भगवान का प्रेम शुद्ध प्रेम है। यह दिव्य प्रेम है और इसीलिए भगवान के प्रेम का प्रताप बहुत अलग है।
भगवान के प्रेम के पीछे कोई मकसद नहीं है। भगवान हमसे प्रेम करते हैं क्योंकि भगवान प्रेम के सिवाय कुछ नहीं है। शुद्ध प्रेम – वह भगवान का स्वाभाविक गुण है।
अगर हमारे लिए भगवान ही सच्ची पसंद है, तो वह हमसे ज़्यादा दूर नहीं है। लेकिन आज, हमे भगवान को छोड़कर सब कुछ पसंद है। फिर भी परमेश्वर हमे प्रेम करते है और हमेशा करेगें, वह कभी भी हमसे दूर नहीं हुए है।
भगवान का प्रेम बिना किसी शर्तो के रहता है। उनका प्यार किसी भी लगाव और ममता से परे है। यह बिना किसी अपेक्षा के है। बदले में कुछ पाने की अपेक्षा के बिना, बिना किसी शर्त के, बिना किसी रुकावट के, हर किसी पर भगवान का प्रेम अखूट बहता रहता है।
भगवान किसी को ज़रा सा भी दोषित नहीं देखते। वह किसी को अच्छे या बुरे, उच्च या निम्न, अमीर या गरीब, सही या गलत के रूप में नहीं देखते है। भगवान कभी भेदभाव नहीं रखते। भगवान के भीतर ‘तेरा या मेरा’ एसा कोई विभाजन नहीं है और यही कारण है कि उनका प्रेम शुद्ध प्रेम है, क्योंकि शुद्ध प्रेम वहां ही मौजूद है जहाँ ‘तुम्हारा और मेरा’ का कोई एहसास नहीं है।
चलिए हम इसके बारे में प्रत्यक्ष परम पूज्य दादाश्री से सीखें:
दादाश्री : आपको ईश्वर का प्रेम प्राप्त करना है?
प्रश्नकर्ता : हाँ, करना है। अंत में हरएक मनुष्य का ध्येय यही है न? मेरा प्रश्न यहीं पर है कि ईश्वर का प्रेम संपादन करें किस तरह?
दादाश्री : प्रेम तो यहाँ सभी लोगों को करना होता है, पर मीठा लगे तो करे न? उस तरह से ईश्वर कहीं भी मीठा लगा हो, वह मुझे दिखाओ न!
प्रश्नकर्ता : क्योंकि यह जीव अंतिम क्षण में जब देह छोड़ता है, फिर भी ईश्वर का नाम नहीं ले सकता।
दादाश्री : किस तरह ईश्वर का नाम ले सकेगा? उसे जहाँ रुचि हो न, वह नाम ले सकेगा। जहाँ रुचि, वहाँ उसकी खुद की रमणता होती है। ईश्वर में रुचि ही नहीं और इसलिए ईश्वर में रमणता ही नहीं है। वह तो जब भय लगे, तब ईश्वर याद आते हैं।
प्रश्नकर्ता : ईश्वर में रुचि तो होती है, फिर भी कुछ आवरण ऐसे बंध जाते हैं इसलिए ईश्वर का नाम नहीं ले सकते होंगे।
दादाश्री : परन्तु ईश्वर पर प्रेम आए बगैर किसका नाम लें वे? ईश्वर पर प्रेम आना चाहिए न! और ईश्वर को प्रेम बहुत करे उसमें क्या फायदा? मेरा कहना है कि यह आम होता है, वह मीठा लगे तो प्रेम होता है और कड़वा लगे या खट्टा लगे तो? वैसे ही ईश्वर कहाँ पर मीठा लगा, कि आपको प्रेम हो?
