नेगेटिव सोचने की भी मर्यादा
शक्तियाँ तो अंदर भरी पड़ी हैं। कोई कहे कि ‘मुझसे नहीं होगा’, तो वैसा हो जाए। इस नेगेटिव ने तो लोगों को मार डाला है। नेगेटिव रुख़ से ही लोगों की मन:स्थिति ऐसी हो गई है।
देखिए न, कहाँ तक के विचार कर डालते हैं। मान लीजिए बारह महीने दुकान नहीं चली हो, तब ‘यह दुकान मुझे नादार कर देगी, फिर नादारी ऐसी होगी, उसके बाद हमारी स्थिति ऐसी हो जाएगी’, लोग यहाँ तक सोच लेते हैं। एक मनुष्य मुझसे कहने लगा, ‘विचार किए बगैर थोड़े ही गुज़ारा है? बिना सोचे दुनिया कैसे चलेगी?’ मैंने कहा, ‘‘आप इस ड्राइवर की साथवाली सीट पर बैठ जाएँ, मुंबई में, और फिर ड्राइवर से पूछना कि, ‘तू क्या-क्या सोचता है? अब इधर जाऊँगा, फिर उधर जाऊँगा, ऐसा करूँगा, वैसा करूँगा, क्या तू ऐसा सोचता है?’ ऐसे कोई नहीं सोचता।’’ मतलब, हरएक व्यक्ति को अमुक हद तक सोचना चाहिए फिर उसे सोचना बंद कर देना चाहिए हरएक बात को लेकर स्टोप कर देना चाहिए। जब मरने की बात होती है तो हम तुरंत स्टोप कर देते हैं, मगर व्यापार की बात हो तो ऐसा नहीं करते। आपको क्या लगता है?
प्रश्नकर्ता: बराबर है, सोचने की भी एक सीमा होती है।
दादाश्री: स्टोप करना आता है, नहीं आता ऐसा नहीं है। यह तो रमणता करते हैं। अक़्ल की थैली खोल देते हैं। यदि आज बेटा पिता से लड़ता है तो पिता सोचने लगे कि, ‘मैं जब बूढ़ा हो जाऊँगा तब फिर मेरा कौन?’ ‘अरे! ऐसा यहाँ तक सोच डाला?’ आज के दिन के लिए ही सोचना, आनेवाले कल के बारे में सोचने की ना कही है भगवान ने। थिंक फोर टुडे, नोट फोर टुमोरो (आज की सोचिए, कल की नहीं)। और वह भी अमुक बाबत में। गाड़ी में जा रहा हो तो ‘गाड़ी टकराएगी तो क्या होगा?’ ऐसा सोचता रहे। अरे छोडिए, उस विचार को बंद कर दीजिए। लेकिन यह तो ठेठ यहाँ तक का विचार कर डाले कि, ‘दुकान में नादारी आ जाए, तब उसके बाद की स्थिति और फिर उसके बाद की भी स्थिति क्या होगी? भीख माँगनी पड़ेगी।’ और फिर वह घर जाकर पत्नी से कहे, ‘भीख माँगनी पड़ेगी।’ ‘पगले, कहाँ देख आया तू?’ कहेगा, ‘मेरी सोच ऐसा कहती है।’ अब इसे क्या कहे, क्या इसे अक़्लमंद कहेंगे? अक़्ल तो वह है कि निरंतर सेफसाइड रखे (सुरक्षा का मार्ग बनाए रखे)। किसी भी जगह सेफसाइड का भंग करे उसे अक़्लमंद कैसे कहें? अक़्ल तो सेफसाइड को बचाकर रखती है, वहाँ तक काम आ सकती है।
मतलब, कितना सोचना है यह यदि मनुष्य समझे तो बहुत हो गया, बहुत से दु:ख कम हो जाएँगे। और दूसरा, ‘जो भुगते उसकी भूल’ यह तय कर ले तो भी बहुत से दु:ख कम हो जाएँ। तीसरा, ‘टकराव टाले’ तो भी बहुत से दु:ख दूर हो जाए।
Reference: दादावाणी Sep 2009 (Page #13 - Paragraph #2 to #5)
बुद्धि नेगेटिव, आत्मा पॉज़िटिव!
आत्मा पॉज़िटिव है और बुद्धि नेगेटिव है, विचार करवाती है... ऐसा नहीं होने दे रहा और वैसा नहीं होने दे रहा। जो नहीं हो पा रहा उसे नहीं देखना है.... जो हो सकता है उसे देखना है तो फिर चारों तरफ से अंदर मदद मिलती रहेगी। यानी बुद्धि तो हमारा समय बिगाड़ती है और आनंद उत्पन्न नहीं होने देती। और हमारे यहाँ कुछ मुश्किल नहीं है, ऐसा कहना है, ‘धन्य है यह दिवस!’ श्रीमद् राजचंद्र को समकित प्राप्त हुआ तो कहने लगे, ‘धन्य रे दिवस यह अहो!’
अर्थात् हमारे यहाँ नेगेटिव बातें नहीं होती, सारी पॉज़िटिव बातें होती है। नेगेटिव तो संसारी बातें हैं, समय बिगाड़ती है, उलझा देती है और सुख महसूस नहीं करने देती।
Reference: Book Name: आप्तवाणी 10 (उत्तरार्ध) (Page #92 - Paragraph #4 to #6)
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