पॉज़िटिव और नेगेटिव दृष्टि को पहचानने का थर्मोमीटर यह है कि जो दृष्टि दूसरों को दुःख दे, खुद को दुःखी करे, जिससे दूसरों की ईर्ष्या और निंदा हो या बैर बँधे ये सब नेगेटिव है। जब इससे बिल्कुल उल्टी दृष्टि, यानि कि जो दृष्टि खुद को सुख दे और दूसरों को भी सुखी करे वह पॉज़िटिव दृष्टि है।
संसार व्यवहार में ज़्यादातर नेगेटिव दृष्टि ही लगातार काम करती रहती है। बहुत कम बार पॉज़िटिव दृष्टि इस्तेमाल होती है। पॉज़िटिविटी और नेगेटिविटी को कुछ लक्षणों और परिणामों के आधार से पहचान सकते हैं, जो इस प्रकार हैं।
पॉज़िटिव का मतलब है ऐसी दृष्टि जो सीधा देखती है, जो दृष्टि उल्टे में भी सीधा ढूँढ निकाले। हर मामले में, हर जगह पर सीधा ही दिखाई दे उसे सम्यक् दर्शन या सम्यक् दृष्टि कहते हैं।
पॉज़िटिव दृष्टि वालों को व्यवहार में छोटी छोटी बातो में ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े प्रसंग आए फिर भी सीधा ही दिखता है। पॉज़िटिव दृष्टि हो वहाँ अंदर क्लेश, जलन, ईर्ष्या, झगड़ा या कलह नहीं होता। पॉज़िटिव दृष्टि वाला व्यक्ति खुद आनंद में रहता हैI इतना ही नहीं, उसके आसपास के लोगों को भी उस पॉज़िटिविटी के स्पंदन पहुँचते हैं इसलिए लोग भी सुखी रहते हैं।
पॉज़िटिव दृष्टि वाले व्यक्ति को निष्फलता आए तो भी वह हार मानकर नहीं बैठा रहता, बल्कि दूसरी बार "क्यों नहीं हो सकता? कोशिश तो करें!" ऐसा सकारात्मक अभिगम रखकर कोशिश जारी रखता हैI
पॉज़िटिव दृष्टि वाले व्यक्ति का हृदय भावुक होता है, मानवीय होता है। कोई व्यक्ति खुद का अपमान करे तब, "कोई मेरा ऐसा अपमान करे तो मुझे दुःख होता है, इसलिए मुझे किसी का ऐसा अपमान नहीं करना चाहिए।" इस तरह पॉज़िटिव निष्कर्ष निकाल कर आगे बढ़ता है। जहाँ पॉज़िटिव दृष्टि होती है, वहाँ भीतर में बदले की भावना, बैर, नोंध या शिकायत नहीं होतीं।
दृष्टि यदि एक बार पूरी तरह से पॉज़िटिव हो जाए, तो फिर कोई दूसरा आकर चाहे कितना भी नेगेटिव क्यों न करे, फिर भी खुद को नेगेटिव खड़ा होता ही नहीं है। पॉज़िटिव दृष्टि की शुरूआत जीवन में संसार व्यवहार से होती है और वह अध्यात्म की सीढ़ियाँ चढ़कर अंत में आत्मा तक ले जाती है।
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि पॉज़िटिव लोग तो कैसे होते हैं? जैसे अगरबत्ती को जलाएँ तो उसकी पूरे रूम में सुगंध आती है। जिस तरह अगरबत्ती खुद जलती है, लेकिन दूसरों को सुगंध देती है, उसी तरह पॉज़िटिव लोगो की पॉज़िटिविटी की सुगंध आसपास के लोगों को आए बिना रहती ही नहीं।
