीरे उनके दी गई आज्ञाओं का पालन करते हुए, हम उन गलतियों से बहार निकलने में सक्षम हो जाते हैं।

जो मुमुक्षु मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहता है, उसके जीवन में प्रत्यक्ष ज्ञानी की उपस्थिति अत्यंत आवश्यक है।

×
Share on