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विषय विकार आकर्षण का कारण क्या है?

यदि आप कोई चीज होने से रोकना चाहते हो, जैसे की कोई परिणाम (इफेक्ट), तो उसका मूल कारण जानना होगा। एक बार कारण (कॉज़ेज़ ) समाप्त करोगे फिर परिणाम अपने आप बंद हो जाएंगे। इस तरह से विषय विकार आकर्षण को रोकने के लिए यह जानना जरूरी है कि यह कहां से उत्पन्न होता है।

विचार मन में से आते हैं और मन गाँठों का बना हुआ है। जितनी बड़ी गाँठ होगी, उतने अधिक विचार आएंगे। वस्तुस्थिति में विषय की गाँठ होती है; जिस तरह पिन लोहचुंबक की ओर आकर्षित होती है, उसी तरह यहाँ भी आकर्षण उत्पन्न होता है।

जब विषय की गाँठ फूटती है, तब विषयी स्पंदन उठते है। अकसर ये स्पंदन इतने प्रबल होते हैं कि खुद उसमें एकाग्र हो जाता है। यदि इस जन्म में विषय विकार आकर्षण नहीं हो और किसी युवती को देखकर विचार आए कि “यह लड़की बहुत सुंदर है, बहुत अच्छी दिखती है।“ तो तुरंत ही अगले जन्म के लिए बीज डल जाते हैं। इससे अगले जन्म में विषय विकार आकर्षण उत्पन्न होगा।

एक बार विषय की गाँठ विलय हो गई उसके बाद संसार व्यवहार का आकर्षण नही रहता। ‘पिन’ और ‘लोहचुंबक’ का संबंध ही नहीं रहा। विषय संबंध पिछले जन्म की विषय की गाँठ के आधार पर रहा है।

आईए देखें परम पूज्य दादाश्री की दृष्टि से:

दादाश्री : विषय की गंदगी में लोग पड़े हैं। विषय के समय उजाला करें तो खुद को भी अच्छा न लगे। उजाला हो तो डर जाए, इसलिए अंधेरा रखते हैं। उजाला हो तो भोगने की जगह देखना अच्छा नहीं लगता। इसलिए कृपालुदेव ने भोगने के स्थान के संबंध में क्या कहा है?

प्रश्नकर्ता : ‘वमन करने योग्य भी चीज़ नहीं है।’

प्रश्नकर्ता : फिर भी स्त्री के अंग की ओर आकर्षण होने का क्या कारण होगा?

दादाश्री : हमारी मान्यता, रोंग बिलीफ़ हैं, इस वज़ह से। गाय के अंग के प्रति क्यों आकर्षण नहीं होता है? केवल मान्यताएँ; और कुछ होता नहीं है। मात्र बिलीफ़ हैं। बिलीफ़ तोड़ डालें तो कुछ भी नहीं है।

प्रश्नकर्ता : वह मान्यता खड़ी होती है, वह संयोग के मिलने के कारण होती है?

दादाश्री : लोगों के कहने से हमें मान्यता होती है और आत्मा की उपस्थिति में मान्यता होती है इसलिए दृढ़ हो जाती है वर्ना उसमें ऐसा क्या है? केवल मांस के लौंदे हैं!

विषय विकार आकर्षण के कुछ खास कारण

  • जब विषय की गाँठ फूटती है, तो उसके परिणाम स्वरूप विषय विकार आकर्षण होता है।
  • हड्डिया, मांस, रक्त से भरा पूरा शरीर।
  • अश्लील चित्र, वीडियो देखने से या अश्लील कहानीयाँ पढ़ने से भी हो होता है।
  • विषय विकार के सुख का चिंतवन और कल्पना करने से।
  • विपरीत लिंग के व्यक्तियों के साथ दृष्टि मिलाने और स्पर्श करने से।
  • ‘विषय में सुख है’ ऐसी भ्रांत मान्यता से।
  • आंतरिक बेचैनी और असंतोष की आग के कारण। पूरा दिन भागदौड़ करने से थकान और अंतरदाह उत्पन्न होता है, इस अंतरदाह को बुझाने के लिए मनुष्य विषय के क्षणिक सुख की लालच में पडता है।
  • लोक संज्ञा से लोगों का देखकर खुद भी इसमें लिप्त होता है। अनादि काल से लोक संज्ञा के कारण ऐसा चल रहा है और उसके कारण यह सांसारिक ज्ञान उत्पन्न हुआ और उससे रोंग बिलीफ और गलत समझ बैठ गई । अब जो भी उसकी मान्यता है, वह उसके आचरण में अवश्य आती है।
  • कुसंगी लोगो का या ऐसे मित्रो का संग करने से जो मजाक में भी विषय को बढ़ावा देते है।
  • मनुष्यो में नियमित तौर पर विषय व्यवहार होने के कारण, मन वहाँ बार–बार जाता है और उसकी रमणता होती है। इस तरह विषय की बेल फिर से बढ़ेगी और फिर से विषय का पौधा उगेगा।
  • किसी ने भी कभी विषय का विश्लेषण किया ही नहीं इसी कारण वे विषय मे फंस जाते है। विश्लेषण नही होने के कारण लोग उलझन में रहते है और आकर्षण होते रहता है।
  • यह समझ की कमी के कारण है। ‘विषय में सुख है’ ऐसी पुरानी बिलिफ पड़ी होने के कारण यह आकर्षण बना रहता है।
  • ‘विषय अच्छा है’ यह कभी नही कहना चाहिए और व्यवहार में भी नही होना चाहिए अन्यथा ऐसा व्यवहार विषय आकर्षण का कारण बन सकता है।
  • विषय का बार बार रक्षण करने से विषय बीज जीवित होता है। ‘विषय में नुकसान ही क्या है?’ ऐसा कहने से विषय का रक्षण होता है! एक बार विषय का रक्षण करने से इसका आयुष्य बढ़ जाता है!
  • विषय का स्पंदन वहीं होता है जहां पिछले जन्म में भाव बिगड़ा था। इसलिए जागरूक रहें और तुरंत ही विषय के स्पंदन को उखाड़ फेकें।
  • विषय में सुख लगने का कारण यह है कि उसने कहीं भी सुख का अनुभव किया नही। सचमुच में देखा जाए तो सबसे ज्यादा गंदगी विषय में ही है और कहीं नहीं।

हमें लगता है कि विचारों या क्रिया द्वारा विषय भोगने के बाद हम सुखी हो जाएगें । हम कौतुहल वश नये नये तरीके से विषय भोगने का प्रयत्न करते हैं, परंतु अंत में, जिस संतोष की हमने आशा रखी थी, वो कभी प्राप्त नहीं होता। इसलिए हम सुख पाने के लिए फिर से अलग अलग तरीके ढूढ़ते हैं। यह एक व्यसन जैसा हो जाता है, जो कभी पूर्ण नहीं होता और यह दुष्चक्र चलता रहता है।

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