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स्पर्धा से क्या नुकसान होता है?

स्पर्धा वह संसार का विटामिन है। यह हमें संसार में डुबो देती है। हरएक जगह खुद को ज़्यादा लाभ मिले, यह रोग स्पर्धा में डाल देती है। स्पर्धा में मुझे ज़्यादा मिले, मेरे परिवार को ज़्यादा मिले, दूसरों को कम मिले ऐसी वृत्ति लगातर काम करती रहती है। सब हटें और मैं आगे बढूँ, ऐसी स्पर्धा करने से बाद में कुदरत हमें ही कहती है कि “तु हट जा और सब आगे बढ़ें।“ इसलिए स्पर्धा से सामने वाले को नुकसान कम होता है, लेकिन ख़ुद का ही भयंकर अहित हो जाता है। अंदर सामने वाले व्यक्ति के लिए इतनी नेगेटिविटी घुस जाती है कि परिणाम स्वरूप ख़ुद ही नीचे गिर जाता हैं।

स्पर्धा अधोगति को न्योता देती है!

जिस व्यक्ति के साथ स्पर्धा होती है, उसके साथ भयंकर द्वेष खड़ा हो जाता है, जिसे तेजोद्वेष कहते हैं। जो स्पर्धा करता है उसे बहुत भुगतना होता है। उसे एक दिन भी चैन नहीं आता, शांति नहीं होती। रात-दिन बस यही चलता रहता है कि कैसे आगे बढूँ!

स्पर्धा मनुष्यों को घर्षण में डालती है। स्पर्धा से टकराव और बैर बढ़ता है। स्पर्धा के परिणाम स्वरूप ईर्ष्या उत्पन्न होती है, आमने-सामने टकराव होते हैं और व्यक्ति तंत रखता है। कुछ लोग नेगेटिव स्पर्धा करने वाले तो हमेशा दूसरों को हटाकर, उसका नुकसान करके भी “मैं किस तरह आगे निकल जाऊँ” इसी पैरवी में ही लगे रहते हैं। वह तो भयंकर कर्म बाँधते हैं जिसके परिणामस्वरूप अधोगति में जाना पड़ता है।

स्पर्धा में शक्ति बर्बाद होती है

हमारा समय और शक्ति स्पर्धा में बर्बाद हो जाते हैं। वैसे भी रेसकोर्स में जाने से क्या कुछ बदलने वाला है? परम पूज्य दादा भगवान कांट्रेक्टर के बिज़नेस में टॉप पर पहुँचे थे। उन्होंने नज़दीक से स्पर्धा देखी थी। वे रेसकोर्स में उतरने के परिणामों के बारे में बताते हुए कहते हैं, “लोगों का तो तरीका ही गलत है, रिवाज ही पूरा गलत है! तो इन लोगों के रीत-रिवाज के अनुसार हम दौड़कर पहला नंबर लाए उसके बाद भी वापस आखरी नंबर आया, तो फिर मैं समझ गया कि यह दगा है! मैं तो वहाँ भी दौड़ा हूँ, खूब दौड़ा हूँ, लेकिन उसमें पहला नंबर लाने के बाद फिर आखिरी नंबर आया था। तब हुआ कि, 'यह कैसा चक्कर है? यह तो फँसने की जगह है!' इसमें तो कोई हल्का आदमी जब चाहे तब अपने को मटियामेट कर सकता है। ऐसा कर देगा या नहीं कर देगा ? पहला नंबर आने के बाद दूसरे दिन ही थका देता है! तब हम समझ गए कि इसमें पहला नंबर आने के बाद फिर आखरी नंबर आता है, इसलिए घुड़दौड़ में उतरना ही नहीं है।”

स्पर्धा लाती है अनीति-अप्रमाणिकता

पैसा कमाने की स्पर्धा में लोग नौकरी या बिज़नेस में गलत काम करते हुए भी हिचकिचाते नहीं हैं। पैसा कमाने के लिए अनीति और अप्रमाणिकता का रास्ता अपनाते हैं। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि “डिस्ऑनेस्टी इज़ द बेस्ट फूलिशनेस!” अनीति और अप्रमाणिकता वह सबसे बड़ी मूर्खता है।

क्योंकि गलत कामों को छुपाने से अंदर हमेशा चिंता और स्ट्रेस होता है। सेठ की दो-तीन मिलें हों, फिर भी उसके भीतर ऐसा जबरदस्त तनाव होता है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता! कब हार्टफेल हो जाए कह नहीं सकते।

इतना ही नहीं, पैसे की स्पर्धा का तो कोई अंत नहीं है। क्योंकि अच्छे-बुरे काम करके, ज़्यादा पैसा कमाकर भी किसी को संतोष नहीं हुआ। जितना ज़्यादा पैसा कमाता है उतनी अपने से ज़्यादा पैसे वाले के साथ स्पर्धा होती है। पहला नंबर आए, सफलता मिले तो भी एकाद साल के लिए अख़बार या मैगज़ीन में आता है, लेकिन बाद में यह सफ़लता लंबी नहीं टिकती।