ऐसा है, जीव मात्र के अंदर भगवान बैठे हुए हैं, चेतनरूप में है, कि जो चेतन जगत् के लक्ष्य में ही नहीं और जो चेतन नहीं है, उसे चेतन मानते हैं।
इस शरीर में जो भाग चेतन नहीं है, उसे चेतन मानते हैं और जो चेतन है वह उसके लक्ष्य में ही नहीं, भान में ही नहीं। अब वह शुद्ध चेतन मतलब शुद्धात्मा और वही परमेश्वर है।
जब हमें उसकी तरफ से कुछ लाभ हो और तभी उन पर प्रेम आता है। जिन पर प्रेम आए न, वे हमें याद आते हैं तो उनका नाम ले सकते हैं। इसलिए प्रेम आए ऐसे हमें मिलें, तब वे हमें याद रहा करते हैं। आपको ‘दादा’ याद आते हैं?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : उन्हें प्रेम है आप पर, इसलिए याद आते हैं। अब प्रेम क्यों आया? क्योंकि ‘दादा’ ने कोई सुख दिया है कि जिससे प्रेम उत्पन्न हुआ, और वह प्रेम उत्पन्न हो तब फिर भूला ही नहीं जाता न! वह याद ही नहीं करना होता।
यानी भगवान याद कब आते हैं? कि भगवान अपने पर कुछ कृपा दिखाएँ, हमें कुछ सुख दें, तब याद आते हैं।
यह प्रेम तो ईश्वरीय प्रेम है। ऐसा सब जगह होता नहीं न! यह तो किसी जगह पर ऐसा हो तो हो जाता है, नहीं तो होता नहीं न!
यानी प्रेम तो ‘ज्ञानी पुरुष’ का ही देखने जैसा है! आज पचास हज़ार लोग बैठे हैं, पर कोई भी व्यक्ति थोड़ा भी प्रेम रहित हुआ नहीं होग। उस प्रेम से जी रहे हैं सभी।
अभी शरीर से मोटा दिखे उस पर भी प्रेम, गोरा दिखे उस पर भी प्रेम, काला दिखे है उस पर भी प्रेम, लूला-लंगड़ा दिखे उस पर भी प्रेम, अच्छे अंगोवाला मनुष्य दिखे उस पर भी प्रेम। सब जगह सरीखा प्रेम दिखता है। क्योंकि उनके आत्मा को ही देखते हैं। दूसरी वस्तु देखते ही नहीं। जैसे इस संसार में लोग मनुष्य के कपड़े नहीं देखते, उसके गुण कैसे हैं वह देखते हैं, उसी तरह ‘ज्ञानी पुरुष’ इस पुद्गल को नहीं देखते।
और ऐसा प्रेम हो वहाँ बालक भी बैठे रहते हैं। अनपढ़ बैठे रहते हैं, पढ़े-लिखे बैठे रहते हैं, बुद्धिशाली बैठे रहते हैं, सभी लोग समा जाते हैं।
हम ईश्वर को देख या अनुभव नहीं कर सकते। इसलिए हमारी अवस्था में, परमेश्वर के प्रेम को समझना कठिन है। लेकिन ज्ञानी का प्रेम वह है जिसे हम देख और अनुभव कर सकते हैं; यह इस पृथ्वी पर मौजूद वास्तविक प्रेम है! ज्ञानी का प्रेम, शुद्ध प्रेम है और वही परमार्थ प्रेम का अलौकिक झरना होता है। वह प्रेम-झरना सारे संसार की अग्नि शांत करता है। ज्ञानी को सांसारिक जीवन के दलदल में फंसे सभी जीवों की कैसे कर के मोक्ष की प्राप्ति हो, बस यही भाव रहता है।
आत्मज्ञान के बिना, कोई मोक्ष नहीं है; और यह ज्ञान पुस्तकों में मौजूद नहीं है, यह ज्ञानी के ह्रदय में मौजूद है। शुद्ध प्रेम उसी क्षण से प्रकट होना शुरू हो जाता है जब हमे ज्ञानीपुरुष से आत्मज्ञान ज्ञान प्राप्त होता है!
अनासक्त योग से सच्चा प्रेम उत्पन्न होता है। अगर इस दुनिया में कोई भी सच्चे प्रेम के रास्ते पर चलना शुरू करता है, तो वह भगवान बन जाएगा। जहाँ सच्चा प्रेम है, वहाँ मोक्ष है।
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