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भविष्य की चिंता नहीं करें तो कैसे चलेगा? क्यों कल की चिंता ना करें?

भूतकाल, अभी कौन याद करता है?

प्रश्नकर्ता: कल की चिंता नहीं करें तो कैसे चलेगा?

दादाश्री: कल होता ही नहीं है। कल तो किसीने देखा ही नहीं दुनिया में। जब देखो तब आज ही होता है। कल तो मुश्किलों के साधन की तरह है। बीते हुए कल का अर्थ जो काल जा चुका है, वह है। भूतकाल का मतलब बीता हुआ कल। यानी आनेवाले कल की चिंता करनी ज़रूरी ही नहीं है।

प्रश्नकर्ता: तो पहले से ही टिकिट किसलिए खरीदते हैं?

दादाश्री: वह तो एविडेन्स है। वह सच न भी हो कभी। यह आप प्रोग्राम नहीं बनाते कि पच्चीसवीं तारीख को मुंबई जाना है, अट्ठाइसवीं तारीख को बड़ौदा जाना है? उन सबका आपको विज़न है ही। उस विज़न के कारण ही आप यथार्थ रूप से नहीं देखते हो। आप इस तरह के हकबकाए हुए विज़न से ही देखते हो। यथार्थ विज़न में आप स्थिरता में रहकर देख सकते हो। नियम ऐसा है कि एक बाउन्ड्री तक आप देखो तो आपको यथार्थ विज़न मिलेगा और उस बाउन्ड्री से आगे आज देखोगे तो अभी ठोकर खा जाओगे। जिसकी ज़रूरत नहीं है उसे देखना मत। हम घड़ी के सामने देखते ही रहें तो बल्कि यहाँ पर ठोकर लगेगी। इसलिए इस विज़न में कुछ हद तक का ही देख-देखकर चलना चाहिए।

जहाँ कल नाम की कोई वस्तु ही नहीं उसका अर्थ ही क्या? जो काल चल रहा है, वह आज है और बीते हुए काल को कल कहते हैं, वह भूतकाल है। भूतकाल को तो कोई मूर्ख भी याद नहीं करता और आनेवाला कल तो ‘व्यवस्थित’ के हाथ में है। इसलिए वर्तमान में रहो, सिर्फ वर्तमानकाल में ही रहो।

Reference: Book Name: आप्तवाणी - 4 (Page #216 - Paragraph #1 to #5, Page #217 - Paragraph #1)

भविष्य की चिंता में गँवाता है सुख!

वर्तमान में हमें जो अपार सुख है, भविष्य की चिंता करने से वह सुख चला जाता है। अर्थात् यह सुख भी नहीं भोग पाते और भविष्य भी बिगड़ जाता है। तब हम कहें कि भविष्य काल का सब गया व्यवस्थित के ताबे में। जो चीज़ हमारे ताबे में नहीं है, उसके लिए झंझट करके क्या काम है? कई चीज़ हमारे ताबे में होती है तो आप कहो कि दादा के हाथ की बात है, तो मैं क्यों झंझट करूँ? उसी तरह जो ‘व्यवस्थित’ की सत्ता में हो उसमें हम क्यों झंझट करे? आप सभी को अनुभव हो गया? एक्ज़ेक्ट ‘व्यवस्थित’ है। अब थोड़ी देर बाद क्या होगा वह व्यवस्थित के ताबे में है। इसलिए आगे की चिंता छोड़ दो।

ये सभी आपके मित्र-वित्र, सभी को भविष्य की चिंता है, खटकता रहता है। यदि ऐसा हुआ तो ऐसा होगा! लोग तो क्या कहते हैं कि ‘आगे का देखना तो पड़ता है न?’ अरे, लेकिन दो-तीन दिन का देखना होता है, बीस साल आगे काज्ज् थोड़े ही देखना होता है? अभी बेटी तीन साल की ही है। बाइस साल की हो चुकी हो तो समझदारी कहलाएगी। भविष्य की अग्रशोच से कितनी मुसीबत खड़ी हो जाती है। अरे भाई, बेटी जीएगी या मर जाएगी, तू जीएगा या मर जाएगा! उसके लिए तू क्यों अभी से झंझट कर रहा है? बेटी की शादी के लिए पैसे वगैरह चाहिए न! अरे भाई तब देख लेंगे, लेकिन अभी तो तू मज़े कर!

Reference: दादावाणी November 2005 (Page #13 - Paragraph #11 & #12, Page #14 - Paragraph #1)

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