नेगेटिविटी से पॉज़िटिविटी की ओर मुड़ने के लिए सिर्फ़ दृष्टि ही बदलनी है। जैसे खाली बोतल से हवा बाहर निकालनी हो तो क्या करना चाहिए? चाहे जितने भी उपाय करें फिर भी हवा बाहर नहीं निकलती। लेकिन अगर बोतल को पानी से भर दिया जाए तो हवा अपने आप बाहर निकल जाती है। उसी तरह, जिन-जिन मामलों में नेगेटिविटी होती हो, उन सभी मामलों में पॉज़िटिविटी सेट करते जाएँ तो नेगेटिविटी अपने आप निकल जाएगी। अंत में, किसी भी मामले में हमारे मन या बुद्धि नेगेटिव करे ही नहीं, ऐसी जागृति में आना चाहिए।
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, “पॉज़िटिव यानी क्या? कुछ निकालना नहीं है, कुछ हटाना नहीं है, केवल लाना है।" वे कहते हैं कि सांसारिक व्यवहार में नेगेटिव मिटाने में जितना समय व्यर्थ गँवाते हैं, उसके बजाय उतना समय पॉज़िटिव में रहें तो नेगेटिव अपने आप मिट जाएगा।
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, "मैं तो पॉज़िटिव करना चाहता हूँ। नेगेटिव सेन्स लाना ही नहीं चाहता। यदि वह अच्छा हो न, तो उसे अच्छे में पुष्टि दे देता हूँ। यानि अच्छा इतना अधिक प्रकाशमान हो जाए, इतनी अधिक जगह रोकता जाए कि नेगेटिव खत्म ही हो जाए।"
हम दूसरे व्यक्तियों का नेगेटिव देखें कि, "वह नालायक आदमी है, अनफिट है" ऐसा देखने के बजाय उसमें क्या पॉज़िटिव है वह ढूँढकर पॉज़िटिव पर ही ध्यान देना चाहिए। सामने वाले के नेगेटिव के लिए हमें किच-किच नहीं करनी चाहिए। उसे खुद को उसके नेगेटिव दिखेंगे और वह उससे बाहर निकलेगा। हमें व्यक्ति की अच्छी बात को प्रोत्साहित करना चाहिए। जबकि खराब बात में मौन रहना चाहिए अथवा उसकी उपेक्षा करनी चाहिए, जिससे व्यक्ति को समझ में आए कि मुझे प्रतिक्रिया नहीं मिली। धीरे-धीरे नेगेटिव कम होता जाएगा। सामने वाले में भले सौ नेगेटिव हों, लेकिन उसमें से एकाध पॉज़िटिव ढूँढकर उसे पकड़े रखें तो परिस्थिति में और व्यक्ति में अपने आप बदलाव आ जाएगा। ऐसा करने के लिए निष्पक्षपाती रूप से ज़बरदस्त समता और धीरज विकसित करने पड़ते हैं।
परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि "’हम’ 'नेगेटिव' को 'पॉज़िटिव' से जीतते हैं।" पूरी दुनिया को नहीं जीतना है, सिर्फ़ घर के और नज़दीक के चार-पाँच व्यक्तियों को जीतना है। उनके पॉज़िटिव दिखें, वे निर्दोष दिखें और उनके प्रति राग-द्वेष कम हो जाएँ, तो भी बहुत है।
अंतिम और ऊँचे में ऊँची पॉज़िटिव दृष्टि यानी सामने वाले को आत्मारूप से देखना। परिणाम स्वरूप, उनकी एक भी भूल नहीं दिखाई देगी, वे निर्दोष ही दिखेंगे।
जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही हर व्यक्ति में कुछ अच्छे तो कुछ बुरे पहलू होते ही हैं। गुलाब का पौधा हो वहाँ काँटे होते हैं, लेकिन माली का लक्ष्य काँटों को छुए बिना गुलाब को खिलाने का होता है। हमें भी व्यक्तियों के पॉज़िटिव गुणों को देखना और पॉज़िटिव ही बोलना चाहिए। बाहर का सुधरे और हमें शांति मिले ऐसा नहीं होता, इसलिए हमें ही अपने अंदर का बदल देना चाहिए। हर एक परिस्थिति में सीधी दृष्टि सेट करेंगे तो हमें और सामने वाले को दुःख नहीं रहेगा।
अक्सर किसी व्यक्ति के निमित्त से हमारा अहंकार आहत हो जाए तो हम उसका उल्टा देखते हैं और बाहर बुरा बोलते हैं। लेकिन ऐसा करने से व्यक्ति या परिस्थिति बदलते नहीं। उल्टा, नेगेटिव करने के फलस्वरूप हमें ही दुःख मिलता है और अधोगति के कर्म बँधते हैं।
कोई व्यक्ति दूसरों के बारे में नेगेटिव बातें करता हुआ हमारे पास आएँ, तो भी हमें उसके नेगेटिव से प्रभावित नहीं होना चाहिए। वह व्यक्ति तो उसका उफान निकालता है, लेकिन वहाँ हमें नाटकीय रहना चाहिए। और तो और, अभी उस व्यक्ति को दूसरे के प्रति नेगेटिव हो और चार दिन बाद पॉज़िटिव भी हो जाए। जबकि उसके कहने से हमारे मन में दूसरे के प्रति नेगेटिव भर गया, तो हम बँधन में आ जाएँगे। व्यवहार में किसी एक की बात सुनकर हम दूसरे के लिए अभिप्राय बना लें, तो हम कच्चे कान के कहलाएँगे।
आमतौर पर, ऐसा नियम रखना चाहिए कि जो व्यक्ति हाज़िर न हो, उन व्यक्ति की नेगेटिव बात बिल्कुल न करें। ज़रूरत पड़े तो व्यक्ति की पाँच पॉज़िटिव बातें कहें, लेकिन नेगेटिव कुछ न बोलें।
सैद्धांतिक समझ प्रदान करते हुए दादाश्री कहते हैं कि, “हमें जीवन में एक प्रिन्सिपल (सिद्धांत) रखना चाहिए। हमेशा पॉज़िटिव रहना, नेगेटिव के पक्ष में कभी भी मत बैठना। सामने से नेगेटिव आए वहाँ मौन हो जाना।”
जब घर में, परिवार में या ऑफिस में हम एक से ज़्यादा व्यक्तियों के साथ संपर्क में आते हैं, तब हर एक की अलग-अलग प्रकृति से व्यवहार के कारण स्वाभाविक रूप से टकराव हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में, हम हर एक प्रकृति के पॉज़िटिव ढूँढकर वहाँ एडजस्ट हो जाएँ तो व्यवहार शांति से सुलझ जाएगा।
हर एक की प्रकृति के गुण, हर एक के व्यू पोइन्ट अलग-अलग होते हैं। उसमें भी व्यवहार सापेक्ष है। एक बार एक व्यक्ति के व्यू पोइन्ट के अनुसार काम होता है, तो दूसरी बार दूसरे के व्यू पोइन्ट के अनुसार। इसलिए अपने व्यू पोइन्ट को पकड़कर नहीं रखना चाहिए। हमें हमारे व्यू पोइन्ट को छोड़ना सीख जाना चाहिए। काम हो जाने के बाद "हुआ वही करेक्ट" करके आगे बढ़ना चाहिए, जिससे संसार व्यवहार में शांति बनी रहे और हमारी प्रगति भी न रुके।
