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स्पर्धा से कैसे बाहर निकलें?

सही समझ विकसित करें

स्पर्धा वह गलत समझ का परिणाम है। उसके सामने सच्ची समझ सेट करने से स्पर्धा नहीं होती।

जैसे कि, सड़क पर गाड़ी चला रहे हों और पास में से कोई दूसरी गाड़ी ओवेरटेक करे, तब हमें स्पर्धा होती है कि, मैं भी स्पीड बढ़ाऊँ और आगे निकल जाऊँ! लेकिन लाखों गाड़ियाँ इसी रास्ते पर हमसे आगे निकल गईं, तो उनके साथ स्पर्धा क्यों नहीं करते? उसी तरह, जब कोई हमारे साथ वाला हमसे आगे निकले तब हम स्पर्धा करते हैं। लेकिन उनसे पहले कितनें ही लोग हमसे आगे निकल गए हैं और अभी भी आगे ही हैं, तो वहाँ स्पर्धा क्यों नहीं होती? थोड़ा विचार करेंगे तो स्पर्धा करेंगे ही नहीं।

दूसरा, जिस वस्तु के लिए स्पर्धा करते हैं वह बर्फ़ की तरह विनाशी है। आज है और कल पिघल जाएगी। कोई भरोसा नहीं है। पर उसे पाने और संभालने के लिए अभी तक जो खटपट की होगी, लोगों को निकाला होगा, द्वेष से बैर बंधा होगा वह सभी कर्म के रूप में हमारे साथ ही रहेगा। इसलिए विनाशी वस्तु के लिए स्पर्धा नहीं करनी चाहिए।

अंत में, सभी अपने-अपने पुण्य से आगे बढ़ते हैं। आज एक का पुण्य जागा है जिससे उन्हें सफ़लता के, आगे बढ़ने के अच्छे संयोग मिलें हैं। कल किसी दूसरे का पुण्य जागेगा तब वह आगे आएगा। इसलिए पुण्य-पाप के खेल में हमें अटकना नहीं है।

सभी आगे बढ़ो

कुदरत का नियम ऐसा है कि “सभी पीछे रह जाएँ और मैं आगे आ जाऊँ” ऐसा सोचेंगे तो हम ख़ुद ही पीछे रह जाएँगे और सब आगे निकल जाएँगे। लेकिन हम दूसरों के लिए सोचेंगे तो हमारा कुछ भी नहीं बिगड़ेगा। इसलिए, हमें ऐसे सोचना चाहिए कि सभी आगे बढ़ें। मैं भी मेरी क्षमता के अनुसार आगे बढूँगा। हमें हमारी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ेंगे।

इतना ही नहीं, जिनके साथ हम स्पर्धा करते हों उनके लिए हमें बिल्कुल भी नेगेटिव नहीं सोचना है। सामने वाला ख़ूब तरक्की करे, ख़ूब आगे बढ़े ऐसी भावना करनी चाहिए। सामने वाले की तरक्की में बिल्कुल भी बाधा आए ऐसा भाव हमें नहीं है।

पॉजिटिव रहें

जिस व्यक्ति के साथ स्पर्धा करते हैं, उस व्यक्ति के पॉज़िटिव देखें। उनके पॉजिटिव यानि कि उनके अच्छे गुणों को लोगों के सामने ऐप्रिसिऐट करना,तारीफ़ करना। साथ ही सामनेवाले के नेगेटिव के लिए प्रार्थना भी करें कि इसमें से वह बाहर निकल जाए।

खासकर विद्यार्थियों के बीच पढ़ाई में या करियर में आगे आने के लिए स्पर्धा होती रहती है। लेकिन हक़ीक़त में स्पर्धा करने से हम बहुत आगे नहीं बढ़ पाते। हमारी मेहनत और पुण्य दोनों के आधार पर रिज़ल्ट (परिणाम) आता है। कोई दूसरा आगे आए तब यह सोचना चाहिए कि उन्होंने कितनी अच्छी मेहनत्त की और उनका पुण्य कितना अच्छा है। अगर हम पीछे रह गए तो नेगेटिव नहीं सोचेंगे और हम ज़्यादा मेहनत करेंगे।

