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विषय विकार के आकर्षण का विश्लेषण।

विषय-विकारी विचारों और स्पंदनो पर कैसे अंकुश लगाएँ?

विषय के स्वरूप का विश्लेषण और अध्ययन करके। जिसमें आकर्षण करने वाली चीज़े (जैसे कि व्यक्ति, विचार, शरीर के अंग आदि) की कीमत संपूर्ण रूप से डिवल्यु करके जीरो (शून्य) करना है। विषय–विकार में से मिलने वाला सुख मात्र भ्रम है, सचमुच में सुख नहीं है और मात्र क्षणिक सुख है। ऐसा सब प्रकार से सोच कर पृथ्थकरण करना है। जब आप किसी भी प्रकार के विषय में लिप्त होते हो, तब आप यह भूल जाते हो कि मनुष्य के शरीर में कितनी गंदगी भरी पड़ी है। उदाहरण के तौर पर आप भूल जाते हो कि शरीर के हर छिद्र में से गंदगी निकलती रहती है, जिसे देखने में और सूंघने में बहुत ही घिन आती है। अगर मल, पसीने और अन्य स्राव से इतनी दुर्गंध आती है तो विचार कीजिए कि हमारे शरीर के अंदर कैसा होगा? साथ ही यदि शारीरिक संपर्क और स्पर्श में सच्चा सुख और आनंद होता, तो जब किसी की त्वचा पर घाव या खाज हो तब भी उसे स्पर्श करना अच्छा लगना चाहिए, पर ऐसा नहीं है। इसके अलावा, दुनिया में किसी भी प्रकार की परवशता दु:ख का कारण होता है, तो पराश्रीत होना सुख का कारण कैसे हो सकता है?

विश्लेषण द्वारा विषय विकार आकर्षण के यथार्थ स्वरूप को पहचानो

विषय विकारी आकर्षण का विश्लेषण करने और जैसा है वैसा देखने के लिए यहाँ कुछ तरीके बताए गए हैं, जिससे सुख की मान्यता को तोड़ा जा सकता हैः

  • विषय संडास है; वह गंदगी है! इसमें स्वयं तन्मयाकार हो जाता है इसलिए उसमें से नए कॉज़ेज डलते हैं! यदि विषय–विकारी वर्तन का पृथक्करण करे तो, वह दाद को खुजलाने जैसा है! जितना ज्यादा खुजालोगे, उतना आपको अच्छा लगेगा, लेकिन वह आपको किस तरह से फायदा करेगा? आप खुद के ही घाव को कुरेदोगे और उसमें से खून निकलेगा और पहले से भी ज्यादा जलन होगी।
  • शरीर केवल रेशमी चादर से लपेटा हुआ हाड–मांस ही है। सिर्फ इतना समझ में आ गया, तो फिर आपको विषय विकारी इच्छाओ के प्रति उदासीनता रहेगी।
  • पांचो इंद्रियों में से किसी को भी विषय भोगना अच्छा नहीं लगता। आँखों को देखना अच्छा नही लगता इसलिए अंधेरा कर देते हैं। नाक को सूंघना अच्छा नही लगता। जीभ की तो बात ही क्या करनी?! बल्कि उल्टी हो जाए, ऐसा होता है। स्पर्श करना भी अच्छा नही लगता, फिर भी स्पर्श में सुख मानते हैं! किसी को भी अच्छा नही लगता, फिर भी किस आधार पर विषय भोगते है, वही आश्चर्य है ना?! लोकसंज्ञा से ही इसमें पड़े हैं!
  • जिस स्त्री या पुरुष के लिए आपको आकर्षण होता हो उसकी पूरी जिंदगी की सभी अवस्थाओं की कल्पना करो तो आप आकर्षण में से मुक्त हो जाओगे। यदि आपकी समझ में आए कि यह गर्भ में थी तब ऐसी दिखती थी, जन्म हुआ तब ऐसी दिखती थी, छोटी बच्ची थी तब ऐसी दिखती थी, बूढी होने पर ऐसी दिखेगी, पक्षाघात हो जाए तो ऐसी दिखेगी, अर्थी उठेगी तब ऐसी दिखेगी, ऐसी सब अवस्थाएं जिसके लक्ष में है, उसे वैराग्य सिखाना नहीं पड़ता!
  • किसी भी प्रकार की परवशता दुःख का कारण है, सुख का नहीं। विषय संपूर्ण रूप से दूसरों पर आधारित है तो फिर उसमें सुख कैसे हो सकता है?
  • आज के मनुष्य दिन–भर की भागदौड़ की थकान से तंग आकर, नौकरी–व्यापार और घर के तनाव में, अत्यंत मानसिक तनाव भुगतते हुए, अंतरदाह में से डायवर्ट होने के लिए विषय के कीचड़ में कूद जाते है और उसके परिणाम भूल जाते है! विषय सुख भोगने के बाद अच्छे से अच्छा शूरवीर मुर्दे जैसा हो जाता है!
  • जिस व्यक्ति के लिए आपको आकर्षण होता हो, यदि उसका शरीर जल गया हो और पीप निकल रहा हो, तो भी क्या तुम्हें आकर्षण होगा? इसलिए, सचमुच तो शरीर के किसी भी अंग में सुख नहीं है।

इंसान को राँग बिलिफ है कि विषय में सुख है। अब अगर विषय से भी ऊँचा सुख मिल जाए तो विषय में सुख नहीं लगेगा। विषय में सुख नहीं, पर इंसान को व्यवहार में चारा ही नहीं। बाकी जान–बुझकर (इस देहरूपी) गटर का ढक्कन कौन खोलेगा? अगर विषय में सुख होता तो चक्रवर्ती इतनी सारी रानियाँ होने के बावजूद सुख की खोज में नहीं निकलते!

यह अपनी राँग बिलीफ के कारण है। यह मात्र हमारी बिलीफ ही है। हमारी बिलीफ के अलावा दूसरा कुछ नहीं है। बिलीफ को छोड़ दो तो फिर कुछ भी नहीं।

विषय और विषय विकारी आकर्षण को बंद करने के लिए, खुद को सोचना चाहिए की विषय कैसी गंदगी है। 

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