संत और ज्ञानी खुद पॉज़िटिव होते हैं। संत तुकाराम के जीवन की एक सुंदर प्रसंग है। एक दिन, वे नदी में नहाकर सीढ़ियाँ चढ़कर भगवान के चरणों में प्रणाम करने जा रहे थे, तब उनके रास्ते में एक व्यक्ति ने उन पर थूक दिया। थूकने से शरीर अशुद्ध हो गया, ऐसे भगवान के मंदिर में नहीं जा सकते, इसलिए संत तुकाराम दोबारा नदी में नहाने गए। जब वे नहाकर बाहर निकले, तो उसी व्यक्ति ने फिर से उन पर थूक दिया। तो संत दोबारा नहाने चले गए। ऐसा करते करते इक्कीस बार वे नहाकर बाहर निकले और इक्कीस बार उस व्यक्ति ने संत तुकाराम पर थूका। लेकिन हर बार एकदम सहजता से, बिल्कुल भी भाव बिगाड़े बिना वे नहाने जाते रहे। उन्हें बिलकुल भी दुःख नहीं हुआ। जब इक्कसवीं बार नहा कर वो वापस बहार आए तो उस थूकने वाले व्यक्ति को अंदर ज़बरदस्त पश्चात्ताप हुआ। उसने संत तुकाराम के चरणों में गिरकर माफी माँगी। उसे एहसास हुआ कि इन संत में कितनी ज़्यादा शक्ति है। संत तुकाराम के ऐसे पॉज़िटिव दृष्टिकोण से थूकने वाले को अपनी कमज़ोरी दिखाई दी।
परम पूज्य दादा भगवान अपने ही जीवन का एक उदाहरण देते हैं कि जिसमें उनकी माताजी, झवेर बा ने उनमें बचपन से ही नेगेटिव परिस्थितियों में पॉज़िटिविटी के बीज बोए थे।
मार खाकर आना, मारना मत
दादाश्री: बचपन में एक बार किसी को एक छोटे से पत्थर से मारकर आया था तो उसे खून निकल आया। तब फिर, लोग मुझे मारने न आएँ, इसलिए मैं चुपचाप घर आ गया! झवेर बा को पता चल गया।
प्रश्नकर्ता: जब आप किसी को मारकर आते थे, तब बा आपको मारते थे क्या?
दादाश्री: समझाते थे। उसके बाद उन्होंने मुझसे कहा कि 'भाई यह क्या किया? देख, उसे खून निकला। यह तूने क्या किया?' मैंने कहा, 'मारता नहीं तो और क्या करता?' तब उन्होंने कहा, 'वह तो उसकी चाची के पास रहता है, उसकी माँ भी नहीं है तो उसे कौन पट्टी वगैरह बाँधेगा और कितना रो रहा होगा बेचारा और कितना दुःख हो रहा होगा! अब कौन उसकी सेवा करेगा? और मैं तो तेरी मदर हूँ, तेरी सेवा करूँगी। अब से तू मार खाकर आना लेकिन किसी को पत्थर मारकर और खून बहाकर मत आना। तू पत्थर खाकर आना तो मैं तुझे ठीक कर दूँगी लेकिन उसे कौन ठीक करेगा बेचारे को'।
ऐसी मदर बनाएँ महावीर
प्रश्नकर्ता: अभी तो सब उल्टा ही है। बल्कि ऐसा कहते हैं कि 'देख लेना! अगर मार खाकर आया तो!'
