आजकल जीवन इतनी तेज़ी से चल रहा है कि जहाँ देखें वहाँ काम का टेंशन, स्ट्रेस, चिंता और परेशानी में लोग तड़फड़ा रहे हैं। ज़्यादातर लोग मानसिक अशांति महसूस करते हैं। अगर थोड़ी सी भी मन को शांति मिले, अंदर ठंडक हो, तो मनुष्य को अच्छा सूझे, लेकिन इस घुटन में सबसे पहले उल्टा और नेगेटिव ही ज़्यादा सूझता है। इसलिए हमेशा पॉज़िटिव नहीं रहा जाता। दूसरे अनेक कारण हैं, जिनकी वजह से नेगेटिव होता है। वे निम्नलिखित हैं:
नेगेटिविटी का सबसे बड़ा कारण है विपरीत बुद्धि और पॉज़िटिविटी का कारण है सम्यक् बुद्धि। विपरीत बुद्धि को श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में व्यभिचारिणी बुद्धि कहा है और सम्यक् बुद्धि को अव्यभिचारिणी बुद्धि कहा है। सौ पॉज़िटिव में से एक नेगेटिव ढूँढकर दुःखी हो और परिस्थिति को कोसती रहे, वह विपरीत बुद्धि। विपरीत बुद्धिवाला खुद तो दुःखी होता ही है और सब को भी दुःखी कर देता है। जबकि सम्यक् बुद्धि सौ नेगेटिव में से भी एक पॉज़िटिव ढूँढकर, दुःख में से सुख ढूँढ लेती है।
ज़्यादातर विपरीत बुद्धि हमें गलत करना दिखाती है, उल्टे में गहरा डूबा देती है। जबकि सम्यक् बुद्धि उल्टे रास्ते पर जा रहे हों, वहाँ से हमें सही रास्ते पर ले जाती है। सम्यक् बुद्धि और विपरीत बुद्धि के बीच लगातार संघर्ष चलता रहता है। लेकिन कलियुग में ज़्यादातर विपरीत बुद्धि होती है, इसलिए वह हावी हो जाती है। परिणाम स्वरूप, हमेशा पॉज़िटिव नहीं रह सकते। जहाँ हृदय का उपयोग होता है, वहाँ पॉज़िटिव होते हैं और बुद्धि का उपयोग होता है, वहाँ नेगेटिव। क्योंकि बुद्धि हमेशा "मेरा स्वार्थ", " मुझे फायदा ", "मुझे किसमें सुख मिलेगा?" यही दिखाती रहती है।
अक्सर हमें अपने नज़दीकी व्यक्तियों के नेगेटिव ज़्यादा दिखाई देते हैं। क्योंकि रात-दिन साथ रहते हैं, इसलिए कहीं न कहीं टकराव हुआ हो, एडजस्टमेंट नहीं लिए हों और आमने-सामने एक दूसरे को दुःख हुआ हो। परिणाम स्वरूप, व्यक्ति के प्रति नेगेटिव अभिप्राय बँध जाते हैं कि "ये ऐसे ही हैं", "हमेशा ऐसा ही करते हैं" इत्यादि।
व्यक्तियों के लिए पॉज़िटिव और नेगेटिव दोनों तरह के अभिप्राय हो सकते हैं। लेकिन अक्सर, व्यक्तियों के नेगेटिव अभिप्राय ज़्यादा होते हैं इसलिए नज़दीकी व्यक्तियों के बारे में बहुत कम पॉज़िटिव बोला जाता है, जबकि नेगेटिव ज़्यादा बोला जाता है। व्यक्ति के लिए जितने नेगेटिव अभिप्राय होंगे उतने हमें द्वेष, दुःख और भुगतना रहता है और सामने वाले को भी उसके नेगेटिव स्पंदन पहुँचेंगे।
हम अपने व्यू पोइन्ट के आधार पर व्यक्तियों को दोषित देखते हैं। जैसे कि, "यह ऐसा करता है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए।" इसलिए हमें उस व्यक्ति के लिए नेगेटिव होता है।
