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क्या मुझे पैसे उधार देने चाहिए?

प्रश्नकर्ता: किसी मनुष्य को हमने पैसे दिये हो और वह नहीं लौटाता हो तो उस समय हमें वापस लेने का प्रयत्न करना चाहिए या फिर कर्ज अदा हो गया मानकर संतोष लेकर बैठे रहना चाहिए?

दादाश्री: वह लौटा सके ऐसी स्थिति हो तो प्रयत्न करना और नहीं लौटा सके ऐसी स्थिति हो तो छोड़ देना।

प्रश्नकर्ता: प्रयत्न करना या फिर ऐसा समझना कि वह हमें देनेवाला होगा तो घर बैठे दे जायेगा और यदि नहीं आये तो समझ लेना हमारा कर्ज चुकता होगा, ऐसा मान लें?

दादाश्री: नहीं, नहीं, उस हद तक मानने की जरूरत नहीं है। हमें स्वाभाविक प्रयत्न करना चाहिए। हमें उसे कहना चाहिए कि 'हमें जरा पैसों की तंगी है, यदि आपके पास हों तो कृपया हमें भेज दें।' इस तरह विनयपूर्वक कहना चाहिए और नहीं आने पर हम समझें कि हमारा कोई हिसाब होगा जो चुकता हो गया। पर यदि हम प्रयत्न ही नहीं करे तो वह हमें मूरख समझें और उलटी राह चढ़ जाये।

यह संसार सारा पझल है। इसमें मनुष्य मार खा-खा कर मर जाये। अनंत अवतार मार खाया और जब छुटकारे का वक्त आया तब भी अपना छुटकारा नहीं करें। छुटने का ऐसा वक्त फिर नहीं आयेगा न! और जो छुट गया हो (बंधन से मुक्त हुआ हो) वही हमें छुडाये, बंधनग्रस्त हमें केसे छुडाएगा? जो छुट गया हो उसका महत्व है। 'यह पैसे नहीं लौटायेगा तो क्या होगा?', ऐसा विचार आने पर हमारा मन निर्बल होता जाये। इसलिए किसी को पैसे देने के बाद, हम तय कर लें कि काली चिंदी में बाँधकर समंदर में रख छोडे़ हैं, फिर क्या आप उसकी आशा रखेंगे? इसलिए देने से पहले ही आशा रखे बिना दीजिए वरना देना ही नहीं।

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संसार में लेन-देन तो करना ही पडे़गा। हमने कुछ व्यक्ति को रुपये उधार दिये हो, उसमें से किसी ने नहीं लौटाए तब उसके लिए मन में क्लेश होता रहे कि, 'वह कब देगा? कब देगा?' अब ऐसे क्लेश करने से क्या फायदा?

हमारे साथ भी ऐसा हुआ था न! पैसे वापस नहीं आयेंगे ऐसी चिंता तो हम पहले से नहीं रखते थे। पर साधारण टकोर करें, उसे (उस व्यक्ति को) कहें जरूर। हमने एक आदमी को पाँच सौ रुपये दिये थे। अब ऐसी रकम बही-खाते में लिखी नहीं होती और ना ही चिठ्ठी में दस्तखत आदि होते हैं। फिर उस वा़कये को साल-डेढ साल हुआ होगा। मुझे भी कभी याद नहीं आया था। एक दिन वह व्यक्ति मुझे मिल गया, तब मुझे याद आया, मैंने कहा कि, 'वे पाँच सौ रुपये भेज देना।' तब वह कहे, 'कौन से पाँच सौ?' मैंने कहा कि, 'आप मुझसे ले गये थे वे।' वह कहे कि, 'आपने मुझे कब दिये थे? रुपये तो मैंने आपको उधार दिये थे, भूल गये क्या?' तब मैं समझ गया। फिर मैंने कहा कि, 'हाँ मुझे याद आता है, अब आप कल आकर ले जाना।' फिर दूसरे दिन रुपये दे दिये। वह आदमी गला पकडे़ कि आप मेरे रुपये नहीं देते, तब क्या करे? ये वास्तविक उदाहरण है।

अर्थात् इस संसार को कैसे पहुँच पायें? हमने किसी को पैसे दिये हों और फिर उसकी आशा रखना वह, पैसे काली चींदी में बाँधकर दरिया में डालकर फिर उसकी आशा करें, ऐसी मूर्खता है। कभी आ जाये तो जमा कर लेना और उस दिन उसे चाय-पानी पीलाकर कहना कि, 'भाई, आपका उपकार है जो आप रुपये लौटाने आये वरना इस काल में तो रुपये वापस आनेवाले नहीं है। आपने लौटाये वह अजूबा ही कहलाये।' वह कहे कि, 'ब्याज नहीं मिलेगा।' तब कहें, 'मूल लाया यही बहुत है।' समझे आप? ऐसा संसार है। लिए है उसे लौटाने का दुःख है, उधार देता है उसे वसूली का दुःख है। अब इसमें सुखी कौन? और (सब) है 'व्यवस्थित'! नहीं देता वह भी 'व्यवस्थित' है, और डबल दिये वह भी 'व्यवस्थित' है।

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