प्रश्नकर्ता : 'नमो उवज्झायाणं' विस्तार से समझाइए।
दादाश्री : उपाध्याय भगवान। उसका अर्थ क्या होता है? जिसे आत्मा की प्राप्ति हो गई है और जो खुद आत्मा जानने के पश्चात् सभी शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर दूसरों को अभ्यास करवाते हैं, ऐसे उपाध्याय भगवान को नमस्कार करता हूँ।
उपाध्याय यानी खुद सबकुछ समझते ज़रूर हैं, फिर भी संपूर्ण आचरण में नहीं आए होते। वे वैष्णवों के हों, जैनों के हों या किसी भी धर्म के हों पर आत्मा प्राप्त किया होता है। आज के ये साधु वे सभी इस पद में नहीं आते। क्योंकि उन्होंने आत्मा प्राप्त नहीं किया है। आत्मा प्राप्त करने पर क्रोध-मान-माया-लोभ चले जाते हैं, कमज़ोरियाँ चली जाती हैं। अपमान करने पर फन नहीं फैलाते। ये तो अपमान करने पर फन फैलाते हैं न? वे फन फैलानेवाले नहीं चलेंगे वहाँ।
प्रश्नकर्ता : आपने ऐसा कहा कि उपाध्याय जानते हैं, लेकिन वे क्या जानते हैं?
दादाश्री : उपाध्याय यानी जो आत्मा को जानते हैं, कर्तव्य जानते हैं और आचार भी जानते हैं। फिर भी उनमें कुछ आचार होते हैं और कुछ आचार आने शेष हैं। लेकिन संपूर्ण आचार प्राप्त नहीं होने की वज़ह से वे उपाध्याय पद में हैं। यानी खुद अभी पढ़ रहे हैं और औरों को पढ़ा रहे हैं।
Book Name: त्रिमंत्र (Page #17 Paragraph #4, #5 & # 6 ; Page #18 Paragraph #1,#2,#3)
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