जब तक कभी टेढ़ा धंधा शुरू नहीं हो, तब तक लक्ष्मी जी नहीं जाती। टेढ़ा रास्ता, वह लक्ष्मी जाने का निमित्त है!
यह काला धन कैसा कहलाता है, वह समझाऊँ। यदि बाढ़ का पानी अपने घर में घुस जाए तो अपने को खुशी होती है कि घर बैठे पानी आया। तो जब वह बाढ़ का पानी उतरेगा तब पानी तो चला जाएगा, और फिर जो कीचड़ रहेगा, उस कीचड़ को धोकर निकालते-निकालते तेरा दम निकल जाएगा। यह कालाधन बाढ़ के पानी की तरह है, वह रोम-रोम में काटकर जाएगा। इसलिए मुझे सेठों से कहना पड़ा कि, ‘सावधानी से चलना।’
लक्ष्मी जी तो देवी हैं। व्यवहार में भगवान की पत्नी कहलाती हैं। यह सब तो पद्धति के अनुसार ‘व्यवस्थित’ है, लेकिन भीतर चल-विचल होने से गड़बड़ खड़ी होती है। भीतर चल-विचल नहीं होगा, तब लक्ष्मी जी बढ़ेंगी। यह भीतर चल-विचल नहीं हो तो ऐसा नहीं होता कि, ‘क्या होगा? क्या होगा?’ ऐसा हुआ कि लक्ष्मी जी चलती बनेंगी।
भगवान क्या कहते हैं कि, ‘तेरा धन होगा न, तो तू पेड़ उगाने जाएगा और तुझे मिल जाएगा। उसके लिए जमीन खोदने की ज़रूरत नहीं है।’ इस धन के लिए बहुत माथापच्ची करने की ज़रूरत नहीं है। बहुत मज़दूरी से तो मात्र मज़दूरी का धन मिलता है। बाकी, लक्ष्मी के लिए बहुत मेहनत की ज़रूरत नहीं है। यह मोक्ष भी मेहनत से नहीं मिलता। फिर भी लक्ष्मी के लिए ऑफिस जाकर बैठना पड़ता है, उतनी मेहनत करनी पड़ती है। गेहूँ उगे हों या नहीं उगे हों, फिर भी तेरी थाली में रोटी आती है या नहीं? ‘व्यवस्थित’ का नियम ही ऐसा है!
जिसे हम याद करते हैं, वह दूर होता जाता है। इसलिए लक्ष्मी जी को याद नहीं करना चाहिए। जिसे याद करें वह कलियुग के प्रताप से रूठता जाता है, और सत्युग में वह याद करते ही आ जाता है। लक्ष्मी जी जाएँ तब ‘आइएगा’ और आएँ तब ‘पधारिए’ कहना होता है। वह कोई थोड़े ही भजन करने से आती है? लक्ष्मी जी को मनाना नहीं चाहिए। सिर्फ स्त्री को ही मनाना चाहिए।
ऑनेस्टी इज़ द बेस्ट पॉलिसी और सत्य कभी भी असत्य नहीं बनता है। लेकिन श्रद्धा डगमगा गई है और काल भी ऐसा है। रात में किसकी सत्ता होती है? चोरों का साम्राज्य होता है। तब यदि अपनी दुकान खोलकर बैठें, तब तो वे सब उठा ले जाएँगे। यह काल तो चोरों का है। उससे क्या हमें अपनी पद्धति बदल देनी चाहिए? सुबह तक दुकान बंद रखो, लेकिन अपनी पद्धति तो नहीं ही बदलनी चाहिए। ये राशन के नियम हों, उसमें कोई ‘पोल’ (गड़़बड़़,गफलत,घोटाला) मारकर चलता बने, तो वह लाभ मानता है, और दूसरे क्यों नहीं मानते? यह तो, यदि घर में सभी असत्य बोलें तो किस पर विश्वास करें? और यदि एक पर विश्वास करें, तब तो सभी पर विश्वास करना चाहिए न? लेकिन यह तो घर में विश्वास, वह भी अंधा विश्वास करता है। किसी की सत्ता नहीं, कोई कुछ कह सके, ऐसा नहीं है। यदि खुद की सत्ता होती तब तो कोई स्टीमर डूबता ही नहीं। लेकिन ये तो लट्टू हैं, प्रकृति नचाए वैसे नाचते हैं। पर-सत्ता क्यों कहा है? अपने को पसंद हो वहाँ भी ले जाता है और नहीं पसंद हो, वहाँ भी ले जाता है। नहीं पसंद हो, वहाँ पर तो वह अनिच्छा से भी जाता है, इसलिए वह परसत्ता ही है न!
‘ऑनेस्टी इज़ द बेस्ट पोलिसी’ रखनी चाहिए। लेकिन यह वाक्य अब बेअसर हो गया है। इसलिए अब से हमारा नया वाक्य रखना, ‘डिसओनेस्टी इज़ द बेस्ट फूलिशनेस’। वह पहलेवाला पॉज़िटिव वाक्य लिखकर तो लोग घनचक्कर हो गए हैं। ‘बीवेयर ऑफ थीव्ज़’ का बोर्ड लिखा है, फिर भी लोग लुट गए तो फिर बोर्ड किस काम का? फिर भी लोग यह ‘ऑनेस्टी इज़ द बेस्ट पोलिसी’ का बोर्ड लगाते हैं, फिर भी ऑनेस्टी रह नहीं पाती। तो वह बोर्ड किस काम का? अब तो नये शास्त्रों की और नये सूत्रों की ज़रूरत है। इसलिए हम कहते हैं कि, ‘डिसऑनेस्टी इज़ द बेस्ट फूलिशनेस’ का बोर्ड लगाना।
आज के इस काल में भी हम नीतिवाला व्यवसाय कर सकते हैं जानिये कैसे।
Book Name: आप्तवाणी 2 (Page #100 - Paragraph #3 to #5, Entire Page #101, Page #102 - Paragraph #1 & #2)
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