अलग-अलग प्रकृति के व्यक्तियों के पॉज़िटिव ढूँढकर काम लेना चाहिए। जैसे एक बैंड में हारमोनियम होता है, तबले होते हैं, बाँसुरी होती है और खंजरी भी होती है। सभी के सुर अलग-अलग होते हैं। लेकिन सभी एक साथ संवादिता में बजते हैं तो मधुर संगीत उत्पन्न होता है। उसी तरह, एक साथ रहने या काम करने वाले व्यक्तियों में कोई एक धीमा हो तो दूसरा तेज़ होता है, कोई स्ट्रोंग हो तो दूसरा ढीला होता है। हमारे मुँह में भी जीभ सॉफ्ट होती है, वह खुराक इकट्ठा कर देती है, और दांत कड़क होते हैं, जो उसे तोड़ सकें। खुराक चबाने में दोनो ज़रूरी हैं। उसी तरह, हम व्यक्ति के अच्छे गुण ढूँढकर उनके साथ काम लें तो हर एक प्रकृति लाभदायक होती है।
सामने वाला हमें चाहे जितना भी दुःख दे जाए, तब हमें ऐसी समझ हाज़िर रखनी चाहिए कि वह अपनी दृष्टि से, अपनी नासमझी से बोलता है और व्यवहार करता है। हमें व्यक्ति का नेगेटिव नहीं देखना चाहिए। लेकिन हमें निरंतर पॉज़िटिव रहना चाहिए। नेगेटिव होकर व्यक्ति का विरोध करेंगे, तो झगड़ा बढ़ेगा।
हम भी अपने व्यू पोइन्ट से व्यक्ति को दोषित मानते हैं, वही व्यक्ति दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार भी करता है। कोई व्यक्ति दुःख देकर जाए और थोड़ी देर बाद पछतावा करके माफी माँगने भी आता है। ऐसे में, हमें पिछले अनुभव को नोट करके कलह करने जैसा नहीं है। पहले दिया था वो आज हिसाब पूरा करने वापिस आया है। हमें जमा करना चाहिए और नया देना बंद कर देना चाहिए। सामने वाला हमें दुःख देता है, कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि उसे हमारे निमित्त से दुःख हो रहा है? अगर ऐसा हो तो उसे ढूँढ निकालना चाहिए और उसे दुःख न हो ऐसे उपाय करने चाहिए।
कोई हमें कहे कि "आप में अक़्ल नहीं है" तो हमें जाँच करनी चाहिए कि दुनिया में ऐसी कितनी चीज़ें हैं जिनमें हमें अक़्ल नहीं है। मान लीजिए कि, नौकरी के काम में कोई अपमान करे कि "आपको समझ में नहीं आता", तो वहाँ हमारा अहंकार उछल पड़ता है। लेकिन हम ऐसी समझ सेट करें कि नौकरी के काम के सिवाय की दुनिया के हज़ारों चीज़ें हैं जो हमें नहीं आतीं। जैसे कि घर बनाना, टूटा हुआ फोन रिपेयर करना, प्लेन उड़ाना इत्यादि। इसलिए पाँच-सात आनेवाली चीज़ों में अहंकार करने की ज़रूरत नहीं है, ऐसे समाधान लाना चाहिए।
सामने वाला जो कहता है वह उसके व्यू पोइन्ट से कहता है, इसमें हम बात को पकड़कर दुःखी हो जाएँ, तो वह हमारी नासमझी है। बहुत हो तो हमें अंदर निष्पक्ष रूप से यह जाँच करनी चाहिए कि सामने वाला कह रहा है वैसा वास्तव में हमारे अंदर है या नहीं। हमारी भूल न हो फिर भी सामने वाला हमें गलत कहे वहाँ हमें सच साबित करने की भी ज़रूरत नहीं है। सामान्य रूप से कहना चाहिए कि आप कह रहे हैं वह बात सच नहीं है। लेकिन उसका आग्रह नहीं रखना चाहिए।