स्पर्धा करने वाले व्यक्ति का प्रभाव नहीं पड़ता

कई बार स्पर्धा ख़ुद की इम्प्रैशन जमानें और विशेषता स्थापित करने के लिए भी की जाती है। लेकिन सच में इम्प्रैशन बढ़ती तो नहीं, उल्टी कम हो जाती है। परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, रेसकोर्स' में 'पर्सनालिटी' नहीं पड़ती, किसी की भी नहीं पड़ती है।” और वे ऐसा भी कहते हैं कि आप ‘रेसकोर्स’ में से हटे कि तुरंत आपकी पर्सनालिटी पड़ेगी।”

स्पर्धा में दो लोग एक दूसरे की टांग खींचने जाते हैं फिर अंत में दोनों गिरते हैं। दोनों में से कोई भी ऊँचा नहीं आ पाता। जब दो व्यक्ति स्पर्धा करते हैं तब दूसरे लोगों में भी उनका प्रभाव अच्छा नहीं पड़ता। जो स्पर्धा से पूरी तरह बाहर निकल जाता है उसका ज़बरदस्त प्रभाव पड़ता है। लेकिन जो स्पर्धा करते हैं वे ख़ुद ही ख़ुद की वैल्यू कम कर देते हैं।

टीका ख़ुद का ही बिगाड़ती है

स्पर्धा में बहुत से लोग पीठ के पीछे निंदा भी करते हैं। किसी की गैरहाज़िरी में उसकी निंदा या टीका करें तो उस व्यक्ति को उसके स्पंदन पहुँच ही जाते हैं। उसका सायन्स समझाते हुए परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, निंदा नहीं करनी चाहिए। वातावरण में सारे परमाणु ही भरे पड़े हैं। पहुँच जाता है सबकुछ। किसी के लिए गैरजिम्मेदारीवाला एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिए। और यदि बोलना ही है तो कुछ अच्छा बोलो, कीर्ति बोलो। अपकीर्ति मत बोलना।

परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि निंदा और टीका से खुद का ही नुकसान होता है। वे कहते हैं, “टीका करने से पहले तो अपने कपड़े बिगड़ते हैं, और दूसरी टीका से देह बिगड़ती है और तीसरी टीका से हृदय बिगड़ता है।“ इसलिए किसी की भी बात में गहरे मत उतरना।

इस दुनिया में अगर कोई जबरदस्त नुकसान है तो वह निंदा करने में है। परम पूज्य दादा भगवान निंदा और टीका के जोख़िम समझाते हैं।

दादाश्री: किसी भी मनुष्य की व्यक्तिगत बात करने का अर्थ ही नहीं है। सामान्य भाव से बात समझने की ज़रूरत है। व्यक्तिगत बात करना वह तो निंदा कहलाए। और निंदा तो अधोगति में जाने की निशानी है। किसी की भी निंदा करें यानी आपके खाते में डेबिट हुआ और उसके खाते में क्रेडिट हुआ। ऐसा धंधा कौन करेगा? मनुष्य की निंदा करना वह उसका घात करने के समान है। इसलिए निंदा में तो बिलकुल पड़ना ही नहीं। मनुष्य की निंदा कभी करना नहीं, ऐसा करना पाप है।

सामनेवाले को हराने में जोख़िम

सच में स्पर्धा में सामनेवाले को हराने में बहुत जोख़िम है। जब हम सामने वाले को हराते हैं, तो वह बाद में हमें हराने की तैयारी करता है। इसमें आमने-सामने बदला लिया जाता है और फिर हार-जीत का व्यापार शुरू हो जाता है।

किसी एक कंपनी की किसी क्षेत्र में मोनोपोली हो और तभी दूसरी कंपनी उसी क्षेत्र में ऊपर आए तब एक की मोनोपोली टूटती है और जनता को फ़ायदा होता है। लेकिन इसका नुकसान यह होता है कि, दोनों में गलाकाट स्पर्धा शुरू होने से बैर बढ़ जाता है। फिर एक कंपनी दूसरी कंपनी के मेनेजर को रिश्वत देती है और अपनी कंपनी में ऑफर देती है। फिर दूसरी कंपनी भी उसका बदला लेती है।

बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ भी स्पर्धा के परिणामस्वरूप ही होती हैं। रामायण और महाभारत जैसे युद्ध होने के पीछे सत्ता, स्त्री और पैसे के लिए स्पर्धा ही मुख्य कारण थे। स्पर्धा में डूबे हुए दो महारथी लड़ते हैं और दोनों की लड़ाई में पूरे समाज, पूरी संस्था, पूरे गाँव, पूरे राज्य और पूरे देश का नुकसान हो जाता है।