विशाल दृष्टि रखें

जिनके पास कम बुद्धि होती है, विज़न शार्ट होता है वही लोग स्पर्धा करते हैं। जिनकी बुद्धि विकसित हो और जिनका विज़न ब्रॉड हो, उन्हें समझ में आ जाता है कि स्पर्धा करने से किसी को भी फ़ायदा नहीं होगा।

ब्रॉड विज़न यानि कि जिनकी दृष्टि विशाल होती है उन्हें यह ध्यान रहता है कि जीवन में स्पर्धा करने की जरुरत नहीं है। सभी अपने-अपने रास्ते पर आगे बढ़ रहें हैं। स्पर्धा करने से क्या नुकसान होता है, ऐसा करेंगे तो इसका क्या रिज़ल्ट (परिणाम) आएगा इन सभी का वो विस्तार से एनालिसिस करते हैं। ऐसी विशाल दृष्टि विकसित करें तो फिर स्पर्धा नहीं होगी।

एडजस्ट हो जाएँ

व्यवहार में जब आमने-सामने स्पर्धा चल रही हो तब दोनों में से अगर एक व्यक्ति एडजस्ट हो जाए तो स्पर्धा का अंत आ जाता है। जैसे कि, सास-बहु के बीच स्पर्धा चल रही हो, वहाँ सास बहु की गलतियाँ निकालती रहे और बहु भी सास को सामने जवाब दे, तो परिणाम में झगड़ा और अशांति बढ़ेगी। इसके बजाय जब सास काम में गलतियाँ बताए तब बहु को सास के पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहिए और कहना चाहिए कि “मुझे तो नहीं आता है आप ही मुझे सिखाइए” दूसरी और सास को भी बहु की बहु बनकर रहना चाहिए। जिसे शांति चाहिए वह इस तरह से एडजस्टमेंट ले ले तो स्पर्धा और उसके परिणामस्वरूप झगड़े नहीं होंगे। क्योंकि काबलियत वाले तो घुड़दौड़ में हाँफ-हाँफ कर ही मर जाते हैं। आज पहला नंबर आया है, तो बाद में कभी ना कभी तो लास्ट नंबर आएगा ही। इसके बजाय काबलियत ही नहीं है ऐसा मानकर बगल में बैठे रहने में मज़ा है। रेसकोर्स से बाहर निकलते ही हमारी पर्सनालिटी झलकने लगती है।

जो लोग ख़ुद ही ख़ुद की काबलियत साबित करने के लिए स्पर्धा कर रहें हैं उन्हें परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, “लोगों को कहना पड़े कि, 'तुझमें बरकत नहीं है, तुझमें कुछ भी बरकत नहीं है!' और हम वह बरकत लाना चाहें तो इसका हिसाब कब मिलेगा ? इससे हम ही 'सर्टिफाइड' बिना बरकत वाले हो जाएँ न! तो हल आ जाए न!

हारकर जीतना

हमें स्पर्धा नहीं करनी हो, फिर भी दूसरे हमारे साथ स्पर्धा करें तो वहाँ किस तरह से व्यवहार करें, उसकी प्रैक्टिकल चाबी देते हुए परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि, “वहाँ पर उन लोगों में हमें एकदम हँसी-खुशी से नहीं रहना है, लेकिन दिखावा तो ऐसा ही करना है कि हमें तेरे साथ घुड़दौड़ में आना है, सिर्फ दिखावा ही! बल्कि अंदर से तो, अगर वहाँ चले जाएँ न, तो भी हार जाना चाहिए! तब फिर उन्हें मन में ऐसा लगेगा कि 'हम जीत गए हैं'। हमने तो सामने से कितने ही लोगों को ऐसा कह दिया था कि, 'भाई, हममें बरकत नहीं है।' वह सब से अच्छा रास्ता है। बाकी तो यह सब घुड़दौड़ है! 'रेसकोर्स' है!

