एक ध्यान में थे या बेध्यान में थे, इतना ही भगवान पूछते हैं। हाँ, वे बेध्यान नहीं थे। ‘नहीं होता’ का ध्यान किया और उसने ‘होता था’ का ध्यान किया। और कुछ भी नहीं। यह तो वही का वही है। यों तो एक ही चीज़ है, इधर से देखो तब भी और उधर से देखो तब भी। आप उस तरफ घूमेंगे तो बैक इस ओर कहलागी और इस तरफ घूमेंगे तो बैक उस ओर कहलाएगी।
हम तो ऐसा उल्टा चलाते कि ‘नहीं होती’। यदि उसकी जगह पर मैं होता तो मैं कब का बैठ जाता, ‘नहीं होती, नहीं होती।’ उससे फिर अतंराय वगैरह सब चले जाएँगे। अंतराय कहेंगे, इन्हें नहीं जीत सकते। ये तो उल्टा घूमकर बैठे हैं। यह दिशा उल्टी पड़ी तो हम ऐसे घूम गए। फिर उस दिशा की ओर आगे जाएँगे तब यह टेढ़ा हो जाएगा। तब फिर उस तरफ घूम जाना है। दिशाएँ घूमती रहेंगी। यानी यह सब एक का एक ही है लेकिन उसमें दो मत नहीं होने चाहिए। वहाँ पर घर याद आए ऐसा नहीं होना चाहिए। ‘नहीं होता, नहीं होता’, वही ध्यान होना चाहिए। किसी को दादा के सारे बाल सफेद दिखाई देते हैं और किसी को ध्यान में सारे काले दिखाई देते हैं। उससे कोई हर्ज नहीं है।
हमारा क्या काम है? ध्यान में एकाग्रता थी या नहीं? ध्यान कब कहलाता है? यदि एकाग्र हो जाए तो एक ही चीज़ है और ये सभी राम-राम बोलते हैं तो वह ध्यान नहीं है।
जबकि यह ध्यान तो दादाई ध्यान कहलाता है। यह तो आश्चर्य है! ध्यान करने वाले ‘चंदूभाई’, ध्यान का अनुभव करने वाले ‘चंदूभाई’ और जानने वाला आत्मा। अत: आप जानते हो कि ध्यान ठीक से ‘होता नहीं, होता नहीं’ और वह जानता है कि ‘होता है, होता है’।
*चन्दूलाल = जब भी दादाश्री 'चन्दूलाल' या फिर किसी व्यक्ति के नाम का प्रयोग करते हैं, तब वाचक, यथार्थ समझ के लिए, अपने नाम को वहाँ पर डाल दें।
त्रिमंत्र बोलते समय उपयोग...
हम 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' बोलें, तब कृष्ण भगवान नज़र आते हैं। इस तरह हम शब्दोच्चार करते हैं। अब कृष्ण भगवान, जो भले ही हमारे दर्शन में आये हुए हों, जो भी चित्र उभरा हो, फिर वे मुरलीवाले हों कि अन्य रूप में हों पर हमारे यह उच्चारण के साथ वे तुरंत दिखाई दें, बोलते ही दिखाई दें। बोलें और दिखाई नहीं दें, उसका अर्थ ही क्या?
नाम अकेला बोलने पर अकेले नाम का फल मिलेगा। पर साथ-साथ उनकी मूर्ति देखें, तो दोनों फल मिलेंगे। नाम और स्थापना दो फल मिलें तो बहुत हो गया।
प्रश्नकर्ता: ‘नमो अरिहंताणं’ बोलते समय मन में किस रंग का चिंतन करना चाहिए?
दादाश्री: ‘नमो अरिहंताणं’ बोलते समय किसी रंग का चिंतन करने की कोई जरूरत नहीं है। और यदि चिंतन करना हो तो आँखे मुँदकर न...मो... अ...रि...हं...ता...णं... ऐसे एक-एक शब्द नज़र आना चाहिए। उससे बहुत अच्छा फल प्राप्त होता है। आँखे मुँदकर बोलिए तो, न...मो... अ...रि...हं...ता...णं... ये अक्षर बोलते समय क्या मन में नहीं पढ़ सकते? अभ्यास करना, तो फिर तुम पढ़ पाओगे।
फिर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इसे भी आप आँखें मूँदकर बोलेंगे तो हर अक्षर दिखाई देगा। अक्षरों के साथ पढ़ पायेंगे। आप दो दिन अभ्यास करना, तीसरे दिन बहुत ही सुंदर दिखाई देगा।
मंत्रों का इस तरह चिंतन करना। यही ध्यान कहलाता है। यदि इस त्रिमंत्र का ऐसे ध्यान करें न, तो बहुत सुन्दर ध्यान हो जाये।
Book Name: प्रतिक्रमण ग्रंथ (Page # 555- Paragraph #2 to 3)
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