स्पर्धा वहाँ दुःख

जहाँ स्पर्धा होती है वहाँ दुःख होता ही है। इनाम हमेशा पहले नंबर वाले को ही मिलता है। बाकी सभी तो हाँफ-हाँफकर और भटककर मर जाते हैं तो भी कुछ नहीं होता। हमारे आस-पास भी ऐसी घुड़दौड़ हमें देखने को मिलती ही है। परम पूज्य दादा भगवान ऐसे सांसारिक व्यवहार के एक प्रसंग का दूर से खड़े-खड़े निरीक्षण करते हैं और उसका हूबहू वर्णन यहाँ कर रहे हैं।

शादी जैसा कोई सामाजिक कार्य हो, परिवार का स्नेहमिलन हो या ऑफिस के रोज़ का काम हो, ऐसी स्पर्धा देखने को मिलती ही है। जिसमें एक व्यक्ति को मान मिलता है और बाकी सभी उदास चेहरे के साथ खड़े होते हैं। परम पूज्य दादाश्री ऐसे ही एक प्रसंग का सार निकालते हुए कहते हैं कि स्पर्धा ही दुःख का कारण है।

दादाश्री: ये लोग स्पर्धा करते हैं न, इसलिए दुःख आते हैं। ये तो 'रेसकोर्स' में उतरते हैं। यह जो 'रेसकोर्स' चल रहा है उसे देखता रह, कि कौन सा घोड़ा पहले नंबर पर आता है?! उसे देखता रहे तो देखने वाले को कोई दुःख नहीं होता। जो 'रेसकोर्स' में उतरते हैं उन्हें दुःख होता है। इसलिए 'रेसकोर्स' में उतरने जैसा नहीं है।

स्पर्धा खो देती है मानवता

ख़ुद दो बेडरूम के घर में सुख़ से रहते हों। लेकिन दोस्त के चार बेडरूम का फ्लैट देखे तो ईर्ष्या होती है और फिर, रोज़ अपना घर देख कर दुःखी होता है कि उनके जैसा बड़ा फ्लैट लेना है। इसतरह से ख़ुद ही सुखी जीवन में दुःख को न्योता देता है। देखादेखी से कैसे स्पर्धा होती है और वह क्या–क्या नुकसान करती है उसका एक सही उदाहरण परम पूज्य दादा भगवान हमें यहाँ दे रहें हैं।

दादाश्री: अभी तो श्रेष्ठी कैसे हो गए हैं? दो साल पहले नए सोफे लाया हो तो भी पड़ोसी का देखकर फिर से दूसरे नए सोफे लाता है। ये तो स्पर्धा में पड़े हुए हैं। एक गद्दा और तकिया हो तब भी चले। लेकिन यह तो देखा देखी और स्पर्धा चली है। उसे सेठ कैसे कहेंगे? ये गद्दे तकिये की भारतीय बैठक तो बहुत उच्च है लेकिन लोग उसे समझते नहीं हैं और सोफे के पीछे लगे हैं। फलाँ ने ऐसा लिया है तो मुझे भी वैसा चाहिए। उसके बाद जो कलह होती है! ड्राइवर के घर पर भी सोफे और सेठ के घर पर भी सोफे! यह तो सब नकली घुस गया है। किसी ने ऐसे कपड़े पहने तो वैसे कपड़े पहनने की वृत्ति होती है! यह तो किसी को गैस पर रोटी पकाते हुए देखा तो खुद गैस ले आया। अरे! कोयले और गैस की रोटी में फर्क नहीं समझता ? चाहे जो भी खरीदो उसमें हर्ज नहीं है लेकिन स्पर्धा किसलिए? इस स्पर्धा से तो मानवता भी खो बैठे हैं। यह पाशवता तुझ में दिखेगी तो तू पशु में जाएगा! वर्ना श्रेष्ठी तो खुद पूर्ण सुखी होता है और मुहल्ले में सभी को सुखी करने की भावना में रहता है। जब खुद सुखी हो, तभी औरों को सुख दे सकता है। खुद ही यदि दुःखी हो, वह औरों को क्या सुख देगा? दुःखियारा तो भक्ति करता है और सुखी होने के प्रयत्न में ही रहता है!

संक्षेप में, जिस भी क्षेत्र में हम रेसकोर्स में उतरें वहाँ आगे तरक्की होने के बदले वह उल्टी रुक जाती है। जब रेसकोर्स से बहार निकलते हैं तब अंदर झाँखने की शरुआत होती है। परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि “मैं इस संसार के 'रेस-कोर्स' में पड़ा ही नहीं, इसलिए मुझे 'भगवान' मिल गए!

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