प्रश्नकर्ता : 'नमो लोए सव्वसाहूणं'
दादाश्री : 'लोए' यानी लोक, तो इस लोक में जितने साधु हैं उन सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ।
साधु किसे कहेंगे? जो सफेद कपड़े पहने, गेरुआ कपड़े पहने वे साधु नहीं कहलाएँगे। आत्मदशा साधे वे साधु। अर्थात् जिन्हें बिल्कुल देहाध्यास नहीं है, संसार दशा-भौतिक दशा नहीं, मगर आत्मदशा साधे उन साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ। अब ऐसे साधु कहाँ मिलेंगे? अब ऐसे साधु होते हैं? लेकिन इस ब्रह्मांड में जहाँ-जहाँ भी ऐसे साधु हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ।
संसार दशा में से मुक्त होकर आत्मदशा के लिए प्रयत्न करते हैं और आत्मदशा साधते हैं, उन सभी को नमस्कार करता हूँ। बाकी योग आदि जो सबकुछ करते हैं वे सारी संसार दशाएँ हैं। आत्मदशा, वही असल वस्तु है। कौन-कौन से योग में संसार दशा है? तब कहें, एक तो देहयोग, जिसमें आसन आदि करने पड़ें वे सभी देहयोग कहलाते हैं। फिर दूसरा मनोयोग, यहाँ चक्रों के ऊपर स्थिरता करना वह मनोयोग कहलाता है। और जापयोग करना, वह वाणी का योग कहलाता है। ये तीनों स्थूल शब्द हैं और उसका फल, संसार फल मिलता है। अर्थात् यहाँ बंगला मिले, गाडि़याँ मिलें। और आत्मयोग होने पर मुक्ति मिलती है, सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। वह आखिरी, बड़ा योग कहलाता है। सव्वसाहूणं यानी जो आत्मयोग साधकर बैठे हैं ऐसे सभी साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ।
अर्थात् साधु कौन? जिन्हें आत्मा की प्रतीति हुई है, उनकी गिनती हमने साधुओं में की। अर्थात् यह साहूणं को पहली प्रतीति और उपाध्याय को विशेष प्रतीति और आचार्य को आत्मज्ञान होता है। और अरिहंत भगवान, वे पूर्ण भगवान! इस रीति से नमस्कार किए हैं।
Book Name: त्रिमंत्र (Page # 18 Last #2 Paragraphs; Page #19 Paragraph #1,#2,#3)
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