इस जगत् में कोई भी मनुष्य आपका कुछ भी नुकसान करता है, उसमें वह निमित्त है। नुकसान आपका है, इसलिए 'रिस्पोन्सिबल' (जिम्मेवार) आप हो। कोई मनुष्य किसीका कुछ कर सकता ही नहीं है, ऐसा यह स्वतंत्र जगत् है। और यदि कोई कुछ भी कर सकता होता तो 'फीयर' (डर) का कोई पार ही नहीं रहता! तब तो फिर कोई किसीको मोक्ष में ही जाने नहीं देता। तब तो फिर भगवान महावीर को भी मोक्ष में जाने नहीं देते। भगवान महावीर तो कहते हैं कि आपको जो अनुकूल हो, वैसा भाव मुझ पर करना, आपको मुझ पर विषय के भाव आएँ, तो विषय के करो, निर्विषय के भाव आते हैं तो निर्विषय के करो, धर्म के भाव आते हैं तो धर्म के करो, पूज्यपद के आते हैं तो पूज्यपद दो, गालियाँ देनी हों तो गालियाँ दो। मेरी उसके सामने कोई चुनौती नहीं है। जिन्हें चुनौती नहीं है, वे मोक्ष में जाते हैं और चुनौती देनेवाले का यहीं मुकाम रहता है!
नहीं तो यह जगत् तो ऐसा है न कि आपके ऊपर उल्टा या सुल्टा भाव करता ही रहता है। जेब में आप रुपये रख रहे हों और वह किसी जेबकतरे ने देख लिया तो जेब काटने का भाव करता है या नहीं करता? कि रुपये हैं, काट लेने जैसा है। पर उतने में गाड़ी आई और आप बैठ गए और आप चले गए और वह रह गया। पर ऐसा भाव तो करता ही है जगत्! पर उसमें आपकी चुनौती नहीं है तो कोई आपका नाम देनेवाला नहीं है। किसीके भी भाव में आपका भाव नहीं है तो कोई आपको बाँधनेवाला नहीं है। ऐसे बाँधे तो पार ही नहीं आए न! आप स्वतंत्र हो, कोई आपको बाँध सके ऐसा नहीं है।
जहाँ-जहाँ दोष होता हो, वहाँ उपकार मानना भीतर में, तो वह दोष बंद हो जाएगा। पुलिसवाले के ऊपर भी अभाव होता हो, तो उसका उपकार मानना। तब अभाव बंद हो जाएगा। आज कोई भी मनुष्य खटकता हो, तो कहना वह बहुत अच्छा मनुष्य है, वह तो हमारा उपकारी है, तो खटकना बंद हो जाएगा। मतलब ये जो शब्द हम देते हैं न, एक-एक शब्द दवाईयाँ हैं। ये सब मेडिसिन हैं, दरअसल!! नहीं तो 'चोर कहे उसका उपकार मानना,' यह वाक्य किस तरह समझ में आए उसे? तब फिर आप मुझे पूछने नहीं आओ और आपके परिणाम सारे बदल जाएँ। इसलिए उसके बजाय, तुम उपकार मानना। दादा का इतना कहा मानना कि उसका उपकार है भाई, इन दादा ने कहा है इसलिए।
प्रश्नकर्ता : दादा खुद उपकार मानते हों, फिर हम उपकार मानें, उसमें क्या हर्ज है फिर?
दादाश्री : हाँ, हमें ऐसा हिसाब लगाना चाहिए कि, 'अच्छा है चोर ही कहा है। लुच्चा है, बदमाश है, नालायक है, ऐसा सब तो नहीं कहता' उतना अच्छा है न? नहीं तो उसका मुँह है, इसलिए ठीक लगे उतना बोले। उसे कुछ नहीं कहा जा सकता हमसे? हमें उपकार मानना है। उपकार मानने से अपना मन नहीं बिगड़ता। समझ में आया न?
यह बात सैद्धांतिक है। कैसे, कि आप मुझसे कहो कि ''दादा, वह आपको 'चोर' कहता है तो आप क्या करोगे?'' तब मैं कहूँ कि, 'भाई, उपकार मानना।' क्यों कहते हैं कि उपकार मानो आप? 'किसके बदले?' तब कहते हैं, 'कोई कहता नहीं ऐसा? यह प्रतिघोष है किसीका, वह मेरा खुद का ही प्रतिघोष स्वरूप है। इसलिए उपकार मानता हूँ।' यह जगत् प्रतिघोष स्वरूप है। उसकी हन्ड्रेड परसेन्ट गारन्टी लिखकर देता हूँ मैं। यानी हम भी उपकार मानते हैं, तो आपको भी उपकार ही मानना चाहिए न! और आपका मन बहुत अच्छा रहेगा।
Book Name: निजदोष दर्शन से... निर्दोष! (Page #8 Paragragh #4, #5 & Page #9 Paragragh #1)
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