दादाश्री: हमेशा से ही उल्टा, आज से नहीं। अभी इस काल की वजह से यह नहीं हुआ है, वह हमेशा से उल्टा ही था। ऐसा ही है यह जगत्! इसलिए लोग तो ऐसा सिखाते हैं कि 'अगली बार लकड़ी लेकर जाना'। सब दुःखी करने के तरीके! ये माताजी तो मुझे अच्छा सिखाती थीं, सबकुछ अच्छा सिखाती थीं। मुझे बहुत अच्छा लगता था। बोलो! अब ऐसी माँ महावीर बनाएगी या नहीं? मेरी माताजी थीं ही ऐसी! बचपन में यह बात हुई थी फिर बड़े होने पर समझदारी बढ़ी तो और ज़्यादा समझ में आया। बाकी, यदि ऐसा सिखाए तो पहले तो अच्छा ही नहीं लगेगा न? लेकिन मुझे अच्छा लगा था। मैंने कहा, 'बा जो कह रही हैं, वह बात सही है। उस बेचारे की मदर नहीं है'। इसलिए फिर समझ गया तुरंत ही, और तभी से मारना बंद हो गया।
हालाँकि, इस कलियुग में पॉज़िटिविटी की तुलना में नेगेटिविटी अधिक देखने को मिलती है। नेगेटिविटी सीधी पकड़ी नहीं जाती, लेकिन इसके कई दुःखदायी परिणाम होते हैं, जिनसे हम नेगेटिविटी को पहचान सकते हैं।
कई लोगों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा नेगेटिव ही दिखाई देता है। ज़रा सी असुविधा या दुःख आए तो तुरंत ही उसमें से नेगेटिव ढूँढ लेते हैं और दुःखी होते रहते हैं। अरे, जो माता-पिता हमें बचपन से पालने-पोसने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं, फिर भी हम उनके उपकार भूल जाते हैं और उनके भयंकर नेगेटिव भी देख सकते हैं! नेगेटिव अहंकार इतना ज़्यादा संवेदनशील हो गया है, कि जहाँ किसीने छोटी सी गलती निकली, या थोडा सा दुःख आया, वहाँ रिश्ता तोड़ने के लिए तैयार हो जाता है। यह नेगेटिविटी बढ़ती है तब रिश्तों से दूर हो जाना, घरबार छोड़ देने या अंत में संसार छोड़ देने तक के विचार आ जाते हैं।
अगर किसी जगह सफलता नहीं मिलती तो नेगेटिव दृष्टि खुद को बहुत दुःख में डाल देती है। नेगेटिव लोग निष्फलता में दोबारा प्रयास करने के बजाय "करना है, पर होता नहीं!" ऐसे नेगेटिव गाने गाते रहते हैं, जिससे अपनी निष्फलता का अंदर ही अंदर बचाव होता रहता है।
करीबी लोग या जिनके साथ लंबे समय तक रहना हो, उनके प्रति नेगेटिव अभिप्राय इकट्ठे होने लगते हैं। खासकर, जिनकी संकुचित दृष्टि होती है उन्हें ऐसी परिस्थितियों में पूरा विज़न नहीं दिखता। इसलिए, जितना खुद को दिखता है उसी के आधार पर तुरंत अभिप्राय देकर नेगेटिव छवि बना लेते हैं। फिर व्यक्ति के साथ भेद बढ़ने लगता है, जिसके बढ़ जाने पर क्लेश, बहस और झगड़े भी होते हैं।
यदि सास की तरफ़ से बहू को कोई दुःख हुआ हो तो, सास ने मेरे साथ ऐसा किया याद कर कर के बहू दुःखी होती रहती है। इतना ही नहीं, लेकिन अंदर नोंध हो जाती है और कलेजे में लिख जाता है और मरते दम तक वह नोंध मिटती नहीं है। दुःख देने वाला व्यक्ति तो आराम से भूल जाता है लेकिन जिसे दुःख हुआ है, उसे वह याद आता रहता है। परिणाम स्वरूप, खुद लगातार बोझ में रहता है।
