कुदरत क्या कहती है? उसने कितने रुपये खर्च किए वह हमारे यहाँ देखा नहीं जाता। यहाँ तो, वेदनीय कर्म क्या भुगता? शाता (सुख परिणाम) या अशाता, उतना ही हमारे यहाँ देखा जाता है। रुपये नहीं होंगे, फिर भी शाता भोगेगा और रुपये होंगे फिर भी अशाता भुगतेगा। अर्थात् वह जो शाता या अशाता वेदनीय कर्म भुगतता है, वह रुपयों पर आधारित नहीं है।
अभी आपकी थोड़ी आमदनी हो, बिल्कुल शांति हो, कुछ झंझट नहीं हो, तब कहना कि ‘चलो, भगवान के दर्शन कर आएँ!’ और ये सारे, जो पैसे कमाने में रहे, वे ग्यारह लाख कमाएँ, उसमें हर्ज नहीं है, लेकिन अभी पचास हज़ार का घाटा होने लगे तो अशाता वेदनीय उत्पन्न हो जाएगी! ‘अरे, ग्यारह लाख में से पचास हज़ार कम कर दे न!’ तब कहेगा कि ‘नहीं, उससे तो उसमें रकम घट जाएगी न!’ तब, रकम तू किसे कहता है? कहाँ से आई यह रकम? वह तो ज़िम्मेदारीवाली रकम थी, अत: कम हो जाए तो चिल्लाना मत। जब रकम बढ़े, तब तू खुश होता है और कम हो तब? अरे, सच्ची पूँजी तो ‘भीतर’ बैठी है, हार्ट ‘फेल’ करके उस सारी पूँजी को बरबाद करना चाहता है!! हार्ट ‘फेल’ करे, तो सारी पूँजी खत्म हो जाएगी या नहीं?
दस लाख रुपये बाप ने बेटे को दिए हों और बाप कहेगा कि ‘अब मैं आध्यात्मिक जीवन जीऊँगा!’ तो अब वह लड़का रोज़ाना शराब में, मांसाहार में, शेयर बाज़ार में, आदि में वह पैसा गँवा देता है। क्योंकि जो पैसे गलत रास्तों से जमा हुए हैं, वे खुद के पास नहीं रहते। आज तो खरा धन भी, खरी मेहनत की कमाई भी नहीं रहती, फिर खोटा धन कैसे रहेगा? अर्थात् पुण्य का धन चाहिए, जिसमें अप्रामाणिकता नहीं हो, नियत साफ़ हो। ऐसा धन होगा तो वही सुख देगा। वर्ना अभी दुषमकाल का धन, वह भी पुण्य का ही कहलाता है, लेकिन पापानुबंधी पुण्य का, जो निरे पाप ही बंधवाता है!
Reference: Book Name: पैसो का व्यव्हार (Page #18 - Paragraph #2 to #5, Page #19 - Paragraph #1)
उत्तम व्यापार, जौहरी का
मतलब पुण्यशाली को कौन-सा व्यापार मिलता है? जिसमें कम से कम हिंसा हो वह व्यापार पुण्यशाली को मिल जाता है। अब ऐसा व्यापार कौन-सा? हीरे-माणिक का, कि जिसमें कोई मिलावट नहीं है। पर उनमें भी जो कि आजकल चोरियाँ ही हो गई हैं। परन्तु जिसे मिलावट बिना करना हों तो कर सकता है। उसमें जीव मरते नहीं, कुछ उपाधी नहीं। और फिर दूसरे नंबर पर सोने-चाँदी का। और सबसे अधिक हिंसावाला व्यापार कौन-सा? यह कसाई का। फिर यह कुम्हार का। वेभी जलाते हैं न! इसलिए सब हिंसा ही है।
प्रश्नकर्ता: चाहे किसी भी चिंता का फल तो मिलता ही है न? हिंसा का फल तो भुगतना ही है न? चाहे फिर भावहिंसा हो या द्रव्यहिंसा हो?
दादाश्री: वे लोग भुगतते ही हैं न! सारा दिन तड़फड़ाहट और तड़फड़ाहट.....
जितने हिंसक व्यापारवाले हैं न, वे व्यापारी सुखी नहीं दिखते। उनके मुँह पर तेज नहीं आता कभी भी। जमीन का मालिक हल नहीं चलाता हो, उसे बहुत छूता नहीं है। जोतनेवाले को छूता है, इसलिए वह सुखी नहीं होता। पहले से नियम है यह सब। इसलिए दिस इज़ बट नेचरल। ये कामधंधे मिलना और ये सब नेचुरल है। यदि आप बंद कर दो न, तब भी वह बंद हो ऐसा नहीं है। क्योंकि उसमें कुछ चले ऐसा नहीं है। नहीं तो इन सभी लोगों के मन में विचार आए कि ‘लड़का सेना में जाए और मर जाए तो मेरी बेटी विधवा हो जाएगी।’ तब तो हमारे देश में वैसा माल पैदा ही नहीं हो। परन्तु नहीं, वह माल हर एक देश में होता ही है। कुदरती नियम ऐसा ही है। इसलिए यह सब कुदरत ही पैदा करती है। इसमें कुछ नया होता नहीं है। कुदरत का इसके पीछे हाथ है। इसलिए बहुत वैसा रखना मत।
Reference: Book Excerpt: अहिंसा (Page #25 - Paragraph #2 to #5)
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Q. शुद्ध लक्ष्मी कि क्या निशानी है? अशुद्ध और भ्रष्टाचार से मिले हुए पैसो का क्या परिणाम होता है?
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