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किस तरह चित शुध्ध होता है, जिससे सत् चित आनंद स्वरूप बन सके?

शुद्ध चिद्रूप

प्रश्नकर्ता: चित्त की शुद्धि किस तरह होती है?

दादाश्री: यह चित्त की शुद्धि ही कर रहे हो न? चित्त का अर्थ लोग अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं, चित्त नाम की वस्तु कुछ अलग है ऐसा समझते हैं। चित्त अर्थात् ज्ञान-दर्शन मिलाने से जो भाव उत्पन्न होता है वह। चित्त की शुद्धि करनी अर्थात् ज्ञान-दर्शन की शुद्धि करनी। शुद्धात्मा को क्या कहते हैं? शुद्ध ‘चिद्रूप’। जिसका ज्ञान-दर्शन शुद्ध हुआ है, ऐसा जो स्वरूप खुद का है, वही शुद्ध चिद्रूप है।

प्रश्नकर्ता: जिसे हम सच्चिदानंद कहते हैं वह?

दादाश्री: सच्चिदानंद तो अनुभवदशा है और यह शुद्धात्मा वह प्रतीति और लक्ष्य दशा है। वही की वही वस्तु, शुद्ध चिद्रूप और शुद्धात्मा, एक ही चीज़ है। हम स्वरूप का ‘ज्ञान’ देते हैं तब आपका चित्त संपूर्ण शुद्ध हो जाता है। अब सिर्फ यह बुद्धि ही परेशान करती है, वहाँ सँभाल लेना है। बुद्धि को सम्मानपूर्वक वापिस भेज देना। जहाँ खुद का स्वरूप है, वहाँ पर अहंकार नहीं है। कल्पित जगह पर ‘मैं हूँ’ बोलना वह अहंकार और मूल जगह पर ‘मैं’, उसे अहंकार नहीं कहते। वह निर्विकल्प जगह है।

मनुष्य में ‘मैं-तू’ का भेद उत्पन्न हुआ, इसलिए कर्म बाँधता है। कोई जानवर बोलता है कि ‘मैं *चंदूलाल हूँ?’ उसे यह झंझट ही नहीं न? अर्थात् यह आरोपित भाव है, उससे कर्म बँधते हैं।

Reference: Book Excerpt: आप्तवाणी 5 (Page #128 - Paragraph #1 to #5)

अंत:करण का तीसरा अंग : चित्त

अंत:करण का तीसरा अंग चित्त है। चित्त का कार्य भटकने का है, वह ज्यों की त्यों फोटो खींच देता है। यहाँ बैठे-बैठे अमरीका की यथावत् फिल्म दिखलानेवाला चित्त है। मन इस शरीर से बाहर जाता ही नहीं। जाता है, वह चित्त है और बाहर जो भटकता है, वह अशुद्ध चित्त है। शुद्ध चित्त वही शुद्ध आत्मा है।

चित्त अर्थात् ज्ञान + दर्शन।

अशुद्ध चित्त अर्थात् अशुद्ध ज्ञान + अशुद्ध दर्शन।

शुद्ध चित्त अर्थात् शुद्ध ज्ञान + शुद्ध दर्शन।

मन पैम्फलेट दिखलाता है और चित्त पिक्चर दिखलाता है। ये दोनों जिसमें सिर मारते हैं, उसमें बुद्धि डिसीज़न देती है और अहंकार हस्ताक्षर करता है, तब काम होता है। चित्त वह अवस्था है। अशुद्ध ज्ञान-दर्शन के पर्याय ही चित्त है। बुद्धि के डिसीज़न देने से पहले मन और चित्त की कश्मकश चलती है, लेकिन डिसीज़न आने के बाद सभी चुप। बुद्धि को एक ओर बिठा दें, तो चित्त या मन कोई परेशान नहीं करता।

अनादि काल से चित्त निज घर की खोज में है। वह भटकता ही रहता है। वह तरह-तरह का देखा करता है। इसलिए उसके पास अलग-अलग ज्ञान-दर्शन जमा होते जाते हैं। चित्तवृत्ति जो-जो देखती है उसका स्टॉक करती है और वक्त आने पर ऐसा है, वैसा है, वह दिखलाती है। चित्त जो जो कुछ देखता है उसमें यदि चिपक गया, तो उसके परमाणु खींचता है और वे परमाणु जमा होकर उनकी ग्रंथियाँ बनती हैं, जो मन स्वरूप है। वक्त आने पर मन पैम्फलेट दिखाता है, उसे चित्त देखता है और बुद्धि डिसीज़न देती है।