नेगेटिव दृष्टि वाले लोग बहुत वहमी और शंकाशील होते हैं। उस व्यक्ति को खुद भी इस बात का एहसास नहीं होता, उस तरह अंदर उसकी बुद्धि अजीब तरीके से काम करती है। परिणाम स्वरूप, उस व्यक्ति के साथ रहने वाले या उसके संपर्क में आने वाले लोगों को बहुत परेशान होना पड़ता है। क्योंकि ऐसे लोग बात बात पर शक करते हैं और कभी सीधा देखते ही नहीं। जैसे कि, अगर पति किसी दूसरी स्त्री से हँस हँसकर बात करता है, तो पत्नी को शक होता है और वह पूछती है, "उसमें ऐसा क्या देखा?" जब पति को भी पत्नी किसी और के साथ बात करे तो शक होता है। परिणाम स्वरूप, पति-पत्नी के जीवन में क्लेश की शुरुआत हो जाती है।
नेगेटिव सोच रखने वाले व्यक्ति को किसी से दुःख मिलता है, तो उसका बदला न ले ले तब तक उसे चैन नहीं मिलता। “उसने मुझे ऐसा कहा, तो मैं उसे ऐसा सुना दूँगा। उसे सीधा कर दूँगा।” ऐसे खयाल लगातार चलते रहते हैं। "टिट फॉर टैट" यानी "जैसे को तैसा" होने जाता है।
जैसे कि, ऑफिस में किसी सहकर्मी ने खुद का अपमान किया हो या उन सहकर्मी से जलन महसूस होती हो, तो खुद का ध्यान लगातार सहकर्मी पर ही होता है। यदि उनसे कोई गलती हो जाए, तो तुरंत ही साहब के पास जाकर शिकायत कर देता है। व्यापार में अपमान हुआ हो तो उसकी शिकायत जाकर इन्कम टैक्स वाले से कर देता है कि "इस व्यापार में बहुत घोटाले हो रहे हैं।" फिर सामने वाला हैरान परेशान हो जाता है और उसमें खुद को पाशवी आनंद आता है।
कितने लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी सोच अत्यधिक नेगेटिव होती है। उनके साथ कोई अच्छा करे, फिर भी उन्हें उल्टा ही दिखता है। कोई उनका भला करने जाए, वहाँ भी उन्हें नेगेटिव ही दिखता है।
जैसे कि, कोई मदद करने की भावना से उन्हें लाख रुपये दे रहा हो, तो नेगेटिव व्यक्ति के मन में उल्टा ही चक्कर चलता है कि “यह मुझे नीचा दिखाना चाहता है, बाद में सब के बीच बदनाम करेगा कि मैंने इसे पैसे दिए। मैं कोई भिखारी थोड़ी हूँ?” जबकि सामने वाले को सच में कोई ऐसी खराब भावना नहीं होती।
खुद को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने के लिए, "मैं दूसरों से बेहतर हूँ, सामने वाला किस तरह बुरा है" लगातार यह साबित करने प्रयास करना, सामने वाले व्यक्ति का नेगेटिव ही देखना वह नेगेटिव दृष्टि वाले की एक बड़ी कमज़ोरी है। निंदा, बदगोई, चुगली ये सब नेगेटिव के पक्ष वाले हैं। कोई दो लोग इकट्ठे होते हैं, तो ज़्यादातर तीसरे व्यक्ति की पॉज़िटिव बात करने के बजाय नेगेटिव बातें ही करते हैं। अंदर इतना ज़्यादा नेगेटिव भरा पड़ा होता है कि लोगों की नेगेटिव चर्चाएँ ही होती हैं। इसमें खुद को भी पता नहीं चलता कि मैं नेगेटिव बातें कर रहा हूँ। निंदा-बदगोई करके लोगों के निजी जीवन में क्या चल रहा है उसके ऊपर लगातार नज़र रखना, नेगेटिव बातें फैलाना, छोटी सी बात में राई का पहाड़ कर देना और उससे पाशवी आनंद लेना, यह एक बहुत ही भारी रोग है।
ऊपर दिए गए सभी लक्षणों से हम समझ सकते हैं कि हमारी दृष्टि पॉज़िटिव है या नेगेटिव। अगर ऐसा लगे कि मेरी दृष्टि नेगेटिव की ओर ज़्यादा है, तो उससे हताश या निराश होने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ ऐसी बहुत प्रेक्टिकल चाबियाँ दी गए हैं जिन्हें अपनाकर हम नेगेटिविटी से पॉज़िटिविटी की ओर प्रयाण कर सकेंगे।
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