अगर हम स्पर्धा में ही नहीं उतरें तो सामने वाले को जीतने में मज़ा ही नहीं आएगा। इसलिए स्पर्धा में उतरे हैं ऐसा बाहर दिखावा करना, लेकिन मन से पहले ही हार जाओ। हम अगर सामने वाले को हराएंगे तो उसे नींद नहीं आएगी। हम ऐसी कला सीख जाएँ कि हमें हारकर भी अच्छी नींद आए

परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, “हारना ढूँढ निकालो! यह नई खोज है हमारी, जीता हुआ इंसान कभी भी हार सकता है, लेकिन जो हारकर बैठा है न, वह कभी भी नहीं हार सकता।

अहंकार से लघुत्तम रहे

यह जो गुरुत्तम अहंकार है, यानि कि बड़े होने की इच्छा, मैं इन सभी से बड़ा हूँ ऐसी जो मान्यताएं हैं, उससे ही यह संसार टिका हुआ है। जबकि लघु मतलब मैं छोटा हूँ, लघुत्तर यानी कि छोटे से भी छोटा हूँ और लघुत्तम यानी मुझसे सभी बड़े हैं ऐसी मान्यता।

हम हमारे अहंकार को लघुत्तम रखें तो किसी को हमसे स्पर्धा ही नहीं होगी। जहाँ लघुत्तम भाव होता है वहाँ स्पर्धा ही नहीं होती। जो पहले से ही हार गया हो उसे कौन हराएगा? परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि, एक बार दाढ़ी बनाते समय चमड़ी छिल गई हो तो फिर मैं हमेशा “मुझे दाढ़ी बनाना नहीं आता।”  यही कहता हूँ। उसी तरह, जहाँ हमें ऐसा लगता है कि “मुझे आता है” वहाँ एक बार भी भूल हो गई हो तो, उसे याद करके “मुझे नहीं आता” ऐसा मान लें तो अहंकार छोटा होता जाएगा।

व्यवहार में किस तरह से छोटे बनकर रहें उसका दूसरा सुंदर उदाहरण परम पूज्य दादाश्री के जीवन से उनके ही श्रीमुख से हमें यहाँ पर प्राप्त हो रहा है।

दादाश्री: हमारे संबंधी के साथ पैसे से संबंधित बात निकली न, तब मुझे कहते हैं, ‘आपने तो बहुत अच्छा कमा लिया है।’ मैंने कहा, ‘मेरे पास ऐसा कुछ है ही नहीं। और कमाई में तो, आपने कमाया है। वाह... मिलें वगैरह सब रखी हैं। कहाँ आप और कहाँ मैं!? आप न जाने क्या सीख गए कि इतना सारा धन इकट्ठा हो गया। मुझे इस बारे में कुछ नहीं आता। मुझे तो उसी बारे में आया।’ ऐसा कहा इसलिए फिर हमारा उनसे कोई लेना-देना ही नहीं रहा न! ‘रेसकोर्स’ ही नहीं रहा न! हाँ, कुछ लेना-देना ही नहीं। क्या उनके साथ स्पर्धा में उतरना था?

लोग हमेशा ही ऐसी स्पर्धा में रहते हैं, लेकिन मैं कहाँ उनके साथ दौडूँ? उन्हें इनाम लेने दो न! हमें देखते रहना है। अब, अगर स्पर्धा में दौड़ेंगे तो क्या दशा होगी? घुटने वगैरह छिल जाएँगे। इसलिए अपना तो काम ही नहीं है।

जिन्हें स्पर्धा से बाहर निकलना है, उन्हें तो संसार पागल कहे, मारे, निकाल दे तो भी वहाँ हारकर बैठ जाना। सामनेवाले को जीतकर जगत जीत लेने का यह उत्तम तरीका है!

स्पर्धा को डिवैल्यू करो

परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, “अनंत जन्मों तक इस रेसकोर्स में दौड़ता रहेगा फिर भी अंतिम दिन तू धोखा खाएगा, ऐसा है यह जगत्। सब बेकार जाएगा। ऊपर से बेहिसाब मार खाएगा। इसके बजाय तो भागो यहाँ से, अपनी असल जगह ढूँढ निकालो, जो अपना मूल स्वरूप है।

वह अपने अनुभवों का सार बताते हुए कहते हैं कि, “अनंत जन्मों से दौड़ा था, वह तो सब बेकार गया। ‘टॉप’ पर रहे, उस तरह से दौड़ा हूँ, लेकिन सभी जगह मार खाई है। इसके बजाय तो भागो न, यहाँ से! अपनी असल जगह ढूँढ निकालो, वाह....जायजेन्टिक!