संक्षेप में, सामने वाला हमारे साथ चाहे जैसा व्यवहार करे, जिसमें हमारे बुद्धि और अहंकार उछलने लगें, सामने वाले का नेगेटिव बताएँ तब हम सामने ऐसी सच्ची समझ का स्टॉक हाज़िर रखें तो नेगेटिव के सामने पॉज़िटिव रह सकते हैं।
कई बार कोई कार्य करते समय भी हमें नेगेटिव हो जाता है कि "यह काम नामुमकिन है, मुझसे होगा ही नहीं।" या फिर व्यवहार में निर्णय लेते वक़्त नेगेटिव हो कि "इसका परिणाम नेगेटिव आएगा तो?“ फिर काम में आत्मविश्वास नहीं रहता। हम उल्टे विचार करें तो फिर संयोग भी उल्टे पड़ते हैं और अंत में काम बिगड़ भी सकता है। ऐसे समय में हमें पॉज़िटिव रहना चाहिए। क्योंकि मन का स्वभाव है कि तरह-तरह का बताता है। कभी पॉज़िटिव बताता है, तो कभी नेगेटिव। लेकिन हमें हमारा साइन सिर्फ़ पॉज़िटिव की तरफ़ ही रखना है।
किसी भी मामले में परिस्थिति को अच्छे से समझने के लिए, किसी मामले को परखने के लिए उसके नेगेटिव और पॉज़िटिव का एनालिसिस (पृथक्करण) करें तो उससे नुकसान नहीं होता। लेकिन हमारा एकतरफ़ा पक्ष अगर नेगेटिव की तरफ़ का हो जाए तो फिर नुकसान होता है। हमारा पक्ष हमेशा पॉज़िटिव की तरफ़ का रखकर काम सफलता पूर्वक पूरा हो उसके लिए प्रयत्न जारी रखने चाहिए। फिर परिणाम पॉज़िटिव आकर रहेगा।
कई बार असफलता आती है तो खुद के लिए नेगेटिव मान्यताएँ दृढ़ होती हैं कि, "मुझमें काबिलियत नहीं है", "मैं बुरा हूँ", "किसी को मेरी ज़रूरत नहीं" वगैरह। इसके बजाय सेल्फ नेगेटिविटी हो तभी हमें नेगेटिव मान्यताओं की लिस्ट बनानी चाहिए, फिर हर एक मान्यता के सामने पॉज़िटिव सेट करना चाहिए। मान लीजिए कि "मुझमें काबिलियत नहीं है" ऐसा लगे, तो खुद को कितनी चीज़ें आती हैं वो दिखानी चाहिए।
परम पूज्य दादा भगवान पॉज़िटिव रहने की सुंदर चाबी देते हैं।
दादाश्री: आत्मा पॉज़िटिव है और बुद्धि नेगेटिव है। बुद्धि विचार करवाए कि, ‘यह ऐसा नहीं होने देता और वह वैसा नहीं होने देता।‘ अरे! ‘नहीं होने देता’ उसे नहीं देखना है। ‘क्या होने देता है?’ उसे देखना है। यदि ऐसे पॉज़िटिव देखें तब अंदर अनेक रूप से, चारों ओर से मदद मिलती रहे।
अर्थात् बुद्धि हमारा समय बर्बाद करती है और हमें आनंद उत्पन्न नहीं होने देती। इस पर हमें ऐसा बोलना है कि, 'धन्य है यह दिन, मेरा कोई काम अधूरा नहीं है।' श्रीमद् राजचंद्रजी को 'सम्यक्त्व प्रकाशमान हुआ' इस पर वे कहने लगे, 'धन्य रे दिवस यह अहो!'