दोषित देखने के पीछे हमारी नासमझी काम करती है। कोई हमें "बोलना बंद करो" कहकर बोलने से रोके, तो हमें तुरंत गुस्सा आ जाता है, वह व्यक्ति दोषित दिखता है और झगड़ा भी हो जाता है। लेकिन मानो कि, अगर हम रिकॉर्डिंग कर रहे हों तब माइक की बैटरी खत्म हो जाए और हमारा बोलना बंद हो जाए तो? तब किसी के दोष या नेगेटिव नहीं दिखते, ना ही किसी पर गुस्सा आता है। प्रतिकूल संयोग इकट्ठे हों तब वे किसी व्यक्ति के निमित्त से हों या परिस्थिति के निमित्त से, वहाँ पॉज़िटिव दृष्टि रहे तो दोषित नहीं दिखेगा।
गलत समझ से नेगेटिव होता है, जबकि सही समझ से पॉज़िटिव की ओर जाते हैं। इसलिए अपनी दृष्टि अगर बदल दें, तो नेगेटिव संयोगों में भी पॉज़िटिव रह सकते हैं।
नेगेटिव होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण है कषाय। यानी कि हमारे ही क्रोध, मान, माया और लोभ। कोई हमारा ज़रा सा अपमान करे, जैसे कि सबके बीच नीचा दिखाए या उपेक्षा करे, तो हमारा मान कषाय हमें उस व्यक्ति के लिए नेगेटिव करवाता है। कोई ज़रा सा अहंकार को छेड़े तो नेगेटिव हुए बिना रहता ही नहीं।
उसी तरह से, हमारा मोह या अपेक्षा पूरी ना हो; जैसे कि हमें कोई चीज़ चाहिए और वह ना मिले तो नेगेटिव हो जाता है। अपने सुख में ज़रा भी खरोंच आए तब नेगेटिव होता है।
हमारी ही स्वार्थ बुद्धि, लालच, मनमानी करना, मान की भूख और हमारा ही मोह हमें अंत में नेगेटिव की ओर ले जाते हैं।
नेगेटिव दृष्टि की हमारे अंदर घुसने की शुरुआत बचपन से ही दूसरों को देख-देखकर होती है। उदाहरण के तौर पर, लड़का बचपन में दोस्तों से मार खाकर रोते-रोते आए, तो उसकी माँ उसे कहती है, "कैसे हो? मार खाकर आए! सामने दो-चार मारकर नहीं आ सकते थे?” इस तरह, बचपन में मिला हुआ ज्ञान, बाद में बच्चा बड़ा होता है तब वर्तन में आता है। लेकिन इसके बदले अगर बचपन में ही बच्चे को पॉज़िटिव दृष्टि मिली हो, तो बड़े होने के बाद उसका पॉज़िटिव वर्तन आकर रहता है।
नेगेटिव दृष्टि के मूल में मुख्य तौर पर नेगेटिव अहंकार है। अहंकार को पोषण मिले तो पॉज़िटिव होता है और अहंकार को ठेस लगे तो नेगेटिव हो जाता है। अपनी धारणा के अनुसार काम हो तो अहंकार कैफ़ में घूमता है कि "हम तो ऐसे काम खत्म कर देते हैं!” और अपनी धारणा से विरुद्ध हो तो निराश और नेगेटिव हो जाता है।
अहंकार निरंतर "मैं किस तरह दूसरों से बेहतर, ज़्यादा श्रेष्ठ दिखूँ, सामने वाला किस तरह मुझसे बुरा है" इसे साबित करने की और उसके लिए बुद्धि की तुलनाएँ निरंतर चलती ही रहती हैं। अहंकार दूसरों को नीचा दिखाए, दूसरों को बुरा कहे तो ही खुद अच्छा है ऐसा साबित होता है। इसलिए, मूल अहंकार में से ही नेगेटिविटी का जन्म होता है।
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