स्पर्धा, सभी विनाशी वस्तुओं के लिए है। लेकिन ख़ुद आत्मस्वरूप हैं, अविनाशी हैं। आत्मसाक्षात्कार हो और ख़ुद ख़ुदके स्वरूप में आ जाएँ तभी विनाशी वस्तुओं की स्पर्धा का हमेशा के लिए अंत आता है।

हेल्दी कॉम्पटीशन रखें

स्पर्धा के अनेकों नुकसान होने के बावज़ूद भी कॉम्पटीशन अगर हेल्दी हो तो वो प्रगति में मदद रूप साबित हो सकता है। सामने वाले की लंबी लाइन को छुए बगैर अपनी लाइन को लंबी करना, उसे हेल्दी कॉम्पटीशन कहते हैं। जैसे कि खेलकूद में हार-जीत और स्पर्धा तो होती ही है। लेकिन खेल में खेल भावना ऐसी होनी चाहिए कि, जो हारता है वो "तुम जीत गए, मैं हार गया" ऐसा मान लेता है। खेल के अंत में दोनों एक दूसरे से हाथ भी मिलाते हैं और दूसरी बार खेल में और बेहतर अच्छा दिखने के लिए मेहनत करते हैं।

धंधे और उद्योग जगत में भी ऐसा हेल्दी कॉम्पटीशन देखने को मिलता है। ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि दो कंपनियाँ एक जैसा प्रोडक्ट बनाती हैं तो दोनों कंपनियाँ सिर्फ एक ही प्रोडक्ट को एक जैसा रखती हैं। बाकी के सभी प्रोडक्ट अलग-अलग लेकिन उत्तम गुणवत्ता वाली बनाते हैं। जिससे खरीदार को भी फ़ायदा होता है और दोनों का धंधा भी अच्छा चलता है।

बहुत बार हमें नौकरी या धंधे में प्रोडक्ट बेचने के लिए मज़बूरी में स्पर्धा में उतरना पड़ता है। तब कंपनी की ओर से सब करना, कि यह प्रोडक्ट इतना अच्छा है, वगैरह वगैरह। लेकिन उसमें ईमानदारी रखना। हमारी नियत में ऐसा नहीं होना चाहिए कि सामनेवाले को हराकर मैं आगे बढ़ जाऊँ। सामनेवाली कंपनी के लिए नेगेटिव बातें हों तो हमें उसमें नहीं उतरना चाहिए। उस कंपनी को तोड़फोड़ कर, नुकसान पहुँचाकर, उसके लोगों को इधर-उधर करके आगे आने की कोशिश नहीं करते तो इसे हेल्दी कॉम्पटीशन कहा जाएगा।

हमारे कारण किसी को स्पर्धा हो तब

यदि हम ऐसे पद पर हैं कि हमारे नीचे दो लोग स्पर्धा कर रहें हों तो वहाँ भी जागृत रहें। दोनों स्पर्धा में उतरे होंगे, तो दोनों एक दूसरे को हराने की कोशिश करते रहेंगे और हमारे पास फ़रियाद लेकर आएँगे। ऐसे समय में बहुत संभल कर व्यवहार करें।

एक की काबलियत ज़्यादा हो तो कम काबलियत वाले को उनके साथ स्पर्धा हो सकती है। तो उस समय यदि तब हम अधिक काबलियत वाले की ख़ूब तारीफ़ करें और कम काबलियत वाले के काम में भूल निकालें तो बात ज़्यादा बिगड़ जाएगी। दोनों के बीच में तुलना, स्पर्धा और ईर्ष्या बढ़ जाएगी। हमें दोनों का एक जैसा प्रोत्साहन देना चाहिए।

जिसमें कम काबलियत हो उसे हिम्मत दें कि आप कर लेंगे, पॉजिटिव रहना, सामनेवाले के लिए नेगेटिव मत सोचना। जिसमें ज़्यादा काबलियत हो उसे भी समझाइए कि आप, किसी को दुःख ना हो, किसी को इन्फिरियर्टी महसूस ना हो ऐसे संभलकर रहना। सामनेवाला स्पर्धा करे तब उसके साथ द्वेष मत करना।

यह सब करने के बाद भी हमें किसी एक के पक्ष में या सही-गलत में नहीं पड़ना है। दिल में यही रखना कि दोनों अपनी-अपनी जगह पर सही हैं।

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