पॉजिटिव लाइन वही भगवान का पक्ष
प्रश्नकर्ता: नेगेटिववाला क्या फिर नास्तिक हो जाता है?
दादाश्री: जिसे हम नास्तिक कहते हैं ऐसा इस जगत् में नास्तिक जैसा कुछ है ही नहीं। केवल पॉजिटिव लाइन (रुख़) ही सारी भगवानपक्षीय है। पूरी पॉजिटिव लाइन भगवानपक्षीय है और जो नेगेटिव लाइन है वह शैतानपक्षीय है।
मतलब प्रत्येक मनुष्य पॉजिटिव लाइन में होता ही है। चाहे भगवान में नहीं मानता हो मगर नीति में या अन्य रूप से भी वह पॉजिटिव में होता है। जितना पॉजिटिव है वह भगवानपक्षीय है। पॉजिटिव और नेगेटिव के ऊपर पुस्तक लिखी जा सकती है।
प्रश्नकर्ता: पुस्तिका लिख सकते हैं किंतु पुस्तक नहीं लिखा जाए।
दादाश्री: नहीं, आराम से एक बड़ी पुस्तक लिख सकें उतना सारा विवरण है।
प्रश्नकर्ता: मगर दादाजी, आप जो यह पॉजिटिव की बात करते हैं क्या वह नेगेटिव के विरुद्ध का है? नेगेटिव में द्वंद्व स्वभाववाले पॉजिटिव की बात करते हैं?
दादाश्री: दोनों पारस्परिक रूप से द्वंद्व ही कहलाएँ, एक है तो दूसरा है, वह द्वंद्व। इसमें दो में से एक है तो प्रतिकारी है, उसे द्वंद्व कहा जाए। लेकिन वस्तुस्थिति में सब द्वंद्व ही होता है। किंतु यह तो हमें यों सहज ही समझ में आ जाए कि यह फलाँ फलाँ पॉजिटिव बात है और यह फलाँ वह नेगेटिव बात है। ऐसा भेद हमारी समझ में आए कि नहीं आए?
प्रश्नकर्ता: हाँ जी, मगर ऐसा बुद्धि से समझ में आए।
दादाश्री: नीति वह पॉजिटिव बात है, अनीति वह शैतानी है, चोरी करना वह शैतानी बात है। इन सभी में, इसमें से कौन-सा पक्ष है इतना ही देखना है। पॉजिटिव सारा का सारा भगवान पक्ष है।
Reference: दादावाणी - Sep 2009 (Page #6 - Paragraph #10 to #15, Page #7 - Paragraph #1 to #3)
भगवान ने तो कहा है कि इस काल में कोई गालियाँ दे गया हो, तो उसे आप खुद भोजन के लिए बुलाना। इतनी अधिक वाइल्डनेस होगी कि उसे क्षमा ही देना। यदि कोई रिवेन्ज (बदला) लेने गए न, तो फिर वापिस संसार में खिंचेंगे। रिवेन्ज नहीं लेना होता है इस काल में। इस दूषमकाल में निरी वाइल्डनेस होती है। क्या विचार नहीं आएँगे, वह कहा ही नहीं जा सकता। दुनिया से बाहर के विचार भी आते हैं! इस काल के जीव तो बहुत टकराएंगे। ऐसे लोगों के साथ हम बैर बाँधें तो हमें भी टकराना पड़ेगा। इसलिए हम कहें, ‘सलाम साहब।’ इस काल में तुरन्त माफ़ी दे देनी चाहिए, नहीं तो आपको खिंचना पड़ेगा। और यह जगत् तो बैर से ही खड़ा रहा है।
इस काल में किसीको समझाने जाया जाए, ऐसा नहीं है। यदि समझाना आए तो अच्छे शब्दों में समझाओ कि यदि वह टेप हो जाए, फिर भी जिम्मेदारी नहीं आए। इसलिए पोज़िटिव रहना। जगत् में पोज़िटिव ही सुख देगा और नेगेटिव सभी दु:ख देगा। यानी कितनी बड़ी जोखिमदारी है? न्याय-अन्याय देखनेवाला तो बहुत लोगों को गालियाँ देता है। न्याय-अन्याय तो देखने जैसा ही नहीं है। न्याय-अन्याय तो एक थर्मामीटर है जगत् का, कि किसे कितना बुख़ार उतर गया और कितना चढ़ा? जगत् कभी भी न्यायी बननेवाला नहीं है और अन्यायी भी होनेवाला नहीं है। ऐसे का ऐसा ही मिलाजुला चलता रहेगा।
यह जगत् हमेशा से ऐसे का ऐसा ही है। सत्युग में ज़रा कम बिगड़ा हुआ वातावरण होता है, अभी अधिक असर है। रामचंद्रजी के समय में सीता का हरण करनेवाले लोग थे, तो अभी नहीं होंगे? यह चलता ही रहेगा। यह मशीनरी ऐसी ही है पहले से। उसे पता ही नहीं चलता, खुद की जिम्मेदारियों का भान नहीं है, इसलिए गैरजिम्मेदारीवाला मत बोलना। गैरजिम्मेदारीवाला आचरण मत करना। गैरजिम्मेदारीवाला कुछ भी मत करना, सबकुछ पोज़िटिव लेना। किसीका अच्छा करना हो तो करने जाना, नहीं तो बुरे में तो पड़ना ही नहीं और बुरा सोचना भी नहीं। बुरा सुनना भी नहीं किसीका। बहुत जोखिमदारी है। नहीं तो इतना बड़ा जगत् उसमें मोक्ष तो खुद के अंदर ही पड़ा हुआ है और मिलता नहीं है!!! और कितने ही जन्मों से भटक रहा है!!!
सामान्य व्यवहार में बोलने में हर्ज नहीं है, परन्तु देहधारी मात्र के लिए कुछ भी टेढ़ा-मेढ़ा बोलोगे तो वह अंदर रिकॉर्ड हो जाएगा! इस संसार के लोगों को रिकॉर्ड करना हो तो देर ही कितनी? एक ज़रा-सा छेड़ो तो प्रतिपक्षी भाव टेप होते ही रहेंगे। ‘तुझमें कमज़ोरियाँ ऐसी हैं कि छेड़ने से पहले ही तू बोलने लगेगा।’
प्रश्नकर्ता: खराब बोलना तो नहीं है, परन्तु खराब भाव भी नहीं आना चाहिए न?
दादाश्री: भाव नहीं आना चाहिए, वह बात सही है। भाव में आए वह बोले बगैर रहा नहीं जाता। इसलिए बोलना यदि बंद हो जाए न तो भाव बंद हो जाएँगे। ये भाव तो बोली के पीछे रहे हुए प्रतिघोष हैं। प्रतिपक्षी भाव तो उत्पन्न हुए बिना रहते ही नहीं न! हमें प्रतिपक्षी भाव नहीं होते हैं, वहाँ तक आपको भी पहुँचना है। उतनी अपनी कमज़ोरी जानी ही चाहिए कि प्रतिपक्षी भाव उत्पन्न नहीं हों। और शायद कभी हो गए हों तो आपके पास प्रतिक्रमण का हथियार है, उससे मिटा देना। पानी कारखाने में गया हो, लेकिन बर्फ नहीं बने, तब तक हर्ज नहीं है, बर्फ बन जाने के बाद हाथ में नहीं रहता।
Reference: Book Excerpt: आप्तवाणी 4 (Entire Page #312, Page #313 - Paragraph #1 to #4)
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