यानी हमारे वहाँ नेगेटिव बातें नहीं होनी चाहिए, सारी पॉज़िटिव बातें होनी चाहिए। नेगेटिव तो संसारी बातें है, समय बर्बाद करें, उलझन में डालें और सुख नहीं आने दें।
जब परिस्थिति हमारी अपेक्षा के विपरीत हो, असफलता आए तब हमें नेगेटिव अवश्य हो जाता है। उस समय पॉज़िटिव रहने की चाबी परम पूज्य दादा भगवान से मिलती है। मान लीजिए कि, कोई चौपड़ का खेल खेल रहे हों, और हम ऐसा मान लें कि सारे पाँसे सीधे ही पड़ेंगे, तब अगर एक पाँसा भी उल्टा पड़े तो हमारा मन नेगेटिव हो जाता है और आनंद चला जाता है। लेकिन अगर अंदर से ऐसा रखें कि पाँसे उल्टे भी पड़ सकते हैं, तो अगर एकाध पाँसा सीधा पड़ता है, तो आनंद हो जाता है। दूसरे शब्दों में, पूरी तरह से सफलता मिले ऐसी धारणा रखी हो तो छोटी सी असफलता में हम नेगेटिव हो जाते हैं, असफलता सहन ही नहीं होती। लेकिन अगर पूरी तरह से असफलता की तैयारी हो, तो छोटी सी सफलता में भी हम पॉज़िटिव रह सकते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि हम परिणाम के लिए हमेशा नेगेटिव सोचें कि असफलता मिलेगी। लेकिन ऐसा आंतरिक एडजस्टमेंट लेने से हम उल्टे परिणाम के लिए तैयार रहते हैं और उसमें नेगेटिव नहीं होते।
परम पूज्य दादाश्री खुद व्यवसाय से कॉन्ट्रैक्ट का काम करते थे। वे अपने अनुभवों का सार बताते हुए कहते हैं कि धंधे में चाहे जितना भी नुकसान हो जाए, तब भी हमें असर नहीं होने देना चाहिए। आज नुकसान है, तो कल मुनाफा होकर रहेगा। इसमें निराश होकर बैठे थोड़ी रहना है? एक बार परम पूज्य दादाश्री को भी धंधे में नुकसान हुआ था। परिणाम स्वरूप, रात को चिंता शुरू हो गई और नींद नहीं आ रही थी। लेकिन वे विचक्षण थे। फिर उनकी विचारणा शुरू हुई कि "नुकसान मेरा हुआ या धंधे का?" और इस धंधे के मुनाफे में घर के सभी भागीदार होते हैं और नुकसान हुआ तो मेरे अकेले के सिर पर ही क्यों? अगर यह नुकसान भी घर के व्यक्तियों और भागीदारों में बाँट दिया जाए तो खुद के हिस्से में कितना आएगा? बस, उतनी ही चिंता करनी चाहिए।
सिर्फ़ धंधे के मामले में नहीं लेकिन इस तरह हर एक मामले में, हमारी अपेक्षा से उल्टा हो और थोड़ा सा दुःख हो जाए, तो उसमें से कुछ न कुछ पॉज़िटिव ढूँढ निकालना चाहिए।
हमें किसी व्यक्ति के लिए नेगेटिव विचार आए, किसी का नेगेटिव बोल दिया गया हो, तो जब भी हमें ध्यान आए कि कुछ उल्टा हुआ है, तब तुरंत उस व्यक्ति को याद करके उनकी माफ़ी माँगनी चाहिए, पछतावा करना चाहिए। और फिर से ऐसी गलती न हो ऐसा निश्चय करके, जिन भगवान में श्रद्धा हो, उनसे शक्ति माँगनी चाहिए।
नेगेटिव विचार, वाणी या वर्तन बंद नहीं होंगे। लेकिन सच्चे दिल से पछतावा करने से हमारे नेगेटिव अभिप्राय चले जाते हैं। हम नेगेटिविटी को पॉज़िटिविटी से मिटाते जाएँगे, पश्चात्ताप करेंगे, तो ऐसा करते-करते एक दिन नेगेटिव से पॉज़िटिव होकर रहेंगे।
रोज़ रात को यह याद करें कि पूरे दिन में हम किन-किन से मिले? कहाँ नेगेटिव हुआ? किसके लिए नेगेटिव बातें की? यह सब याद कर-करके उनकी माफ़ी माँगनी चाहिए। ऐसा करने से नेगेटिव जल्दी मिट जाएगा और पॉज़िटिव सेट होता जाएगा।
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