स्थितप्रज्ञ या स्थितअज्ञ?
एक महापंडित हमारी परीक्षा लेने के लिए पूछने आए थे, ‘स्थितप्रज्ञ दशा क्या होती है?’ उन्होंने पूछा। मैंने उन्हें समझाया, ‘तू खुद स्थितअज्ञ दशा में है! अब तू खुद ही नाप लेना कि तू इस किनारे पर है तो स्थितप्रज्ञ दशा का सामनेवाला किनारा कैसा होना चाहिए!’ उन्हें मैंने आगे कहा कि, ‘आपको मीठा लगे वैसा कहूँ या कड़वा लगे वैसा कहूँ? आप स्थितअज्ञ दशा में ही हो, पंडिताई के कै़फ में घूम रहे हो। इससे अच्छा तो यह दारू का कै़फ है कि पानी डालते ही उतर जाता है। आपने तो हमेशा का कै़फ चढ़ा लिया है, वह नींद में भी नहीं उतरता है। हमारे पाँच ही मिनट के दर्शन करने से आपका जन्मोंजन्म का कल्याण हो जाए, वैसा है। यहाँ पर सभी भगवान के दर्शन हो जाएँ वैसा है, आपको जिनके दर्शन करने हों, करना।’
स्थितप्रज्ञ, वह अनुभवदशा नहीं है। ‘यह आत्मा है और अन्य से वह पर है’ शब्द से ऐसा भेद डालना शुरू हो जाए तो स्थितप्रज्ञ दशा शुरू हो जाती है और ठेठ आत्मा का अनुभव होने तक जो दशा रहती है, वह स्थितप्रज्ञ दशा कहलाती है! कृष्ण भगवान ने जो मार्ग बताया, वह स्थितप्रज्ञ दशा तक आता है, लेकिन उससे आगे तो बहुत कुछ है! हम आपको स्वरूप का ज्ञान देते हैं, फिर तो आपको स्थितप्रज्ञ दशा से भी बहुत अधिक ऊँची दशा रहती है। स्थितप्रज्ञ दशा और आत्मा जानना इनमें बहुत फर्क है। स्थितप्रज्ञ, यानी प्रज्ञा में स्थिर होना, लेकिन वह रिलेटिव प्रज्ञा है, उसके बाद उसे आत्मा प्राप्त करना है और हम लोगों के पास जो प्रज्ञा है, वह आत्मा प्राप्त करने के बादवाली है, इसलिए राग-द्वेष किए बिना समभाव से हल आ जाता है! स्थितप्रज्ञ दशा मतलब शुद्ध हो चुकी बुद्धि से आत्मा के गुणधर्म जानता है और उसे पहचान जाता है, लेकिन अनुभूति नहीं होती। स्थितप्रज्ञ दशा से तो दुनिया को और सभी तत्वों को जानता है, पहचानता है, उसी को शुद्ध समकित कहते हैं। हम जो स्वरूपज्ञान देते हैं, उससे तो आत्मा की डायरेक्ट अनुभूति होती है, वह ‘परमार्थ समकित’ है, उससे जगत् को और जगत् के तत्वों को देखा जा सकता है, पहचाना जा सकता है और अनुभव किया जा सकता है!
स्थितप्रज्ञ दशा में इमोशनल नहीं होता। मोशन में रहे वह स्थितप्रज्ञ, लेकिन समाधि उत्पन्न नहीं होती। ज्ञान के बिना समाधि उत्पन्न नहीं होती। भ्रांति चली जाए, तब समाधि उत्पन्न होती है!
गीता में कृष्ण भगवान अंतिम स्टेशन किसे कहना चाहते हैं? उसमें स्थितप्रज्ञ दशा, वही अंतिम स्टेशन है। ‘यह स्थितप्रज्ञ दशा प्राप्त कर’ ऐसा कहते हैं। लेकिन लोगों को उनसे पूछना पड़ा कि, ‘स्थितप्रज्ञ क्या खाता है? वह क्या पीता है?’ तब भगवान को समझाना पड़ा कि, ‘जो प्रज्ञा में स्थिर हो चुके हैं, वे असार को एक ओर रख देते हैं और सार को ग्रहण करते हैं, वह स्थितप्रज्ञ दशा!’ और यह आपकी शुद्धात्मा दशा, यह तो उससे भी बहुत ऊँची दशा है। कृष्ण भगवान ने लिखा है न कि ‘तू वीतराग बनेगा तो निर्भय हो जाएगा!’
Book Name: आप्तवाणी 2 (Entire Page #387, Page #388 - Paragraph #1 to #3)
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