ये आपकी जो चित्तवृत्तियाँ बाहर भटकती थीं और संसार में रमणता करती थीं, उन्हें हम अपनी ओर खींच लेते हैं इसलिए वृत्तियों का अन्यत्र भटकना कम हो जाता है। चित्तवृत्ति का बंधन हुआ, वही मोक्ष है।

अशुद्ध चित्तवृत्तियाँ अनंतकाल से भटकती थीं और जिस मुहल्ले में जाती हों, वहाँ से वापस लाना चाहें, तो उल्टा उसी मुहल्ले की ओर खिंची चली जाती थीं। ऐसी वृत्तियाँ निज घर में वापस लौटती हैं, यही अजूबा है न? चित्तवृत्तियाँ जितनी-जितनी जगहों पर भटकेंगी, उतनी-उतनी जगहों पर देह को भी भटकना पड़ेगा। क्रमिक मार्ग में तो मन के अनंत पर्यायों को और फिर चित्त के अनंत पर्यायों पार करते-करते, रिलेटिव अहंकार तक पहुँचते हैं (आईने में देखने जैसा) और आपको तो हमने यह सब पार करवाकर सीधे स्वरूप में बिठा दिया है, निज घर में!

निज घर की खोज में चित्त भटकता रहता है। इसलिए वह जो देखता है, उसीमें सुख खोजता है। जहाँ-जहाँ पर चित्त स्थिर होता है, वहाँ-वहाँ पर अंत:करण का शेष भाग शांत रहता है, इसलिए सुख लगता है। लेकिन स्थिर रहता कितनी देर है? चित्त फिर दूसरी जगह जाता है। इसलिए उसे दूसरे में वहाँ सुख लगता है और पहलेवाला सुख दु:खदायी हो जाता है, क्योंकि जिस बाह्य सुख की खोज में है वह पारिणामिक रूप से दु:खदायी है। क्योंकि बुद्धि आरोपण किए बगैर रहती ही नहीं कि इसमें सुख नहीं है, दु:ख है। अत: चित्त पुन: भटकता है। जब तक चित्तवृत्ति निज घर में स्थिर नहीं होती, तब तक इसका अंत आनेवाला नहीं है। जब सच्चा सुख चखेगा, तब काल्पनिक सुख अपने आप फीके पड़ते जाएँगे। फिर जो भटकता है, वह अशुद्ध चित्त है, और उसे जैसा है वैसा देखनेवाला और जाननेवाला शुद्ध चित्त है। अशुद्ध चित्त के पर्याय फिर धीरे-धीरे कम होते-होते बंद ही हो जाते हैं। और फिर केवल शुद्ध चित्त के पर्याय रहते हैं, वही ‘केवलज्ञान’।

ज्ञानीपुरुष अशुद्ध चित्त को हाथ नहीं लगाते। केवल खुद का शाश्वत सुख, अनंत सुख का जो कंद है, वह चखा देते हैं, ताकि निज घर मिलते ही शुद्ध चित्त, जो कि शुद्धात्मा है, प्राप्त हो जाता है और शुद्ध चित्त ज्यों-ज्यों शुद्ध और सिर्फ शुद्ध को ही देखता है, त्यों-त्यों अशुद्ध चित्तवृत्ति फीकी पड़ते-पड़ते, आखिर में केवल शुद्ध चित्त ही शेष बचता है। फिर अशुद्ध चित्त के पर्याय बंद हो जाते हैं। फिर जो शेष बचता है, वह केवल शुद्ध पर्याय।

* चन्दूलाल = जब भी दादाश्री 'चन्दूलाल' या फिर किसी व्यक्ति के नाम का प्रयोग करते हैं, तब वाचक, यथार्थ समझ के लिए, अपने नाम को वहाँ पर डाल दें। 

Reference: Book Excerpt: आप्तवाणी 1 (Page #119 - Paragraph #3 to #8, Entier Page #120, Entier Page #121 - Paragraph #1 & #2)

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